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सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

"करिहा छमा छठी मैया भूल चूक गलती हमार ..." (Chhath video : Gender analysis by Purwa Bharadwaj)

https://www.youtube.com/watch?v=DG8F-csoRAQ


'पहिले पहिल छठी मैया' यह पिछले साल का वीडियो है, मगर मैंने अभी पिछले महीने देखा था. उसके बाद कई बार नज़र से गुज़रा.  इधर तो सोशल मीडिया में यह तेज़ी से घूमने लगा है. छठ जो नज़दीक है !

बिहार के महत्त्वपूर्ण त्योहार छठ पर केन्द्रित इस वीडियो से गैर-बिहारी भी अपने को जोड़ सकते हैं. अपने अपने प्रदेश की संस्कृति से दूर जाने की कसक सबको है. इसमें अतीत की खूबसूरत चीज़ों के छूट जाने का दर्द ऐसे पिरोया हुआ है कि उसका साधारणीकरण होने में देर नहीं लगती है.

यह कहना झूठ होगा कि इसे देखकर मैं भावुक नहीं हुई. माँ के छठ करने की पावन याद जग गई और तकलीफ हुई इसके छूट जाने पर. लेकिन जेंडर आधारित भूमिका, पितृसत्ता का जाल, पितृत्ववाद (Paternalism)की चिकनी-चुपड़ी गलियाँ अब एकदम अनजानी नहीं हैं. थोड़ी थोड़ी पहचान होने लगी है इनसे. इसलिए वीडियो का एक एक शॉट समझ में आने लगा. कितनी बारीकी से सारा सरो सामान जुटाया गया है.


इसका एक एक संवाद वज़नदार है क्योंकि संस्कृति को बचाने के मकसद से यह लिखा गया है. टीम ने वीडियो बनाते समय नॉस्टेल्जिया का सहारा ख़ूबसूरती से लिया है. व्यावसायिक उद्देश्य, बाज़ार के मुनाफे की बात  या शारदा सिन्हा के एलबम बेचने की बात नेपथ्य में है.

Worldwide Records Bhojpuri के बैनर तले ऐसे वीडियो की पहुँच कहाँ तक होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है, मगर सामान्य दर्शक को इससे बहुत लेना-देना नहीं होता है. हाँ वीडियो में भले पति की भूमिका में क्रांति प्रकाश झा और सुंदर पत्नी की भूमिका में क्रिस्टीन ज़ेडेक का सहज अभिनय मायने रखता है. उन्हें देखकर शहर में अकेले रह रहे उच्चवर्ग और मध्यमवर्ग के लोग अपने जीवन में आ रही कमी को महसूस करते हैं. यह कमी सुख-सुविधा की कमी नहीं है. यह रौनक की कमी है, संस्कृति के तत्त्वों की कमी है.

जो पहले था, उसके छूट जाने का तीखा अहसास कराता है यह वीडियो. तभी तो वीडियो के परिचय में कहा गया है कि यह श्रद्धालुओं की अगली पीढ़ी को समर्पित है. नई पीढ़ी छठ – ‘आस्था के महापर्वको आगे बढ़कर थाम लेती है.

वीडियो का माहौल बड़ा घरेलू सा है. यह इस बात को एक बार फिर स्थापित करता है कि संस्कृति - व्रत त्योहार, रीति-रिवाज, खाने-पीने की परंपरा को आगे ले चलने का काम औरतों का ही है. भाषा-बोली का संरक्षण भी वही करती हैं. उनसे यह सब करवाने के लिए उनके साथ हर वक्त हिंसा हो ज़रूरी नहीं है. यह काम साम दाम दंड भेद हर तरीके से होता है. बहलाकर-फुसलाकर, औरतों को अपराध बोध में डालकर, अच्छी औरत का तमगा देकर यह किया जाता है. और तो और औरतें आगे बढ़कर खुशी खुशी यह सब करने लगती हैं. इस वीडियो में भी बहू को इतनी समझदार दिखाया गया है कि खुद बखुद वह साँचे में ढल जाती है. उसे पितृसत्ता के जाल में फँसानेवाला प्रत्यक्ष रूप से कोई दूसरा नहीं है. उसने मूल्यों को बखूबी आत्मसात किया है.

सास-बहू की टकराहट नहीं है इसमें. माँ 'बेचारी' बहू की सीमा समझती है. बहू की संस्कृति अलग है, इंगलिश मीडियम में पढ़नेवाली है. सास जालिम नहीं है और न ही पुरानी सोचवाली है कि उसे छठ करने के लिए मजबूर करे. बेटे से भोजपुरी में बात करनेवाली माँ स्नेह से खड़ी बोली बोलनेवाली बहू के प्रणाम का प्रत्युत्तर देती है. उसी की भाषा में. कहीं कोई 'imposition' नहीं है.

बेटा दुखी है यह सुनकर कि इस बार छठ करनेवाला कोई नहीं. पटना का एडवांस टिकट कैंसिल करा लेने की सलाह माँ ने दी है. परिवार की पतोहू लोग अब इन सब पुरानी रीतियों और मान्यताओं को निरर्थक मानकर अपनी ज़िंदगी में मगन हैं. सवाल है कि अब इस 'tradition' का क्या होगा ? बेटा आगे बढ़कर अपनी पीड़ा नहीं बताता है. पत्नी के पूछने पर भीगे स्वर में माँ से हुए वार्तालाप का सार-संक्षेप बताता है. हिन्दी-अंग्रेज़ी में चल रही  पति-पत्नी की बातचीत धीर-गंभीर और उत्तेजना से रहित है.

मॉडर्न एक्जीक्यूटिव ड्रेस में ऑफिस जाने को तैयार पत्नी संवेदनशील है. उसने अनकहे संदेश को पढ़ लिया है. मंथन होता है. ऑफिस जाते समय, रात को बिस्तर पर करवट बदलते हुए. फिर समाधान स्वाभाविक रूप से कब होता है, पता ही नहीं चलता. सामने एपल का रुपहला लैपटॉप रखा है. आधुनिक टेक्नोलॉजी हाज़िर है उसे मदद करने के लिए. टेक्नोलॉजी प्रस्तुत है परंपरा को समझने में सहयोग करने के लिए. कदम दर कदम. हम सब यहाँ उपभोक्ता नहीं, सांस्कृतिक जीव बनने की प्रक्रिया में लगे इंसान में तब्दील हो जाते हैं.

बिना शोर-शराबे के पत्नी चुपचाप प्रिंटआउट निकालती है ताकि छठ के विधि-विधान को अच्छी तरह अपना सके. अगली सुबह पूजा की थाली है, दीप है और सुहाग के चिह्नों से सजा धजा कोमलांगी का हाथ है दीप की लौ को जलाता हुआ. वह परंपरा की लौ है. मंगलसूत्र झूल रहा है. नाक से ऊपर माँग तक जाता सिंदूर है और सौम्य सी मुस्कान है. गीत की पंक्ति है - "करिहा छमा (क्षमा) छठी मैया भूल चूक गलती हमार". पहली बार इतनी देर से जो छठ किया जा रहा है !

"घर की परंपरा खतम न होई" का आश्वासन पत्नी द्वारा लड़खड़ाती भोजपुरी में दिया जाता है. खड़ी बोली से भोजपुरी की ओर यह आना रस में डुबकी लगाना है. उसकी धज पूरी तरह बदल गई है. परंपरा को ले चलने के दायित्व ने उसे सीधे पल्ले की साड़ी, बिंदी, चूड़ी, झुमका, मंगटीका से सजा दिया है. ज़ाहिराना तौर पर परंपरा में स्वतः ढलती जा रही इस औरत के लिए यह समाज प्रतिष्ठा और प्रशंसा से भर उठता है. पति का स्नेह और सहयोग उसका सहज प्राप्य है अब. खरना की तैयारी में लौकी काटता पति कितना स्वाभाविक नज़र आता है. स्त्री-पुरुष के काम की बराबरी भी हो गई !

इसके तुरत बाद "गोदी के बलकवा के दिह छठी मैया ममता दुलार" गाती हुईं शारदा सिन्हा के साथ दर्शक और श्रोता सब भाव विभोर हो जाते हैं. इसी में PAYTM से कुछ खरीद-फरोख्त करने का संकेत आहिस्ते से आता है. स्मार्ट फोन और उसकी टेक्नोलॉजी एक बार फिर मौन सहयोगी की भूमिका में है.

बड़े शहर का बड़ा सा अपार्टमेंट है.उसकी छत ने परंपरा को जगह दी है और हमें ईंख जोड़कर उस पर पीली धोती लपेटता पुरुष दिखता है. पत्नी द्वारा की जा रही पूजा का सहयोगी बना वह खुशी खुशी दौरा उठा रहा है. उसमें चमचमाते फल भरे हुए हैं. ऊपर में सूप है. सिंदूर एक बार फिर आता है पर्दे पर. फोकस है पीपा सिंदूर की डिबिया और बड़ी नज़ाकत और कायदे से सिंदूर लगाती नायिका की अनामिका (कनिष्ठा उँगली के बगलवाली) उँगली पर. पिछले शॉट में रोटी पर सिंदूर लगाते हुए दिखाया गया था.

छठ देखने मित्र गण उपस्थित हैं. खासकर विदेशी महिला मित्र. वे अभिभूत हैं. उनकी आँखों में श्रद्धा है-भारतीय परंपरा और उसका निर्वाह करनेवाली इस नारी के लिए. सास-ससुर भी बुला लिए गए हैं क्योंकि उनके आशीर्वाद के बिना यह पूरा नहीं होता. उनकी बढ़ती उम्र और गठिया (अर्थराइटिस) का ख़याल करते हुए छत पर दो कुर्सियाँ रख दी गई हैं. बाकी सब श्रद्धालु नीचे बैठे हैं. रात की आतिशबाजी देखते पति-पत्नी रोमांटिक से अधिक आस्था में पगे दिख रहे हैं. अंत में अर्घ्य देती महिला है, पति कांसे के लोटे से जल ढाल रहा है, सूप के पीछे भोर का सूरज उग रहा है.

सुबह डाइनिंग टेबल पर बैठ कर ब्रेड-मक्खन खानेवाला जोड़ा उगते सूरज के सामने खड़ा है बदले हुए रूप में. आधुनिकता परंपरा का वाहन बनती है और पति-पत्नी की छायाकृतियाँ पवित्रता का संचार करती हैं. पीछे से गीत की ये पंक्तियाँ दुहराई जाती हैं - "करिहा छमा (क्षमा) छठी मैया भूल चूक गलती हमार... भूल चूक गलती हमार".

- http://thewirehindi.com/22420/chhath-festival-culture/

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