आज की शाम बड़ी बुरी
थी. खबर मिली कि अली, हमारा इलेक्ट्रिशियन,
मेरा मददगार नहीं रहा. उम्र मात्र 33 साल. खुशमिजाज़, काम का पक्का और बात का भी पक्का.
2009 में मैं जब दक्षिणी
दिल्ली के शाहपुर जाट मोहल्ले से दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर के आवास में
आई थी रहने तो खासी दिक्कत हुई थी. कोई कायदे का काम करने को नहीं मिलता था. न घरेलू
काम के लिए न किसी और काम के लिए. मैं लगातार दक्षिणी दिल्ली और उत्तरी दिल्ली की तुलना
करती रहती थी. (उसके पहले पटना और दिल्ली की तुलना किया करती थी) खीझती रहती थी कि
उत्तरी दिल्लीवाले बेकार हैं. ऐसे में दो लोग ऐसे मिले जो भरोसे के निकले. काम में
भी अच्छे थे और बात-व्यवहार में भी. एक था अली और दूसरा बॉबी जो कपड़े इस्त्री करने
के साथ न केवल मेरे घर की, बल्कि पूरी कॉलोनी
की चौकसी करता है.
अली था. अब है नहीं.
केदारनाथ सिंह जैसी भाषा तो नहीं है मेरे पास, मगर कहना चाहती हूँ कि "जाना हिन्दी की सबसे खौफ़नाक क्रिया
है" तो "है" से "था" में बदलने की प्रक्रिया और भी मारक है.
लगभग 10 साल से अली को देखती आ रही
हूँ. चुस्त, हर तरह का काम जाननेवाला,
जुगाड़ लगानेवाला. फोन करो तो फट से आ जाए. भले ही
काम 50 रुपए का ही क्यों न हो. मोटरसाइकिल
चलाता था. खुश रहता था. बिजली के काम के अलावा काँटी ठोंकने से लेकर वाशबेसिन का पाइप
बदलने, नल की टोंटी ठीक करने,
रसोई की नाली में जाली लगाने तक का सारा छोटा-बड़ा
काम करता था.
मेरे घर में तो लगभग
हर हफ्ते, नहीं तो कम से कम हर दस दिन
पर अली की गुहार लगती थी. मैं हमेशा कहती थी कि "अली अली" जपती हूँ. उसके
बिना मानो घर अटक जाता था. जब भी आता दुकेले. अकेले कभी नहीं. गफ्फार के साथ. वह उसका
रिश्ते में ममेरा या फुफेरा भाई था. शोले फिल्म के जय और बीरू की तरह उनकी जोड़ी थी.
सुबह-सबेरे, रात-बिरात दोनों साथ
प्रकट होते. गफ्फार अली का असिस्टेंट जैसा था. थोड़ा खामोश सा. अली काम करता होता तो
गफ्फार दौड़कर ज़रूरी सामान ले आता था पास के बाज़ार से. कई बार दो-दो चक्कर लगा आता बाज़ार
का. दोनों इकट्ठे विजय नगर की एक छोटी सी बिजली की दूकान में काम करते थे. कभी कदाल
वहीं खड़े हुए पान-गुटखा चुभलाते हुए दिख भी जाते थे. नज़र पड़े तो ज़रूर टोकता था. वो
न टोके तो मैं टोक कर हालचाल पूछ लेती थी या कोई काम फरमा देती थी.
अली बहुत चाव से काम
करता था. बहुत ट्रेनिंग या पढ़ाई नहीं थी उसकी. मगर काम जानता था. अभ्यास से. तसल्ली
से कभी उसकी पृष्ठभूमि के बारे में पूछा नहीं मैंने. काम करवाते समय घर-वर के बारे
में ज़रूर गपशप होती थी, मगर वह दर्ज नहीं
है मेरे दिमाग में. अब लग रहा है कि शायद यह उपयोगितावादी रिश्ता भर ही था तभी तो अली
के बारे में ठीक ठीक मुझे कुछ नहीं मालूम. आज मन मसोस रहा है. राज पटेल और जेसन मूर
(Jason W. Moore) की किताब History of the World in Seven Cheap
Things: A Guide to Capitalism, Nature, and the Future of the Planet में जो पूँजीवादी जाल और सस्ती चीज़ों में शामिल
सस्ते श्रम की बात है, वह याद आ रहा है.
अली अक्सर मेरे घर बुलाया जाता था क्योंकि वह बहुत महँगा नहीं था. हिसाब को लेकर कभी
उससे चख-चख नहीं हुई.
अभी हाल में ही फोन
करने पर भी जब लगातार अली हाथ नहीं आया तो मैंने Urban Clap से इलेक्ट्रिशियन बुलाया. पहली बार में अच्छा अनुभव हुआ,
मगर अगली बार जो बंदा आया उसने मेरी किसी समस्या
का समाधान नहीं किया और साढ़े चार सौ रुपए लेकर चलता बना. दुबारा मैंने अली को पकड़ने
की कोशिश की. इस बार वह पकड़ में आ गया. अगले दो घंटे में मेरे दो पंखों और दो ट्यूबलाईट
का इलाज उसने किया. एक पंखा बॉल बियरिंग बदलने के लिए ले गया. जाते-जाते रसोई में कप
रखने का स्टैंड टांग गया जो एक तरफ से झूलने लगा था. एक नई पेंटिंग आई थी उसके लिए
उपयुक्त जगह उसने सुझाई और फिर कहा कि घर के सारे लोगों को वो पसंद आए तब दुबारा आकर
वह पेंटिंग लगा जाएगा. मैं एकदम निश्चिन्त हो गई थी अली के आने से. चुकता की गई रकम
के लिहाज़ से भी Urban Clap से अली बेहतर था.
लेकिन अली का सिर्फ सस्ता कारीगर होना उसको याद करने लायक नहीं बनाता. वह अच्छा इंसान था.
मैंने पहली बार दिवाली
में बिजली के छोटे (सिरीज) बल्ब की झालर लगवाई थी. अली से. पहले दिया और मोमबत्ती ही
दिवाली की खरीददारी में होते थे. फिर मसला आया आँगन के चारों ओर की चारदीवारी और छत
की मुंडेर को सजाने का. अली ने कहा कि झालर लगवा लीजिए. मेरी पहुँच से बाहर था मामला.
अपूर्व और मकरंद (भगिना) कर सकते थे, लेकिन उनके आलस्य और दिलचस्पी नहीं दिखाने के कारण अली का सुझाव मैंने मान लिया.
तब तक बेटी छोटी थी तो उस पर भी दिवाली की सजावट का जिम्मा नहीं छोड़ सकती थी. आखिरकार
आँगन के पेड़ से लेकर छत तक को अली और गफ्फार ने जगमगा दिया. अपनी दूकान से वह मेरी
और बेटी की पसंद के झालर ले आया था. मैं खुश हो गई. उसमें दिया और मोमबत्ती के साथ
बल्ब की झालर लगाने का समझौता घुल गया. शायद आँगन में बनी रँगोली ने मेरी उस कसक को
संतुलित करने में भूमिका निभाई.
साल दर साल बीते.
अली आता रहा. घर के सदस्य जैसा. कभी लगता बेटे जैसा है. उसके लिए कपडे, घर के सामान मैं निकालने लगी थी. हाँ, पुराने ही. इतनी उदारता मुझमें नहीं थी कि ख़ासकर
नया उसके लिए कुछ लाती. वह भी माँग लेता. 2015 में जब मॉरिस नगर में ही हमने घर बदला तो आते समय पुरानी आलमारी,
साइकिल वगैरह ले गया. नए घर में सारा बंदोबस्त उसी
ने किया. वह मुझसे दुखी हुआ कि मैंने उससे नया एयरकंडीशनर फिट नहीं करवाया. जबकि वह
हर गर्मी में पुराने एसी की सर्विसिंग कर देता था, लेकिन नए में मैंने उसकी जगह कंपनीवाले को बुला लिया. उसे लगा
कि मैंने उसकी काबलियत पर संदेह किया. मुझे बाद में महसूस हुआ कि मैं नाहक ब्रांड और
कंपनी के चक्कर में पड़ी. यह असंगठित क्षेत्र के श्रम और कौशल को नीचा दिखाना था. मगर
मैंने अपना अफसोस ठीक से उसके सामने नहीं प्रकट किया.
उस साल भी दिवाली
आई, मगर सड़क दुर्घटना में लाडो
(अपूर्व की भतीजी) के चले जाने की वजह से रौशनी को लेकर उछाह नहीं था. अली को लगा कि
मैं उससे काम नहीं करवाना चाहती हूँ. खैर उसने पंखे वगैरह की साफ़-सफाई की. बेटी की
इच्छा के मुताबिक़ उसके कमरे में पीली लड़ी लगा दी. एलईडी बल्ब लगा दिया, पीली रौशनी वाले ट्यूब भी ले आया. अगले साल जब छत
की कक्षा शुरू की तो उसी ने जुगाड़ लगाकर छत के कोने में बत्ती की व्यवस्था की. दिवाली
में छत की झोंपड़ी को बल्ब की झालर से रंगीन कर दिया. हमें जो ज़रूरत होती उसे वह किसी
न किसी तरह पूरा कर देता. मैं फोन करती कि ड्रिलिंग मशीन ले आओ तो पर्दे टाँगने से
लेकर दीवार घड़ी में बैटरी डालने का काम कर देता. ऐसा था वह !
घर बदलने के दौरान
की एक दुर्घटना ने अली के प्रति मेरे रवैये को थोड़ा बदल दिया था. हुआ यह था कि बेटी
का आई-पॉड गायब हो गया था. असावधानी मेरी थी. मूवर्स और पैकर्स के दस मजदूर मेरे घर
पर लगे थे. मैंने उनके ठेकेदार और सरदार से एक बार पूछा, लेकिन वे इतने अच्छे और भरोसे के लगे मुझे कि दुबारा पूछना बेइज्जती
करना होता. मुझे हिम्मत नहीं हुई. उस दिन घर पर अली और गफ्फार कई घंटे काम कर रहे थे.
मेरा संदेह नहीं हुआ, मगर बाद में कुछ और
लोगों ने जिस तरह के संकेत दिए उससे मुझे अली पर शक होने लगा. मैं अपने को टोकती थी
कि यह तो वही बात हुई कि गरीब पर इल्जाम लगाना आसान है. मैंने मुँहामुँही घर में और
कुछेक लोगों को अपने मन के चोर के बारे में भी बताया.
उन्हीं दिनों मैंने
महसूस किया था कि अली शराब पीने लगा है. कभी-कभी दिन में भी वह काम करने आता तो उसके
मुँह से शराब की गंध आती. वह होता होश में और काम भी ठीक करता. बातचीत ज़रूर कम करने
लगा था. काम करते ही रफूचक्कर हो जाता. बैठकर या फरमाईश पर चाय नहीं बनवाता था. मैंने
उसे शराब की लत के बारे में कहा नहीं. मगर धीरे-धीरे उसके आने की अवधि कम होती गई.
फोन करो तो टालने लगा. आज का कल और कल का परसों होने लगा. धीरे धीरे उसका फोन उठाना
भी कम होता गया. थककर और चिढ़कर अपने नए घर में मैंने नया इलेक्ट्रिशियन खोजना शुरू
किया. एक-दो आए-गए. कोई दो महीने आया कोई छः महीने. लेकिन हर बार अली का नाम ज़बान पर
रहता, मन में भी. बीच-बीच में जब
कोई नहीं मिलता तो अली आ भी जाता. गरज रहती मेरी. फिर एकाध बार गफ्फार अकेला आया. मालूम
हुआ कि उनकी जोड़ी टूट गई. अब दोनों अलग अलग काम करने लगे थे. किसी ने किसी की शिकायत
नहीं की. वे दोनों किस तकलीफ से गुज़रे होंगे, मुझे नहीं मालूम, परंतु मुझे भीतर से बहुत बुरा लगा. कोई भी रिश्ता बिगड़े, चोट दूर से देखनेवालों को भी होती है.
पिछले साल की बात
है. लगभग छः महीने बाद मजबूरी में मैंने अली को फोन किया और वह फौरन नमूदार हो गया.
लेकिन यह क्या ? मुझे उसे देखकर धक्का
लगा. वह जवान लड़का 45 साल का और बूढ़ा-सा
लग रहा था. अली मोटा कभी नहीं था, न ही दोहरे बदन का
था. दरम्याने कद-काठी का था, फुर्तीला और एकदम
तंदुरुस्त. मगर बीमार और लगभग आधा रह गया था वो. पूछने पर मालूम हुआ कि डायबटीज़ ने
यह हालत की है. मुझे विश्वास न हुआ. मैंने सीधे पूछा कि शराब पीते हो और किडनी-लीवर
का क्या हाल है. उसने सीधे मान लिया, लेकिन कहा कि अब नहीं पी रहा है. यह सरासर झूठ था. आज गफ्फार ने बताया कि उसका
शराब पीना बदस्तूर जारी था. कम भले ही हुआ हो. मैंने एकबार उससे कहा कि दवा का पुर्जा
दिखाओ, मेरे जेठ डॉक्टर हैं और मैं
कुछ मदद कर सकती हूँ. उसने कहा कि अब सब रास्ते पर है. लीवर में भी सुधार है. कई बार
कहने पर एकबार पुर्जा दिखाया, मगर मेरी समझ में
नहीं आया. मैंने भी गंभीरता नहीं दिखाई. सोचा कि सब ठीक चल रहा है तो ठीक ही है.
उस समय मैंने घर के
काम के लिए किसी नए व्यक्ति को रखा था जिसके लिए एक कमरे की व्यवस्था भी थी. अली से
चर्चा चली तो वह बोलने लगा कि मुझे कोई कमरा दिला दो और मेरी बीवी घर में काम कर लेगी.
उस समय बीमारी, काम की कमी,
बढ़ता किराया, आर्थिक स्थिति, बाज़ार की मंदी, बड़े परिवार की मुश्किल
और बाहरी मुसलमान-विरोधी माहौल पर सब पर उसने बात की. काफी दिनों तक फोन करके काम और
कमरे के बारे में मुझसे दरयाफ्त करता रहा. काश मैं कुछ कर पाती!
फिर वह बात छूट गई.
अली ने मान लिया कि मैं उसकी मददगार नहीं बन सकती. कुछ महीने पहले एक दिन वह अपने 15 साल के बेटे को लेकर आया. जल्दी शादी हो गई थी
उसकी जिस वजह से बड़ा बेटा नौवीं में पहुँच गया था. उसको काम सिखाने में लगा था. मेरी
बेटी को अजीब लगा. बाल श्रम गैर कानूनी है, यह बात दिमाग में घूम रही थी. उसने कहा कि अली भैया के बेटे
को कुछ अलग से बख्शीश ज़रूर देना. फिर दिवाली आई. अली को फोन करती रही मैं और वो टालता
रहा. मैं नाराज़ भी हुई. खैर, दिवाली के एक दिन
पहले अली अपने बेटे के साथ आया. उसको यहाँ पंखे साफ़ करने के काम में लगाकर खुद वह दूसरी
जगह चला गया. काम पूरा करके बच्चा थककर कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गया. हमारे लाख कहने
पर भी उसने कुछ नहीं खाया. कई घंटे बाद अली आया. कुछ बारीक काम मैं अली से करवाना चाहती
थी तो वह काम उसका इंतज़ार कर रहा था. उसे कोफ्त हुई. मगर उसने फ़टाफ़ट काम पूरा किया.
मेहनताना लेकर बेटे के साथ मुस्कुराता हुआ चला गया. उसे बहुत जल्दी थी. बेटे को काम
सिखाने की, कमाने की, दूसरों के घरों को रौशन करने का काम पूरा करने की,
घर लौटने की और ...!
शाम को दरवाजे की
घंटी बजी. वही जिसे अली ने लगाया था. बल्कि इस घर में उसने कम से कम 4-5 घंटी लगाई होगी. तकनीकी गड़बड़ी के कारण बार बार
घंटी जल जाती थी. अभी वाली घंटी लगाते हुए उसने कहा था कि यह पक्का चलेगी. तकरीबन साल
भर से वह चल रही है, लेकिन अली चला गया.
गफ्फार ने आकर बताया कि आगे से काम के लिए मुझे फोन करना. मैंने छूटते ही पूछा कि क्यों
अली को क्या हुआ ! मुझे अंदेसा हुआ कि दोनों का झगड़ा बढ़ गया. लेकिन जो जवाब मिला उसने
मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन खिसका दी. उसने बताया कि शुगर का दौरा पड़ा. यह अजीब था.
मैं पूछती गई. लीवर, किडनी सब खराब हो
गया था. दिमाग का कैंसर भी डॉक्टर ने बता दिया. शायद पाँच साल पहले अली को दौरा सा
पड़ा था. गफ्फार का अंदाजा है कि ब्रेन कैंसर का झटका था वह. उसने कहा कि अली जानता
था कि वह जल्दी जाएगा.
13 नवम्बर को लगभग 9 दिन सरकारी अस्पतालों का चक्कर काटते हुए अली चला गया. प्राइवेट में बीस लाख का बजट बताया था, मगर उसमें भी गारंटी नहीं थी. एक शादी में अली गया था. खूब खा-पीकर वापस घर लौटा हमेशा के लिए जाने को. अस्पताल में बेसुध पड़े अली की तस्वीर दिखाई गफ्फार ने और मैंने अभी उसके नंबर पर जाकर व्हाट्सऐप की DP देखी जिसमें एक दिल के आकार के भीतर उसका शांत-गंभीर चेहरा झाँक रहा है और चमकदार बल्ब से “लव” की जगह एक दिल है और “यू” लिखा हुआ है. ज़रूर बच्चों ने यह चित्र लगाया होगा. मैं अली के हरदम मुस्कुराते हुए चेहरे से उसका मिलान कर रही हूँ. सोच रही हूँ कि एक जवान जहान लड़का क्यों ऐसे चला गया ! अली दूसरों की ज़िंदगी को रौशन करता था, मगर उसके घर-परिवार का, गफ्फार का अँधेरा कौन दूर करेगा ? वह भी अभी के दौर में ? अली जैसे नाम जब लोगों को डराने लगे हैं तब उन्हें कौन बचाएगा ?
एक जवान जहान लड़का क्यों ऐसे चला गया! अली दूसरों की ज़िंदगी को रौशन करता था, मगर उसके घर-परिवार का, गफ्फार का अँधेरा कौन दूर करेगा ? वह भी अभी के दौर में ? अली जैसे नाम जब लोगों को डराने लगे हैं तब उन्हें कौन बचाएगा?
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