लोगों ही का ख़ूँ बह जाता है, होता नहीं कुछ सुल्तानों को
तूफ़ां भी नहीं ज़हमत देते उनके संगीं ऐवानों को
हर रोज़ क़यामत ढाते हैं तेरे बेबस इनसानों पर
ऐ ख़ालिक़े-इनसाँ, तू समझा अपने ख़ूनी इनसानों को
दीवारों में सहमे बैठे हैं, क्या ख़ूब मिली है आज़ादी
अपनों ने बहाया ख़ूँ इतना, हम भूल गए बेगानों को
इक-इक पल हम पर भारी है, दहशत तक़दीर हमारी है
घर में भी नहीं महफ़ूज़ कोई, बाहर भी है ख़तरा जानों को
ग़म अपना भुलाएँ जाके कहाँ, हम हैं और शहरे-आहो-फ़ुग़ाँ
हैं शाम से पहले लोग रवाँ अपने-अपने ग़मख़ानों को
निकलें कि न निकलें इनकी रज़ा, बंदूक़ है इनके हाथों में
सादा थे बुज़ुर्ग अपने 'जालिब', घर सौंप गए दरबानों को
संगीं ऐवानों को = पथरीले महलों को
ख़ालिक़े-इनसाँ = इनसान को बनानेवाला
शहरे-आहो-फ़ुग़ाँ = रुदन का नगर
रवाँ = गतिमान
शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010
तूफ़ां भी नहीं ज़हमत देते उनके संगीं ऐवानों को
हर रोज़ क़यामत ढाते हैं तेरे बेबस इनसानों पर
ऐ ख़ालिक़े-इनसाँ, तू समझा अपने ख़ूनी इनसानों को
दीवारों में सहमे बैठे हैं, क्या ख़ूब मिली है आज़ादी
अपनों ने बहाया ख़ूँ इतना, हम भूल गए बेगानों को
इक-इक पल हम पर भारी है, दहशत तक़दीर हमारी है
घर में भी नहीं महफ़ूज़ कोई, बाहर भी है ख़तरा जानों को
ग़म अपना भुलाएँ जाके कहाँ, हम हैं और शहरे-आहो-फ़ुग़ाँ
हैं शाम से पहले लोग रवाँ अपने-अपने ग़मख़ानों को
निकलें कि न निकलें इनकी रज़ा, बंदूक़ है इनके हाथों में
सादा थे बुज़ुर्ग अपने 'जालिब', घर सौंप गए दरबानों को
संगीं ऐवानों को = पथरीले महलों को
ख़ालिक़े-इनसाँ = इनसान को बनानेवाला
शहरे-आहो-फ़ुग़ाँ = रुदन का नगर
रवाँ = गतिमान
शायर - हबीब 'जालिब'
संकलन - प्रतिनिधि शायरी : हबीब 'जालिब'संपादक - नरेश 'नदीम'
प्रकाशक - समझदार पेपरबैक्स, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2010
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें