दो रोज़ पहले मैंने एक फ़िल्मी कहानी सुनी.प्रेम कहानी.यों
प्रेम कहानी में रोमांच होने के लिए थोड़ा फ़िल्मीपन ज़रूरी है.
बहरहाल, एक
'रौंग नंबर’ लगता है. बैंगलोर से सिलीगुड़ी.
अंतिम संख्या के उलटफेर ने एक प्रेम कहानी का आगाज़ किया. बांग्ला 'टोन' में टूटी फूटी हिन्दी एक बैंगलोर निवासी
बिहारी को भा गई. अब अक्सर बात होने लगी. 'बेसिक' फ़ोन
के एक छोर पर थी सोनाली लोहार और दूसरे छोर पर था संजय गुप्ता.
सोनाली कभी स्कूल नहीं गई. तीन भाई-बहन में सबसे बड़ी बेटी थी.
पिता बानू उर्फ़ शंकर लोहार दिहाड़ी मज़दूर थे और माँ पूर्णिमा घरों में काम करती
थी. शंकर के पिता काम के तलाश में राँची से आकर सपरिवार सिलीगुड़ी में बस गए थे.
जीवन मुश्किल था, मगर
चल रहा था. शंकर के दो भाई आस पास ही रहते थे. बहन भूटान में ब्याही थी. गाड़ी से
माल उतारने-चढ़ाने का काम करते करते कब सोनाली के पिता कैंसर से ग्रस्त हो गए,
पता ही नहीं चला. सबसे छोटी बहन जो कि
सोनाली से 10-11 साल
छोटी है, उसके जन्म के तकरीबन 6
महीने बाद ही वे चल बसे.
8-9 साल की थी सोनाली तो घर के सामने सड़क पार के स्कूल की टीचर के
घर उनकी बेटी को खेलाने का काम करने लगी. तब से काम कर रही है. अभी पहली बार
लॉकडाउन में उसका काम छूटा है.टीचर का घर स्कूल के अहाते में ही था. वे अच्छी थी.
उन्होंने सोनाली को लिखना-पढ़ना सिखाया. भले ही स्कूल में नाम नहीं लिखाया उसका,
मगर उस पढ़ाई को उसने कसकर अपनी मुट्ठी
में पकड़ कर रखा. उसने कहा कि मुझे ज्ञान चाहिए था, डिग्री नहीं. हालाँकि कोई भी औपचारिक
डिग्री न होने का घाटा उसने सहा है. कमाकर उसने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को पाँचवी
तक पढ़ाया.और छोटी बहन तान्या को नौवीं तक. आगे दोनों का न मन लगा पढ़ाई में,
न उसको जारी रखने का फ़ायदा उन्हें नज़र
आया.
टीचर का तबादला अपने घर से दूर हो जाने के कारण सोनाली का काम
छूट गया. वहाँ रहते हुए ही उसने सिलाई का काम भी सीखा ताकि जीविकोपार्जन हो सके.
मगर बुटीक में रोज़गार मिलना मुश्किल था. तब उसने किसी के कहने पर अपनी कमाई के
पैसे से पार्लर का काम सीखना शुरू किया. जल्दी ही पार्लर में हेल्पर लग गई और फिर 'ब्यूटीशियन' बन गई.
घर तब तक काले प्लास्टिक और कच्ची ईंटों का था. पूर्णिमा ने
दिल्ली का रुख़ किया ताकि पक्का घर बनाने का सपना पूर्वा कर सके और बिन बाप के
बच्चों को छत दे सके. काम दिलानेवाले और देनेवाले ठीक निकले सो वह नियम से बच्चों
को पैसे भेजने लगी. सोनाली बड़ी हो रही थी और ज़िम्मेदारी संभाल रही थी. उसकी बचत,
माँ की पगार और मौसी के सहयोग ने घर का
ढाँचा खड़ा किया. लेकिन दिल्ली में माँ किसके साथ रह रही है, यह चर्चा का विषय था. औरत का कमाना,
बग़ैर पति के आसरे रहना, वह भी घर से सैंकड़ों मील दूर महानगर
में! औरत का चरित्र महानगर के चरित्र की छाया में और अधिक संदेह के घेरे में था.
उसमें भी घरेलू काम करनेवाली प्रवासी औरत के पास मोल तोल की ताक़त और कम थी. छोटी
मोटी मदद के लिए वह मालिक पर निर्भर थी या अपने इलाके की हमपेशा सहेलियों पर. बड़ी
मदद की किसी से उम्मीद नहीं थी. इसलिए तीन साल बाद पूर्णिमा दिल्ली से सिलीगुड़ी
अपने घर को जोड़े रहने के लिए लौट आई.
घर की छत और दीवारें मज़बूत हो गई थीं, लेकिन इत्मीनान नहीं था. सोनाली को
पार्लर से लौटते लौटते अक्सर रात के 9-9.30 हो जाते. भाई की चीख-चिल्लाहट बढ़ती ही
जा रही थी. तोहमत पर तोहमत. आखिर उसने घर छोड़ दिया. माँ के लौट आने से छोटे
भाई-बहन के ज़िम्मेदारी भी कम हो गई थी. इसलिए घर से निकलते समय उसके मन पर बहुत
बोझ नहीं था. उम्र 21 के
करीब हो गई थी. उसे अपना जीवन सँवारना था. एक परिचित ने आसरा दिया और एक मौसी ने
उसका मन समझा.
उसी दौरान सोनाली ने फ़ोन खरीदा और टेक्नोलॉजी ने उसका दायरा
वसी किया. मनोरंजन और सुकून का पल भी दिया. तभी टकरा गई संजय से. दो-ढाई साल
दोस्ती को गहराने में लगा. फिर लड़का डरते डरते बंगाल पहुँचा. नुक्कड़ पर मुलाक़ात
हुई. मौसी ने सहमति दी. सोनाली की हिम्मत बंधी. सिंदूर डलवाया और बिना माँ और
भाई-बहन को बताए दिल्ली आ गई. लड़के पर भरोसा था और पीछे कुछ ऐसा नहीं था जिसे
छोड़ने का मोह हो. किस्मत आजमानी थी. हाथ में हुनर था. सोचा कि मिलकर कमा-खा
लेंगे. ननद के घर आई और फिर बिहारी रीति-रिवाज से शादी करके वह बस गई. यह 2014
के नवंबर की बात है.
दिल्ली ने पार्लर के काम को पक्का करने का मौका दिया. सोनाली
के हाथ में सफाई थी और व्यवहार अच्छा था. पति ने सहयोग किया जो बैंक्वेट में काम
करने लगा था. गृहस्थी चल पड़ी थी. अब तक घर पर लोगों को उसकी शादी की खबर हो चुकी
थी और मौसी ने सबको यकीन दिला दिया था कि लड़की खुश है. दो साल गुजर चुके थे.
अब एक बार फिर घर छोड़ने की बारी सोनाली की माँ की थी.
पूर्णिमा लोहार की. सोनाली के शादी का समाचार जब भाई ने सुना था तो उसने ईंट चलाकर
अपनी माँ का सिर फोड़ दिया था. छोटी सी तान्या को याद है कि कैसे मौसी के साथ वह
माँ को अस्पताल लेकर गई थी. अंत में बेटे की गाली-गलौज और बुरे बर्ताव से आजिज़
आकर एक एजेंट के ज़रिए वह जयपुर पहुँच गई. सुनने में आया कि तीस हज़ार रुपए में
एजेंट ने साल भर के लिए पूर्णिमा को किसी के हाथों बेच दिया. ज़रखरीद गुलाम की तरह
वह रात-दिन उस व्यक्ति के घर का काम करती रही और पछताती रही. इस बार उसके काम ने,
शहर ने, मालिक ने धोखा दिया. किसी तरह बेटी से
उसका संपर्क हुआ. बेटी ने पति को साथ लिया और पुलिस की मदद से जयपुर पहुँच गई.
सोनाली माँ से मिल पाई और फिर उनको वहाँ से निकालकर दिल्ली भी ले आई.
सोचा अब थोड़ा और चैन मिला. माँ से अलग होने का दुख जो सीने
में दबा था उस पर मरहम लगा. छह महीने बीत गए. अब माँ को पोता होने की खबर मिली और
वो वापस सिलीगुड़ी चली गई. घर बेटे-बहू से ही तो होता है, यह माननेवाली पूर्णिमा को बेटी के घर का
आराम छोड़ने में रत्ती भर अफ़सोस नहीं हुआ. एक वजह यह भी थी कि बेटी-दामाद की
अच्छी देखभाल के बावजूद समधी यानी सोनाली के ससुर गोपाल गुप्ता का रवैया तकलीफ दे
रहा था. मज़ाक के रिश्ते के बावजूद उनका यह कहना कि चलो मेरे साथ घर बसा लो, पूर्णिमा
के गले नहीं उतर रहा था. वह अकेली थी, मगर इससे क्या!
विधुर था गोपाल. बरसों पहले पत्नी की मौत हो गई थी. 15-20 साल
से दिल्ली में है. राजमिस्त्री का काम करते हुए उसने अपने दो बेटों और बेटी को पाला.
बाद में सिक्योरिटी गार्ड का काम करने लगा. सुना कि रात में नींद की झपकी लेते हुए
सीसीटीवी फुटेज में दिख गया तो नौकरी जाती रही. फिलहाल दिल्ली में ही है. शरीर से
अशक्त नहीं है, मगर काम मिलता नहीं है. या बेटे-बहू के शब्दों में काम करना नहीं
चाहता है. टहलते हुए, पोती के साथ घूमते हुए मैंने उसे देखा है.
इस बार सोनाली अपनी माँ को घर सिलीगुड़ी पहुँचा आई और वापसी में
देखभाल करने के लिए अपनी छोटी बहन तान्या को ले आई. तान्या नाम उसी का दिया हुआ
है. वैसे घर में पहले सब उसे भारती पुकारते थे. तान्या की एक आँख जन्म से खराब है.
तीक्ष्ण बुद्धि, चपल
ज़ुबान और फ़ोन की शौक़ीन तान्या के लिए दिल्ली जीजू का घर था.
अब घर के सदस्य चार हो गए. सिद्धि का जन्म हुआ. लेकिन बंगाल
में माँ चल बसीं. शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गई थी वह. बेटा मार-पीट भी
करता था. बेटियों को लगा कि किसी ने जादू-टोना कर दिया है. इलाज का ठिकाना न था.
सोनाली माँ की आर्थिक मदद कर रही थी, लेकिन उनके तन-मन की चोट का क्या करती !
सोनाली के लिए माँ बनना और माँ को खोना लगभग चार महीने के आगे-पीछे हुआ. ज़िंदगी
को पटरी पर से सोनाली ने उतरने नहीं दिया. 8 महीने की गर्भवती थी तब तक पार्लर में
8-9 घंटे जुटकर काम किया.
वहाँ ग्राहक बनने लगे तो प्राइवेट काम भी शुरू कर दिया था. इसलिए प्रसव के बाद
पार्लर की नौकरी छोड़ दी. बहन का सहयोग मिल रहा था. पति का भी. पड़ोस की नेपाल
वाली भाभी का भी. उसने अपना काम 'फुलटाइम'
शुरू कर दिया. खुश थी. ससुर बीच-बीच में
आकर रहते थे तो थोड़ी खिटपिट होती, मगर
सब सही चल रहा था.
पिछले साल टीबी ने खुशहाल प्रवासी कामकाजी परिवार पर पहला हमला
किया. संजय का काम छूट गया. शादी का मौसम जाता तो यों भी काम में फ़ाका पड़ता था,
लेकिन तनख्वाह 11-12 हज़ार थी तो काम चल जाता था. सोनाली भी 10-12
हज़ार महीने के कमा लेती थी. तान्या भी
घर में काम करने लगी जिससे मकान की सहूलियत मिल गई और तनख्वाह भी आने लगी. टीबी ने
चरमरा दिया होता घर, परंतु
ठेले पर अंडा-ब्रेड बेचने का ख़याल आया. इसमें पुलिस के डंडे, रिश्वत, फुटपाथ का रंगदारी टैक्स सबको झेला.
ठेला उलटा दिया गया. सामान तोड़ा गया. कुर्सी पलट दी गई. महीने भर बाद दूर किसी एक
और रेड़ीवाले ने मोमो बेचने का सुझाव दिया. ब्यूटीशियन बीवी ने मोमो बनाने का
जिम्मा लिया और मियाँ के साथ मिलकर चिकेन मोमो और वेज मोमो बनाने लगी. टीबी से उबरे
पति का काम जमाने की चिंता में जुटी सोनाली समय निकालकर अपने क्लाइंट का काम भी कर
आती. बीच बीच में ब्राइडल मेकअप का एडवांस कोर्स भी. बहुत महँगा कोर्स करने की
हालत नहीं थी, नए
से नए ब्यूटी प्रोडक्ट की जानकारी रखना उसकी पेशागत अनिवार्यता है, साथ-साथ दिलचस्पी का भी. वह अंग्रेज़ी
में सामान का नाम आसानी से पढ़ती है और सही तरीके से लोगों को ब्यूटी टिप्स भी
देती है.
गोपाल गुप्ता साथ रहने लगे थे बहू सोनाली के. फ्रिज, कूलर, टीवी, गैस चूल्हा, मिक्सी, सेकेंड हैंड मोटरसाइकिल, तीन-तीन स्मार्ट फोन के साथ फैशनेबल
कपड़े और हेयर स्टाइल को देखकर उसकी आर्थिक स्थिति ठीकठाक होने का पता चलता है. वह
गर्व से बताती है कि एक-एक सामान दोनों की मेहनत का है. दिक्कत है कि मकान बहुत
छोटा है. एक कमरे के इस मकान में छत ने सोनाली के ससुर को गर्मी में जगह दी.
सर्दी में बेटे-बहू-पोती और बहू की बहन
के साथ किसी तरह वे उसी कमरे में गुज़ारा करते. बीच-बीच में बेटी और दूसरे बेटे के
पास वे चले जाते थे. मन ऊबता या चिढ़ता तो. दिल्ली में ज़मीन का एक टुकड़ा खरीदने
के लिए उन्होंने अपने गाँव की ज़मीन बेची. तीनों बच्चों में रकम बँट गई, लेकिन बंगालन बहू पर अक्सर दोष मढ़ा
जाता. जादू-टोना से लेकर खाना-पानी न देने का आरोप लगता रहता. वृद्ध व्यक्ति की
अपनी असुरक्षा है, ससुर
का रुआब है, पैसे
का दम है तो बेटे-बहू पर निर्भरता की कसक भी.
तभी आ गया कोरोना काल. उसके साथ लॉकडाउन यानी तालाबंदी. साथ
में घरबंदी. सोनाली का काम छूटा. संजय का तो छूट ही चुका था. जमा-पूँजी कुछ ख़ास
है नहीं. एक महीना कट गया, लेकिन
तनाव अब चरम पर है. बेटी को प्ले स्कूल में डालना था, मगर उसका फॉर्म धरा का धरा रह गया. उसे
स्कूल भेजकर काम पर फोकस करना रह गया. टीबी की दवा की खुराक ख़त्म हो गई है,
लेकिन पौष्टिक खान-पान से भरपाई करना
मुश्किल हो रहा है. नतीजा आजकल सोनाली का पूजा-पाठ बढ़ता जा रहा है. हर शाम नियम
से शंख बज रहा है. जनता कर्फ्यू में भी ज़ोरदार बजा था, जबकि सरकार का फरेब भी समझ में आता है.
उसमें ससुर के ताने-तिश्ने ने उसके धीरज की परिक्षा ले ली है. पड़ोसी से शिकायत
करके अपने बच्चों को नीचा दिखाने के आरोप के साथ अब चोरी का आरोप भी बहू का है.
बाहर आने-जाने पर पाबंदी लगाने के कारण बुजुर्गवार छटपटा रहे हैं.
घरेलू झगड़े की नौबत यह आ गई है कि ससुर पुलिस बुला लाए. कहा कि
मार-पीट की जा रही है उनके साथ. खाने की तलाश में बाहर निकलते हैं या मन को शांत
करने के लिए, पता
नहीं. अब घरवाले के साथ आस-पड़ोस भी वायरस का स्रोत वे न बनें, इस आशंका में हैं. खाने की व्यवस्था
उनके लिए कोई भी कर दे सकता है, लेकिन
वे कहते हैं कि मैं भिखारी नहीं हूँ. बंगालन बहनों के चंगुल में उनका राम जैसा
बेटा फँस गया है, यह
दुहराते हुए वे रामायण की कथा से उदाहरण लाते रहते हैं. बेटे-बहू का कहना है कि वे
बच्ची की मौत की कामना कर रहे हैं. मामला उलझता ही जा रहा है.
दबे स्वर में सोनाली एक कमरे
में रहने की दिक्कत, ससुर द्वारा मोबाइल पर ‘गंदी फोटो’ देखने की आदत, जवान होती
जा रही छोटी बहन की हिफाज़त इन सब चिंताओं के बारे में बात करने लगी है. लॉकडाउन ने
उसके धीरज और खुश रहने की आदत को ग्रसना शुरू कर दिया है. वो नहीं चाहती कि कोई परिस्थिति
उसका पाँव बाँधे. 29-30 साल की उम्र है अभी उसकी. सिद्धि के लिए और तान्या के लिए,
संजय के लिए उसे खूब कमाना है. हाल में जब वह अपनी छत पर केप्री पहन कर ऐरोबिक्स
कर रही थी और संजय उसे निहार रहा था तो मैं इस प्रेम कहानी के बारे में सोचने लगी.
मैं इन सबको समझने की कोशिश कर रही हूँ. कितनी परतें हैं ?
समाज की बनावट, परिवार की बनावट, सुविधाओं का ढाँचा और राज्य की जिम्मेदारी
- क्या क्या देखें ? बिखराव
कहाँ कहाँ और कैसे कैसे आ रहा है ? इन सबके बीच प्रेम को बचाने
की भी जुगत करनी होगी.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें