2018 का दो महीना बीत गया.
दिल्ली का हमारा प्रवास 2000 से शुरू हुआ था. इस तरह यहाँ 18 साल पूरे हो गए. अब
चाहूँ भी तो अजनबीपन की शिकायत नहीं कर सकती हूँ. दिल्ली उतरने पर लगने लगा है कि अपनी
जगह आ गई हूँ. इसका यह मतलब कतई नहीं है कि पटना छूट गया है. पटना के साथ साथ दिल्ली
से लगाव हो गया है. लेकिन सोच रही हूँ कि यह लगाव क्या है ? क्या आत्मीयता से इसका
रिश्ता है ? मगर ऐसा संभव है कि
जो आत्मीय न हो उससे भी लगाव महसूस किया जाए और कोई आत्मीय भले कहलाए, पर उससे लगाव का रिश्ता
न हो. दोनों पर्यायवाची भाव नहीं हैं. पूरक भी नहीं, विरोधी भी नहीं. संभवतः लगाव और आत्मीयता दोनों समानांतर चल
सकते हैं और कहीं चलकर एकमेक हो जा सकते हैं.
आत्मीय संबंध, आत्मीय लोग, आत्मीयता किसे कहते
हैं ? इसको लेकर मैं संशय
में हूँ. सोच रही हूँ कि इसका पैमाना क्या है ? न साथ गुज़ारा गया समय, न परिभाषित रिश्ता, न मिलने-जुलने की अवधि, न भौगोलिक निकटता, न वैचारिक संगति, न भावनात्मक सहारा देनेवाला कंधा और न सुख-दुख में भागीदारी.
ऐसा सोचने का कारण यह है कि अपने कईआत्मीय रिश्तों को मैंने इनसे परे पाया है. दिलचस्प
यह है कि आत्मीयता का पैमाना भले ये सब न हों, मगर इनकी मौजूदगी से आत्मीयता प्रगाढ़ होती है.
और अभी याद आ रहे हैं
नीलाभ. नीलाभ से परिचय पटना के दिनों का है, जब वे नवभारत टाइम्स में थे. छात्र आन्दोलन, प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा आदि की सक्रियता
ने पत्रकार समूह से हमलोगों को ख़ासा परिचित करा दिया था. नीलाभ से दोस्ती दिल्ली में
हुई. उनसे और कविता दोनों से. दोस्ती भी अधिक अपूर्व से थी, लेकिन कब वे इतने आत्मीय
बन गए पता नहीं चला. दिल्ली में जो कुछ हासिल किया उसमें नीलाभ की आत्मीयता भी है.
हम टिक सके यहाँ उसमें उनका भी योगदान है.
दिल्ली के शुरुआती दिनों
में हमलोग दो महीने अमर कॉलोनी में थे. एक चक्करदार और फिर एकदम खड़ी सीढ़ियोंवाले घर
में. जल्दी ही हम वहाँ से भाग खड़े हुए थे. बेटी छोटी थी और दो महीने में अड़ोसी-पड़ोसी
की सूरत देखने तक को मैं तरस गई थी. हमारा अगला ठिकाना बना शाहपुर जाट. उस मोहल्ले
में ही बाद में नीलाभ भी आ गए थे. किराए पर मकान दिलानेवाले एजेंट ने सहायता की और
हम पड़ोसी हो गए. अपूर्व को यह जो अच्छा लगा तो उसके कारण अलग थे, मगर मेरे लिए दिल्ली
के एक मोहल्ले में पटना के पूर्व परिचित व्यक्ति - नीलाभ के बहाने पटना की मौजूदगी
थी वह.
2005 की फरवरी ही थी वह.
रात के करीब 3 बजे होंगे जब मुझे
फोन पर अपने सबसे छोटे चाचा से खबर मिली कि हमने कनु को खो दिया है. कनु मेरे चाचा
की छोटी बेटी. 21 साल की. महज़ दो महीने
पहले पता चला था कि उसे कैंसर है. खबर ने सुन्न कर दिया था. फिर होश आया कि बाकी भाई-बहनों
को बताने का जिम्मा चाचा ने दिया है. उस वक्त हमारे पास मोबाइल न था. लैंडलाइन था और
हमारी लापरवाही से फोन का बिल समय पर चुकता न किए जाने के कारण वह 'वन वे' हो गया था. फोन आ सकता
था, जा नहीं सकता था. अब
क्या करें ? कनु के बारे में घर
के बाकी लोगों को खबर करनी थी. ढाई महीने पहले ही शाहपुर जाट में हमने फिर मकान बदला
था और नए मकान मालिक से उतनी नज़दीकी कायम नहीं हुई थी कि आधी रात में उनको उठाकर उनका
फोन इस्तेमाल करें. उससे भी बड़ी बात यह थी कि अगले दिन उनके इकलौते बेटे की शादी थी
और शादी के घर के फोन से मृत्यु का समाचार देने के लिए कहना भारी महसूस हो रहा था.
लगा कि अशुभ मानकर उन्होंने मना कर दिया तो क्या होगा ! तब याद आए नीलाभ.
अपूर्व ने कहा कि नीलाभ
से मदद मिलेगी. उनका घर 200-250 मीटर की दूरी पर था.मुझे संकोच हुआ कि वे देर से दफ्तर से आते
हैं और पढ़ने-लिखने के बाद सोते भी देर से हैं तो उनकी नींद कैसे ख़राब की जाए. यह भी
हिचकिचाहट थी कि नीलाभ से उतनी निकटता नहीं है तो किस हक से उनको तकलीफ दी जाए. उस
समय अपूर्व ने कहा कि तुम नीलाभ को नहीं जानती हो, वे अलग किस्म के इंसान हैं. इसका विस्तार मुझे पता नहीं था तब
तक.
बिना झिझके अपूर्व ने
करीब साढ़े तीन बजे भोर में नीलाभ का दरवाज़ा खटखटाया. हमने सोचा था कि उनके घर से फोन
करके रिश्तेदारों को सूचना देकर अपूर्व लौट आएँगे. मसला जानकार नीलाभ ने अपना मोबाइल
ही अपूर्व को दे दिया ताकि आगे भी संपर्क करने में हमें सुविधा हो. यह वह समय था जब
मोबाइल पर फोन करना बहुत सस्ता न था. नीलाभ के मोबाइल के साथ जब अपूर्व लौटे तो मुझे
लगा कि सहृदयता बची हुई है (उदारता, सहायता - जैसे भारी भरकम शब्द नहीं हैं इसके लिए). यह छोटी सी
घटना मेरे लिए बहुत गहरी थी.
बाद में हमदोनों ने
शाहपुर जाट में ही दुबारा मकान बदला और फिर एकदम अगल-बगल आ गए. हमारे तीनमंज़िला-चरमंज़िला
मकानों के मकान मालिक भाई थे और उनके मकानों की निकटता ने हमारी अड्डेबाज़ी को हवा दी.
नीलाभ बिहार की मिट्टी में इतना रचे-बसे थे कि पटने की ज़ोरदार सुगंध मुझे अगल-बगल से
आने लगी. उसमें कविता राजस्थानी छौंक लगाती रहती थीं.
चूँकि ज़मीन के इंच-इंच
का सदुपयोग करने में जाट लोग भी माहिर हैं, हमारे नए मकान की एक दीवार थी. मैं अपने टेरेस से और नीलाभ-कविता
अपनी बालकनी से खाने के डोंगों, चाय की केतली वगैरह का आदान-प्रदान कर लेते थे. मेहमानों की
अदला-बदली में भी हममें से किसी को कोई संकोच न था. वहीं पी.साईनाथ, अरुणा राय जैसे नामचीन
लोगों से लेकर ज़मीनी कार्यकर्ता तक के साथ खाने की बारीकियों और विविधताओं पर गपशप
करते मैंने नीलाभ को देखा था.
पटना में जैसे साहित्य, पत्रकारिता और आंदोलन
के मुद्दों और लोगों को मैंने घुलते-मिलते देखा था वह मुझे नीलाभ और कविता के घर में
वापस दिखा. मेरा जीवन में यकीन मज़बूत हुआ. दिल्ली से जो विराग सा था वह धीरे-धीरे घुलने
लगा. उनके घर को देखकर मुझे लगा कि वाकई किसी भी तरह की boundries का धुँधलाना नकारात्मक
नहीं है. व्यक्तिगत और राजनीतिक के बीच के दोतरफा रिश्ते की तरह. ज्ञान हो या अध्ययन, काम हो या निजी जीवन
उनके बीच कठोर सीमारेखा हो नहीं सकती. इंसान खरा वही है जो व्यक्तित्व की सम-विषम धाराओं
को अपने और दूसरों के भीतर एक साथ रहने दे और सुकून के साथ उसे स्वीकार करे. तभी तो
नीलाभ की मुस्कुराहट की सौम्यता, चाल की मंथरता और मस्तिष्क की तीक्ष्णता एक साथ मौजूद थी.
मुझको बल देनेवाली बात
एक और थी. मेरे घर को लेकर अक्सर जो टिप्पणी की जाती है (और यह भी सही है कि कई बार
मेरी खुद उससे सहमति होती है) कि हमारे यहाँ 'निजी' बहुत कुछ नहीं होता, सबको सबकुछ पता होता है - वह बात नीलाभ-कविता के घर में अतिरेक
के साथ मौजूद थी. मुझे अच्छा लगा कि chaos बहुतों की ज़िन्दगी का हिस्सा है और उसको लेकर ज़रूरत से ज़्यादा
तनावग्रस्त होने की ज़रूरत नहीं है. दिन भर धरना-जुलूस या कोर्ट की उबाऊ प्रक्रियाओं
पसीना बहाने के बाद या पत्रिका के दफ्तर में हिन्दी का हिज्जे सुधारने की खिचखिच के
बाद कैसे रच-रचकर खाना बनाया जा सकता है और कैसे उसका जातीय-क्षेत्रीय विश्लेषण करने
के बाद चटखारे लेकर समूह में उसका भोग किया जा सकता है - यह नीलाभ-कविता के घर से कोई
सीखे !
नीलाभ-कविता कहूँ या
कविता-नीलाभ - कोई फर्क नहीं पड़ता है. इस युग्म में गजब की ऊर्जा है (थी...कैसे लिखूँ
!) धैर्य और लगातार 10000 वोल्ट की रोशनी का कमाल का संयोग है यह. खीझ का नामोनिशान नहीं.
नीलाभ की आँख चुँधियाती भी नहीं थी क्योंकि उसमें अथाह प्यार था. मैंने ऐसा रोमांस
नहीं देखा. चारों तरफ के शोरोगुल के बीच नीलाभ जिस मोहब्बत और इत्मीनान से कविता को
निहारते थे वह रश्क करने लायक है. मुझे अभी अपनी किशोरावस्था में पढ़ा हुआ एदिता मोरिस
का 'हिरोशिमा के फूल और
वियतनाम को प्यार' याद आ रहा है. युद्ध की पृष्ठभूमि में दान और शिंजो की उत्कट
प्रेम कहानी ने उस वक्त बहुत हैरान किया था मुझे, मगर वह असंभव नहीं था, यह दावे से कह सकती हूँ.
इस जोड़े ने पहली बार
मुझे यह बतलाया कि साहचर्य का असल मतलब क्या है और शादी नामक संस्था का ठप्पा कितना
बेमानी है. दिल से मैंने ऐसे रिश्तों को सम्मान देना सीखा. कह सकती हूँ कि दिल्ली आकर
पढ़ाई-लिखाई, आंदोलनों में भागीदारी
से अधिक लोगों की असली ज़िन्दगी को देखकर मैंने सीखा. मेरी कई धारणाएँ टूटीं और वैकल्पिक
जीवन की विविधताओं को, यौनिकता के रंगारंग आयामों को मैंने खुले मन से स्वीकार किया.
साहचर्य नियंत्रण की भाषा नहीं बोलता है, बहस और विपरीत ख़याल की गुंजाइश रहने देता है, इसे गहराई से मैंने
महसूस किया.
कम लोग हैं जो इतना
ज़िंदगी से लगाव रखते हैं. नीलाभ के लिए ज़िंदगी का मतलब था - काम, पत्रकारिता, भाषा का कार्य-व्यापार, कविता श्रीवास्तव, खाना-पीना, साहित्य, राजनीति, अड्डेबाजी सबकुछ ! वे
इतने चाव से सबकुछ करते थे कि अचरज होता था. इतना चाव कहाँ से आया ? जब उनका आउटलुक से विदाई
लेते हुए लिखा गया संपादकीय मैंने पढ़ा तो उनकी जड़ों को महसूस किया. कविता-कहानी, इतिहास-पुराण, विश्व साहित्य-भारतीय
साहित्य, कला-विज्ञान सबमें उनकी
व्याप्ति दिखी. काव्यात्मक भाषा, जीवन के हर अंग से लगाव और निस्पृहता का विचित्र मेल है उसमें.
आज के समय में बड़बोलेपन
के बिना हिन्दी में लिखना और उसको सम्मान देना दुर्लभ है. इसलिए भी नीलाभ मुझे अच्छे
लगते हैं. उनकी सहजता भूलेगी नहीं, उनका गप्पी मिजाज़ याद रहेगा. उनकी ठहाकेदार हँसी ज्वार-भाटा
की तरह थी जो अंत आते आते बेआवाज़ हो जाती थी. मुद्रा ठहाके की बनी रहती थी, मगर स्वर विलीन होता
जाता था. अभी उनका भौतिक स्वर हमारे बीच नहीं है, मगर उनकी मुद्रा जीवंत है. मार्क्वेज़ की कथा में कहीं उसका सिरा
मिले शायद !
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