पिछले काफी दिनों
से मेरे कई कमरों की सिटकिनी खराब थी. हर बार मुझे झल्लाहट से भर देनेवाली यह सिटकिनी
कितनी मामूली है, लेकिन कितनी अहम
!
मामूली इसलिए कि दिन
भर में कई दफा इस्तेमाल होने के बावजूद मैं क्या, ज़्यादातर लोग इसे याद नहीं रखते हैं. महीनों बीत जाने के बाद
भी उसके मरम्मत का ध्यान ही नहीं रहता है. जब तक कि वह सचमुच पीड़ा देने न लगे. कहने
का मतलब कि भौतिक अर्थ में जब सिटकिनी से चोट लगने लगे या हाथ छिल जाए या किवाड़ बंद
न हो पाए तब उस पीड़ा का बोध हमें तवज्जो देने के लिए मजबूर करता है.
सिटकिनी जानते हैं
न आप ? वही ...जिसे लोग सिटकनी,
चटखनी, चिटखनी, चिटखिनी, चिटकनी या चिटकिनी कहते हैं. दरवाज़ों को प्रायः
अन्दर से बंद करने के लिए एक कुंडी समझिए. प्रायः लोहे, पीतल जैसी धातु से यह बनती है. वैसे इस प्लास्टिक युग में प्लास्टिक
की सिटकिनी भी खूब मिलती है. आप ऐश्वर्यशाली हों तो अपने घर के दरवाज़ों में चाँदी-सोने
की सिटकिनी भी लगा सकते हैं. और कुछ नहीं तो भगवान के मंदिर के पट की सिटकिनी चाँदी-सोने
की बनवा ही लीजिए. आखिर सिटकिनी किस चीज़ की बनी होगी यह लोगों की औकात के हिसाब से
होता है. भाव के हिसाब से भी ! भक्ति मापने के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सहित अनेकानेक
पूजा स्थलों की सिटकिनियों का सर्वेक्षण किया जा सकता है.
खैर, हम मध्यमवर्गीय लोग तो अपनी लोहे की सिटकिनी से
ही जूझते रहते हैं. जिनमें अक्सर ज़ंग लग जाता है. हवा की नमी से. अटकते-झटकते वह काम
करती रहती है और एक दिन पैर रोप देती है. कहती है, जा, अब न चलूँगी. उससे
शुरू होता है खीझना, कोसना और बड़बड़ाना.
उस नन्हीं सी जान को हम बख्शते नहीं. भई, हम आप बेहिस्स हो सकते हैं, अपने चारों तरफ की
हवा से निरपेक्ष रह सकते हैं, लेकिन सिटकिनी बेचारी
को हवा का संग ज़ंग दे गया तो वह क्या करे ! अब आप इसे राजनीति मत कहिएगा.
शब्दकोश ने बतलाया
कि चटकना या चटखना अरबी भाषा की क्रिया है. इसके मूल में हल्की सी 'चट' की आवाज़ का होना है. कलियों के या शीशे के चटकने के संदर्भ में इसका इस्तेमाल आम
है. वही आवाज़ सिटकिनी के दिल में है. जब आवाज़ के साथ सिटकिनी झट से खुल जाती है तो
राहत मिलती है. हमें वह आवाज़ चाहिए. मगर न ज़रूरत से ज़्यादा और न ज़रूरत से बहुत कम.
अधिक आवाज़ हो तो हमारे परिष्कृत कानों को चुभती है. हम ऐसी सिटकिनी ढूँढने जाते हैं जो शोर न करे.बाज़ार
इसका भरपूर फायदा उठाता है. बेआवाज़ कहकर पीतल की भारी और मँहगी सिटकिनी बिकती है और
हम शौक से कम से कम अपने नए घर में उसे ज़रूर लगवाना चाहते हैं. मगर जो आवाज़ पर टिकी
हो वो भला एकदम बेआवाज़ कैसे होगी ! कायांतरण क्या इस हद तक होता है !
फैशन की वबा छोड़ दें
तो अमूमन सिटकिनी लंबी होती है. कहना चाहिए नीचे से ऊपर लंबाई में लगाई जाती है. उसकी
दिशा तय होती है. मगर हम ठहरे इंसान जिसे हर चीज़ की दिशा को मोड़ने और बदलने का शौक
है. हम कभी कभी उस सिटकिनी को लिटा देते हैं, कभी आड़ा-तिरछा कर देते हैं तो कभी अंदर के बजाय बाहर से लगा
देते हैं. वह है बेजान, इसलिए इंसान को झटका
भले दे, हल्की चोट लगा दे,
पर मुख़ालफ़त नहीं करती. उसके आकार-प्रकार में प्रयोग
किया जाता है तब भी सिटकिनी चुपचाप अपना काम करती है. आप सबने गौर किया होगा कि हम
सिटकिनी की चौड़ाई कम, लंबाई घटाते-बढ़ाते
रहते हैं. ख़ूबसूरती के नाम पर और ज़रूरत के नाम पर. हाथ भर लंबी सिटकिनी देखने में भव्य
मालूम होती है और छुटकू सी सिटकिनी प्यारी लगती है.
इसकी अहमियत की गवाही
किस किस से लूँ ? और लूँ भी क्यों ?
जो छोटा है, नज़र में रहकर भी नज़र नहीं आता, उसका वजूद क्या दूसरों पर निर्भर है ! नहीं, हरगिज़ नहीं. हर वो शै जो है वह अपना अस्तित्व रखती
है. हम आप उसका इस्तेमाल करें और भूल जाएँ, यह हमारी फ़ितरत बताता है, उसकी नहीं. सिटकिनी है बस...ख़ामोश, मगर सक्रिय.
सिटकिनी रुकावट है,
इससे लोग वाकिफ़ हैं. और रुकावट हमें चाहिए - अपने
लिए, दूसरों के लिए कम.यह हमें
निजता देता है. शर्मो हया की आड़ देता है. एक कमरे से ही नहीं, कभी कभी एक पूरी दुनिया से हमें परे ले जाता है.
इसलिए जब बेबात और विरोध में किसी दरवाज़े या खिड़की की सिटकिनी मुँह पर बंद कर दी जाती
है तो हमें सहसा महसूस होता है कि कोई है. सिटकिनी सत्ता को दिखा देती है, नियंत्रण की चाभी बन जाती है.
यानी सिटकिनी लोगों
की मौजूदगी का अहसास कराती है. उसे खोलने और बंद करनेवाला कोई फ़र्द होता है. हाड़-मांस
से बना. मलकूती मख़लूक नहीं, ज़मीनी इंसान. यह अलग
बात है कि करतब करना सिखा देने पर जानवर भी सिटकिनी चला ले, मगर है वह इंसानी मतलब की चीज़.
सबसे बड़ी बात यह कि
सिटकिनी हिफ़ाज़त करती है. बेपर्दगी से बचाती है. उसकी तीव्रता तय होती है इससे कि वह
किसके घर की है या किस दरवाज़े की है. गुसलखाने की सिटकिनी हुई तो उसका वज़न बढ़ जाता
है. गुसलखाने के अंदर हसीना हुई तो उस सिटकिनी
पर इज़्ज़त की रक्षा का दारोमदार रहता है. केवल उस जान की रक्षा नहीं, पूरे कुनबे की प्रतिष्ठा की रक्षा का भार रहता है.
आज ही दफ़्तर का बाथरूम चर्चा में था. उसकी सिटकिनी घायल कर रही थी लोगों को और उसके
अलावा दरवाज़ा जाम कर दे रही थी. फ़ौरी उपाय निकला कि सिटकिनी को फिलहाल काम में न लाया
जाए और थोड़ा बरसात के मौसम में उसके नखरे सह लिया जाए. नतीजा दफ़्तर के कई लोग पहरेदारी
कर रहे थे. एक सिटकिनी ने लोगों को खुद बखुद सिटकिनी में बदल दिया था. सतर्क,
चुस्त और ऐलान करनेवाला.
How beautifully the ordinary sitkin comes alive!!...loved reading this
जवाब देंहटाएंhumlog bhi to sitkini ban gaye hai....kabhi gomata ki raksha me or kabhi bhrastachar ke viruddh...
जवाब देंहटाएंकितने दिनों की प्लानिंग थी. बहुत अच्छा
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