भूगोल की प्रोफ़ेसर तमार मेयर की किताब Gender Ironies of Nationalism: Sexism the Nation (Routledge 2000) बड़ी महत्त्वपूर्ण है. इसका एक लेख अनुवाद करके हमने निरंतर संस्था के जेंडर और शिक्षा रीडर (भाग 2) में छापा था. उसकी कुछ पंक्तियाँ बार-बार मेरे सामने आती हैं और 'राज़ी' को देखते समय तो लगा कि ऐसे 'राष्ट्रीय दास्तान' गढ़नेवाले टेक्स्ट को समझने के लिए तमार मेयर सबसे अधिक मददगार हैं. वह भी आज के समय में जब पूरी दुनिया राष्ट्रवाद के ज्वर के ताप को झेल रही है.
तमार मेयर 'भावनात्मक
गोंद' के
रूप में राष्ट्रवादी विचारधारा को देखती हैं. यह गोंद चिपचिपा भले हो लोगों को
जोड़ता है और साझी विरासत, साझा इतिहास, साझा दुख, साझी
उपलब्धि की बात करने में सहायक होता है. जो उसमें शामिल न हो उसे साम दाम दंड भेद
से शामिल करवाया जाता है. लोगों के 'एक' होने के अहसास को प्यार-दुलार से, गाना गाकर
ज़िन्दा रखा जाता है. आज से नहीं, बहुत पहले से. 'राज़ी' फिल्म का
गाना "ऐ वतन, वतन
मेरे आबाद रहे तू" को याद कीजिए. वैसे याद यह रखना है कि देश, 'वतन', 'राज्य', 'राष्ट्र', 'राष्ट्र-राज्य' सारे शब्द
भले समानार्थी प्रतीत हों, मगर उनकी अवधारणाओं की अपनी परतें हैं जिनमें
ख़ासा अंतर है.
उस 'भावनात्मक
गोंद' के
इस्तेमाल में साहित्य और मीडिया की भूमिका से किसी को इन्कार नहीं है. यदि फिल्म
के माध्यम को लें तो वह ऐसा सशक्त माध्यम है जो पटकथा के सहारे रोचक तरीके से
भावनाओं को उभारता है और उनको दूर-दूर तक पहुँचाता है. उसकी ताकत का अंदाज़ा सबको
है. इसलिए राष्ट्रवाद का फ़िल्मी मुहावरा मायने रखता है. 'ग़दर', 'बॉर्डर', 'रंग दे
बसंती', 'हैदर' जैसी
फिल्मों को समझना पड़ेगा कि वे कर क्या रही हैं. पहचान के मुद्दों को गूँथकर बनाई
गई राष्ट्रवादी माला दिनोदिन हिंसा को स्वीकार्य बनाती जा रही है. 'राष्ट्र' के नाम पर
की जानेवाली हिंसा को महिमामंडित करने का काम इसी प्रॉजेक्ट से जुड़ा है. इस कड़ी
में इधर लगातार कई फिल्में आई हैं. 'राज़ी' के 'बाद मुल्क' आई है जिसे देखना बाकी है
मुझे. पता नहीं वह फिल्म कहाँ ले जाती है दर्शकों को.
इसे गले से उतारने में बड़ी
दिक्कत होती है कि दरअसल राष्ट्र 'कल्पित समुदाय' (बेनेडिक्ट एंडरसन) है. राष्ट्र को नैतिक चेतना
बनाकर पेश किया जाता है. इसलिए 'मदर इंडिया' जैसी फिल्म हर दृष्टि से महान
लगती है. फिल्म के व्याकरण और उसके विकास के अलग अलग चरणों के संदर्भ में उसकी
उपलब्धि की बात छोड़ दें तो जेंडर और राष्ट्र की अवधारणा की कसौटी पर 'मदर इंडिया' भी
समस्याग्रस्त लगेगी. जो लोकप्रिय है उसकी दिशा पर विचार करना नहीं छोड़ना चाहिए.
लोकप्रियता भी एक कसौटी है, परंतु
उसके आधार की पड़ताल करनी ही पड़ती है. हनी सिंह के या भोजपुरी गानों या 'चिपका ले
सैंया फेविकोल से' जैसों
का ठहरकर विश्लेषण करना चाहिए. सतही तौर पर यौनिकता विमर्श, आंचलिकता, नए भाषाई
प्रयोग के नाम पर इनकी वाहवाही देखकर लगता है कि हमारी भाषा और संवेदना कितनी
दरिद्र हो गई है. मुझे हैरानी नहीं हुई जब समझदार लोग भी 'राज़ी' को 'मदर इंडिया' के नए
संस्करण के रूप में देख रहे हैं. उसको ग्रहण करने में वतनपरस्त कश्मीरी मुसलमान
लड़की का construct मदद
कर रहा है. फ़ौजी खानदान और उसके अवदान ने फिल्म को उदात्तता प्रदान की है.
वतनपरस्ती की नई मिसाल कायम
करने के लिए ;राज़ी' के सहमत जैसे पात्र काम आते हैं. यों अच्छी और
वफ़ादार लड़की की कहानी भी कोई नई नहीं है. हाँ, ध्यान दीजिएगा कि नाम का
चुनाव सोचा-समझा है. राज़ी और सहमत समानार्थक हैं और राष्ट्रवादी परियोजना में अपनी
मर्जी से शामिल होने को रेखांकित करता है यह नाम. वास्तव में यही इसकी सफलता है !
सहमत का समझदार पाकिस्तानी पति जो उसे प्यार करता है वह राज़ फ़ाश होने के बाद भी उसकी
वतनपरस्ती और अपनी वतनपरस्ती को तराजू के पलड़ों पर बराबर रखता है. सोचिए भला ! यह
वतनपरस्ती कितनी वज़नदार है ! दुश्मन देश का बंदा चोट खाकर भी सहमत की महानता से
अभिभूत है तो ऐसे में दर्शक के तौर पर हमारा क्या कर्तव्य है ?
यह भी न भूलें कि 'राज़ी' फिल्म की
नायिका सहमत खान भारतीय नौसेना के लेफ्टिनेंट कमांडर
हरिंदर सिक्का के 2008 में छपे 'कॉलिंग सहमत' उपन्यास की नायिका है. लेकिन
वह.काल्पनिक पात्र नहीं है. हरिंदर सिक्का का उपन्यास
सच्ची घटनाओं पर आधारित होने का दावा करता है. उस पर बनी इस फिल्म ने गारे में
कितना तोला सच लिया और कितना मसाला मिलाया, इसका मसला नहीं है. मसला यह है कि गारे से
इमारत कौन सी खड़ी की जा रही है.
'राज़ी' में सहमत वह लड़की है जो हत्या करने के बाद
विचलित होती है, आखिर
हिंदुस्तानी दिल है उसके पास. उसके पहले राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाते समय उसमें 'भारतीय
स्त्रियोचित करुणा' की
झलक मिलती है, लेकिन
उसे दुविधा नहीं है. पहली बार हिंसा के तरीके और मकसद पर वह सवाल उठाती है तब जब
उसका पति इस खेल में मारा जाता है. निर्देशकीय सावधानी यह बरती गई है कि सहमत सीधे
अपने पति के परखचे उड़ाने के पाप का भागी नहीं बनती है. इतना ही नहीं, वह उस
योजना की हिस्सेदार भी नहीं है. यह इंतहा है किसी भी तरह की भक्ति की परीक्षा की !
यही वह क्षण है जब सहमत विरक्त होकर हिंदुस्तान वापस आ जाती है. एक तरह से उसका
मिशन भी पूरा हो चुका है. उसकी जासूसी से पाकिस्तानी सेना की विनाशकारी हरकतों का
अंदाजा हिंदुस्तानी बुद्धिमान जांबाजों द्वारा लगा लिया गया है और पाकिस्तान के
खेमे में घबराहट फ़ैल गई है. इसलिए सहमत पर भावुक और कमज़ोर होने, कर्तव्य
निष्ठा में कमी का आरोप नहीं लगाया जा सकता है. न आम दर्शकों द्वारा न ख़ास
समीक्षकों द्वारा ! यहाँ पर फिल्म की सफलता देखी जा सकती है.
फिल्म की निर्देशिका मेघना
गुलज़ार का पूरा ध्यान नायिका की अपने राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता को स्थापित
करने पर है. और उसे यह मौका देकर राष्ट्र-राज्य की उदारता को वे सामने लाती हैं जो
उनकी भाषा में बाँहें फैलाकर कश्मीरी मुसलमान को अपने में समेट रहा है ! Inclusion की
ऐसी रणनीति सरलीकृत और सतही समझ पर टिकी है. पाकिस्तान का नज़ारा तो देखने लायक है.
वहाँ दो जगह पर हलके से CRUSH INDIA लिखा हुआ दिखाकर फिल्म आगे बढ़ जाती है, पर साफ़
समझ में आता है कि यह हिंसा को तार्किक और जायज़ ठहरने की कोशिश है. वास्तव में
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के उलझे हुए रिश्ते की कोई जटिलता सामने नहीं आती है.
मैं सोच रही थी कि 'राज़ी' फिल्म में
केवल यह तब्दीली की जाए कि नायिका सहमत हिंदुस्तानी नहीं, पाकिस्तानी
जासूस हो तो क्या प्रतिक्रिया होगी. सरहद की इस पार की सहमत हिंसक कृत्य में
भागीदारी के बावजूद जहाँ पवित्र है वहीं फ़र्ज़ कीजिए यदि वह सरहद के उस पार की होती
तो पूरी संभावना है कि उतनी ही अपवित्र करार दी जाती. शायद यह कहा जाएगा कि
पाकिस्तानी लड़की तक इतनी खतरनाक और जुनूनी होती है तब भला पाकिस्तानी मर्द का क्या
कहा जाए !
फिलहाल इतना ही. फिल्म की
नायिका के रूप में आलिया भट्ट के अभिनय या बाकियों के अभिनय, सिनेमेटोग्राफ़ी, निर्देशन, गीत-संगीत, संपादन
वगैरह पर टिप्पणी करने का न मेरा दिल है न उसकी ज़रूरत है और न ही मुझमें उसकी बहुत
सलाहियत है. मैं परेशान हूँ फिल्म से ज़्यादा उसको पसंद करनेवालों की सूची देखकर.
मानती हूँ कि मतभेद की गुंजाइश हर जगह है और रहनी चाहिए. यही लोकतांत्रिक है. फिर
भी भावुकता का पर्दा हमारी नज़र को धुँधला रहा है, इसे लेकर चिंता है.
फिल्म में विभा सराफ और हर्षदीप
कौर की आवाज़ में 'दिलबरो
दिलबरो' जैसे
गीत और कश्मीरी धुन के पुटवाले संगीत हमारे कान को ही नहीं, मन को भी
अच्छे लगते हैं. क्यों
? मौका है बेटी की शादी और विदाई का. हमारे लगभग हर समाज में चलन यही है कि बेटी
पराये घर जाती है. एक यही मौका है जब उसका दहलीज़ पार करना सबको अच्छा लगता है और
सबकी इज्ज़त बढ़ाता है. और जब इस गीत में ये पंक्तियाँ आती हैं “बाबा मैं तेरी
मलिका/ टुकड़ा हूँ तेरे दिल का / एक बार फिर से दहलीज़ पार करा दे” तब हमें पता है
कि यहाँ ‘दहलीज़’ शब्द केवल घर की देहरी के लिए नहीं है, बल्कि इसका विस्तार हो गया
है और वह देश की दहलीज़ को बता रहा है. यह दहलीज़ और अधिक ऊँची है ! इस अहसास के साथ
ही बेटी के प्रति प्यार के आवेग में कुर्बानी का आवेग मिल जाता है. उसको पार करने
में ‘बाबा’ का सहयोग मिल रहा है जो उसकी पवित्रता को बढ़ा रहा है. गीत के प्रवाह के
साथ हम सब दर्शक और श्रोता सहमत की यात्रा को धर्मयात्रा मानकर उसमें मानसिक रूप
में शामिल हो जाते हैं.
वहाँ से मुड़कर वापस नहीं देखना है – “मुड़कर न देखो दिलबरो”.
गीत की टेक बार-बार राष्ट्रीय कर्तव्य की याद दिलाता है. गीतकार गुलज़ार का तर्क
साफ़ है – “फसलें जो काटी जाएँ उगती नहीं हैं / बेटियाँ जो ब्याही जाएँ मुड़ती नहीं
हैं”. और आगे का सफ़र लंबा और दर्द भरा है. यह तय ही नहीं है, बल्कि काम्य है. किसी
ने किसी पर थोपा नहीं है. लड़की का स्वर आता है – “ऐसी बिदाई हो तो / लंबी जुदाई हो
तो / दहलीज़ दर्द की भी पार करा दे”. आखिर धर्मयात्रा में जाने का सौभाग्य खुशनसीबों
को ही मिलता है, इसलिए दहलीज़ पार करा देने का इसरार किया जाता है. ‘
गीत के बोल सुनते हुए मैं
संगीत के बारे में सोच रही थी, जिसकी बारीकियाँ एकदम नहीं जानती हूँ. धुन, वाद्य
यंत्रों के चुनाव और गति पर ध्यान गया मेरा. मेरी नज़र में “दिलबरो दिलबरो” की पुरसुकून
और दिलकश धुन राष्ट्रवादी भावुकता को ही लेकर आती है. उसमें “फसल” का उपमान लेना
अकारण नहीं आया है. यह राष्ट्र और जेंडर की अवधारणा के गुत्थमगुत्था होने का परिणाम
है. यह “फसल” – राष्ट्रीय उत्पाद है. गीत के बीच में पिता का स्वर उभरता है – “मेरे दिलबरो / बरफें गलेंगी
फिर से / मेरे दिलबरो / फसलें पकेंगी फिर से / तेरे पाँव के तले / मेरी दुआएँ चले”.
पिता बेटी की कुर्बानी दे रहे हैं, लेकिन देश के लिए दी जा रही वह कुर्बानी महान है.
माँ खामोशी से इसमें शामिल है. कुर्बानियों का यह सिलसिला रुकेगा भी नहीं – “फसलें
पकेंगी फिर से” जबतक राष्ट्र को इसकी ज़रूरत रहेगी.
https://www.youtube.com/watch?v=WqUXVw0WlXc
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