आज का दिन कैसा गुज़रा, यह क्या हमलोग हमेशा सोचते हैं ? नहीं। जब दिन अच्छा बीतता है तब और जब बुरा बीतता है तब शायद
अधिक इसका ख़याल आता है। जब पूरे दिन आपा-धापी रहती है तब और जब निठल्ले बैठे रहो तब
भी यह दिमाग में चक्कर काटता है।
हाँ, बीच बीच में बेटी से
या अपूर्व से बाहर से आने पर यह सवाल पूछ लेती हूँ। कभी तार जोड़ने के लिए, कभी बात छेड़ने के लिए,
कभी जानने के लिए, कभी अपनी कुढ़न को सांकेतिक रूप
से पहुँचाने के लिए, कभी ध्यान भटकाने के लिए तो कभी यों ही। मुझसे भी जब तब यह सवाल पूछा जाता है.
अमूमन रुटीन की तरह जवाब दे देती हूँ, लेकिन कभी कभी यह पिटारा खोल देता है.
परसों की बात है. माँ ने पूछा कि आज क्या क्या किया। पता नहीं क्यों मैं जवाब नहीं
दे पाई. मैंने टाल दिया. बात इधर-उधर करते हुए मैं सोचती जा रही थी कि आखिर कभी कभी
सीधे से सवाल का सीधा जवाब देना क्यों मुश्किल हो जाता है. शायद बहुत बात होती है तो
झटपट उसका सारांश बताना कठिन होता है. या इतनी मामूली बात होती है कि उल्लेखनीय नहीं
लगती है. या नयापन नहीं होता है तो दोहराने की ऊब से बचने का जी करता है. अगले की दिलचस्पी
होगी या नहीं, यह ख़याल भी कभी कभी रोक देता है. या बात करनेवाला माध्यम - फोन, Chat, वीडियो कॉल वगैरह बाधक बनता है.
रूबरू होने पर सवाल करनेवाले और जवाब देनेवाले के रिश्ते का स्वरूप निर्णायक भूमिका
निभा सकता है. दिलो दिमाग का तापमान भी मायने रखता है. जगह और समय तो है ही महत्त्वपूर्ण.
कहना गलत न होगा कि अनगिनत variables होते हैं.
बात यह भी है कि किस काम को हम काम गिनते हैं और किसको करने से हमें संतोष होता
है. अनचाहा या रुटीन वाला काम करने पर भी उसकी गिनती हम खुद नहीं करते. बेमन से अपना
मनचाहा काम भी मशीनी हो जाता है. इसलिए हमें उसकी working memory भी नहीं रहती. उसमें किस किस
तरह की प्रक्रियाएँ हुईं, शारीरिक-मानसिक ऊर्जा को कहाँ कहाँ हमने खर्च किया, यह याद नहीं रहता. क्यों ?
पिछले दिनों बच्चों के साथ कला के माध्यम से काम करनेवाले लोगों के प्रशिक्षण की
तैयारी करने के क्रम में मैं Multitasking और Creativity के बारे में पढ़ रही थी. उसका एक शिरा मनोविज्ञान की गलियों में
चला गया था. भारी भरकम पारिभाषिक पदों की गिरह खोलने की इच्छा बहुत हो रही थी,
लेकिन मैंने अपने को थाम लिया.
Cognitive fragmentation, Cognitive load, Cognitive resources को समझना बहुत ज़रूरी है,
मगर वह डगर कहीं और जाती है.
हाँ, अच्छा लगा कि इंटरमीडिएट
में पढ़े हुए मनोविज्ञान की बुनियादी बातें स्मृति में कहीं दबी पड़ी थीं. आगे जाकर जेंडर
के मुद्दे के तहत भावना और विवेक के द्वंद्व को समझने में इस मनोविज्ञान ने थोड़ी मदद
की थी. उसके सहारे मैं दिन कैसा गुज़रा, इस सवाल की परतों को भी देखना चाह रही थी.
माँ का फोन रखते हुए मुझे अपने पर खीझ हुई कि कम से कम आज मेरे पास बताने को कितना
कुछ था. पिछले कई महीनों से मैं गाँधी पर प्रस्तुति के लिए जिस स्क्रिप्ट पर काम कर
रही थी उसने एक शक्ल आज ही ली थी. वंदना राग का अनुवाद आ गया था और उसकी लयात्मकता
देखकर मैं खुश थी कि स्क्रिप्ट का एक अंश जम गया. बाकी रचनाओं की सॉफ्ट कॉपी रिज़वाना
के सौजन्य से मिल चुकी थी और उन सबको जोड़ने के काम में मैं जुटी हुई थी, लेकिन खुद संतुष्ट नहीं हो पा
रही थी.कई बार सीवन उधेड़ी, जोड़ा-घटाया, पर गाड़ी पटरी पर आई आज ही.
इस दौरान कुछ अंशों का अनुवाद करना मेरे जिम्मे था. भाषा के खेल में आनंद आता है
मुझे और अनुवाद की चुनौतियों से अच्छी तरह वाकिफ हूँ. इसलिए अनुवाद शुरू करने के पहले
चुनिंदा विदेशी महिलाओं की पृष्ठभूमि समझना ज़रूरी था. उस चक्कर में हुआ यह कि उनकीअंग्रेज़ी
से जूझना छोड़कर मैं डेनमार्क, नॉर्वे, फ़िनलैंड से लेकर इंग्लैंड-अमेरिका में उनके कार्यक्षेत्रों का दौरा करने लगी थी.
(गूगल के नक़्शे की मदद से)
इतिहास पलटने से मुझे यह समझ में आया कि फिनलैंड के स्कूलों में होम वर्क,
परीक्षा जैसी अनिवार्य मानी जानेवाली
चीज़ों को क्यों हटा दिया जाना संभव हुआ है. डेनमार्क के Nikolaj Frederik
Severin Grundtvig या N. F. S. Grundtvig (1783 – 1872) जैसे क्रांतिकारी
विचारक ने आसपास के देशों को ही नहीं, सुदूर देशों को भी प्रभावित किया था. राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक
तरक्की की सीढ़ी चढ़ने में Grundtvig
के विचारों का बड़ा योगदान है.
उसी में मुझे आज ऐनी मेरी पीटरसन द्वारा पंडिता रमाबाई के स्कूल पर टिप्पणी मिल गई
थी. साथ ही, शांति निकेतन, गाँधी आश्रम सहित अनेक संस्थानों की शिक्षा पद्धतियों की संक्षिप्त समीक्षा थी.
नेशनल क्रिश्चन गर्ल्स स्कूल खोलने की उनकी इच्छा से हाल-फिलहाल की धर्मांतरण की बहस
याद आ गई थी.
अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस अखबार का पूरा पन्ना केरल की अखिला से हदिया की यात्रा
पर देखा तो पंडिता रमाबाई के धर्मांतरण पर होनेवाले विवाद का पन्ना आँखों के आगे आ
गया. सवा सौ साल पहले भी वह राष्ट्रीय मुद्दा बना था और खूब अखबारबाजी हुई थी और आज
भी वही आलम है. एक लड़की, एक औरत किसी से असंतुष्ट होकर दूसरे का वरण कर सकती है, यह अकल्पनीय लगता है समाज को. उसमें भी वह व्यक्ति नहीं,
धर्म को चुनने का मसला हो तो
मामला और संगीन हो जाता है. मुझे मन किया कि अगले दिन ही सही माँ को फोन करूँ और उसको
बताऊँ कि कल और आज मैंने कैसे गुज़ारा. वह मेरे मन को मेरे 'हैलो' कहने के अंदाज़ भर से पकड़ लेगी.
माँ को प्रिंगल की कारस्तानी भी बतानी थी जो नहीं बताई. मैडम को रोटी दी थी तो
मुँह फेरकर चली गई थीं. थोड़ी देर बाद रसोई के स्लैब पर हाथ रखकर उचक रही थीं कि किसी
कोने से चिकेन-मटन निकल आए. घर में था ही नहीं तो उनको मिलता कैसे. मैंने सोच रखा था
कि शाम को पक्का मँगा दूँगी. फिलहाल चावल-अंडा और दही से काम चलाऊँ, यह योजना थी जो कि अमल में लाई
गई. प्रिंगल ने करम फरमाया और चटपट चावल-अंडा और दही खा गई, लेकिन नीचे में रोटी के टुकड़े पड़े रह गए. फुसलाने का
कोई असर न हुआ. दौड़ा-दौड़ी ने भी उसका मूड फ्रेश नहीं किया. दरवाज़े पर उदासीन सी वह
लेट गई.
बेटी बाहर से आईं तो प्रिंगल मैडम की हरकत देखते बनती थी. ऐसे नाच रही थीं मानो
बस वो हैं और उनकी प्यारी हैं. मेरी मौजूदगी का किसी को अहसास ही नहीं था. पास खड़ी
होकर मैं इस बेमुरव्वती को देखकर मुस्कुरा रही थी. सोचा कि अपूर्व को सारा किस्सा बताऊँगी.
इसमें दिमाग नहीं खपाया कि क्या क्या और कितना बताऊँगी. दिन गुज़रा, यह महत्त्वपूर्ण था. अच्छा-बुरा,
उत्पादक-अनुत्पादक का लेबल लगाने
के लिए हम क्यों तड़पते रहते हैं. Redundancy का भी अपना महत्त्व है. वह ज़रूरी है. जैसे भाषा में
वैसे जीवन में, अपनी दिनचर्या में.
बहत ही सुंदर और सरल !
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