एक लड़की है अल्पना। बचपन की दोस्त।
आठवीं में जब बाँकीपुर स्कूल (पटना) में दाख़िला हुआ तो हमारी दोस्ती हुई थी।
खूबसूरत, स्मार्ट और मस्त। समय
के साथ ये खूबियाँ और अधिक निखरीं ही, मद्धम एकदम नहीं हुईं।
उन दिनों जब लड़कियों का दोस्तों के
यहाँ आना-जाना मुमकिन नहीं हुआ करता था, मुझे अल्पना के घर जाने का मौक़ा मिल जाता था। पूछो कैसे? मेरे पापा का खाने-पीने में शुद्ध चीज़ों के इस्तेमाल पर बड़ा ज़ोर था।
अल्पना नाला रोड की तरफ़ कांग्रेस मैदान के पास रहती थी। माँ कांग्रेस मैदान के
पास की एक दुकान से सरसों का तेल पेरवा कर ले जाती थी। स्कूल के बाहर दोस्त से
मिलने का यह सुनहरा अवसर मैंने पा लिया था। कभी कभी माँ के साथ रिक्शे से मैं भी
कांग्रेस मैदान चली जाती थी। दुकान जिस गली में थी ठीक उसके पहले अल्पना का घर
पड़ता था। मैं मोड़ पर उतर जाती थी। तेल लेने में माँ को कभी-कभी आधा घंटा लग जाता
था और वह मेरे लिए पर्याप्त होता था। अल्पना भी खूब खुश होती थी। तेल हमारे मेल का
कारण बना था!
1980 के दशक के शुरुआती साल थे। पुराने बैच की
दोस्तों की विदाई का आयोजन था। हमने मॉडर्न रामायण को खेलना तय किया। फिल्मी गीतों
के माध्यम से। हमारे सीनियर और जूनियर को मिलाकर तीन बैच की लड़कियों का मेला था
रामायण का यह मंचन। रिहर्सल के बहाने क्लास छोड़ कर मटरगश्ती, स्कूल में फिल्मी गानों की धुन पर नाचने-झूमने की छूट, गंगा किनारे की तरफ़ वक़्त बेवक़्त झुंड बनाकर चलने-फिरने ने हमको
किशोरावस्था की गुदगुदी दी थी। जैसा कि सबको अंदाजा था, मॉडर्न
रामायण में शोख और सुंदर अल्पना को 'कास्ट' किया गया था। राम की भूमिका में या सीता की भूमिका में, मैं ठीक ठीक भूल रही हूँ। लेकिन यह याद है कि ऊँचे कद, गौरवर्ण, नाज़ुक, लंबी, मुलायम ऊँगलियों वाली अल्पना ने जींस टॉप पहना था। उसकी खिलखिलाहट और
दूसरी तरफ संजीदगी ने प्रस्तुति को यादगार बना दिया था।
मॉडर्न रामायण में हमारी मौज ही मौज
थी। राम और सीता एक दूसरे को देखते हैं तो गाते हैं "आप जैसा कोई मेरी
ज़िन्दगी में आए"। भरत राम से अयोध्या लौटने का आग्रह करते हुए गाते हैं
"चल चल मेरे भाई, तेरे हाथ जोड़ता
हूँ"। रामायण का रोमांस हमें रोमांटिक बना रहा था और हम अपनी उस
सांस्कृतिक-राजनीतिक टिप्पणी से बेखबर थे। कुछ शिक्षिकाओं ने मुस्कुराते हुए हमें
कहा था कि ज़्यादा फिल्मी मत बना देना रामायण को। अल्पना इस प्रसंग को याद करते हुए
हमेशा खिल उठती थी।
एक साल गाँधी मैदान में गणतंत्र दिवस
की परेड के समय होनेवाले सांस्कृतिक कार्यक्रम में हम सब शामिल हुए थे. उस समय
सफ़ेद कुरता-धोती के साथ पीला साफा और जूड़े के साथ साड़ी पहननेवाली लड़कियों का जोड़ा
बना था. कितना रोमांचक था वह सब ! पटना के केन्द्रीय और सबसे बड़े सार्वजनिक स्थल
में बड़े समूह के सामने ‘कन्या उच्च विद्यालय’ की किशोरियों का रंगबिरंगे कपड़ों में
जाना उत्साहजनक अवसर था. कइयों के लिए यह बंद खिड़की का खुलना था. अल्पना जिस
संपन्न परिवार से आती थी, उसके लिए बाहर आना-जाना सामान्य बात थी. फिर भी इकट्ठे
जाने के नाम पर हम सब उत्सुक थे.
अल्पना स्कूल में भी एकदम सलीके से
रहती थी और अभी भी। सलीका केवल पहनावे-ओढ़ावे में नहीं था, जीवन जीने में भी था। उसकी शादी की रात याद है
मुझे। शादी के तुरत बाद उसने बड़ी बीमारी को झेला, ऐसे मानो
कोई बड़ी विपत्ति न हो। पटना से बंबई की नियमित दौड़ लगाती रही। फिर परिवार के
बारे में सोचती रही। बड़ा हादसा हुआ, लेकिन आगे बढ़ी। पति की
नौकरी के साथ ख़ुश-ख़ुश शहर बदला। बेटे ने व्यस्तता के साथ नए सपने दिए। अंकल के
चले जाने के झटके को बर्दाश्त करके अल्पना ने अपने छोटे भाई-बहन को सम्भाला। आंटी
के अकेलेपन को भी भरने की भरपूर कोशिश की।
मुझे अल्पना से ही पहली बार पता चला
कि एंजियोप्लास्टी किडनी की भी होती है। वह अपने अनुभव को डॉक्टरी नुस्ख़े की तरह
बताती थी। जैसे तकलीफ़ होना और झेलना एकदम स्वाभाविक हो। उसके बाद किडनी
ट्रांसप्लांट का पेचीदा, तकलीफ़देह सफ़र
अल्पना ने आंटी का हाथ पकड़कर तय किया। बिस्तर पर रहने के दौरान मधुबनी पेंटिंग पर
मन जमाया और कुकरी की किताब लिखने की तैयारी शुरू की। पुष्पेश पंत जी ने उसकी
किताब 'माँ की रसोई से' का लोकार्पण
किया था। पति का और घर भर का सहयोग बताते हुए वह थकती नहीं थी। तस्वीरों में उसके
चेहरे से जो नूर टपकता दिखता है वह उसके भीतर का नूर ही है।
उसके बाद पेंटिंग की प्रदर्शनी लगी।
कुकरी की प्रतियोगिताओं और शो में अल्पना केवल भागीदार नहीं थी, विजेता थी। बाग़वानी का शौक़ भी परवान चढ़ने
लगा था। सुबह सुबह जब अपने टेरेस के बाग़ीचे की ताज़ा पैदावार की फ़ोटो वह हमारे
स्कूल के ई सेक्शन के WhatsApp group में भेजती थी तो सबका
मन ललच जाता था। सब्ज़ियों की ताज़गी से अधिक अल्पना की ताज़गी हमें सुहाती थी।
अभी 24
अप्रैल को अल्पना के जन्मदिन पर जब Sindhu ने वीडियो चैट पर मिलने का प्रस्ताव रखा तब किसी ने देर नहीं की। कोविड और
लॉकडाउन ने सबको अकुला दिया था। मिलने का बहाना भी जन्मदिन का था तो कुछ घंटे की
नोटिस पर दिल्ली, बंबई, राँची और
कलकत्ता में बसी स्कूल की सहेलियाँ जुट गयीं। बाकू (अज़रबैजान), पटना और बंबई की एक एक दोस्त नहीं जुड़ पाईं तो उनका उलाहना हमने हँसते
हँसते सुन लिया। सोचा कि जल्दी ही फिर अड्डेबाज़ी होगी।
क्या पता था कि अब अल्पना नहीं
मिलेगी! कोविड ने उसे दबोचा और उसको मथ डाला। आठ दिन से अपोलो में भर्ती थी।
वेंटिलेटर और ICU का नाम हमें डरा
रहा था। उसका होश में न होना हमारे होश छीन रहा था। रात को खबर आ गई कि अल्पना चली
गई।
हमारे रसचक्र की कई प्रस्तुतियों में
अल्पना चाव से आई थी। हर बार हमने फ़ोटो खिंचवाई थी। उसको मुझे कहना है कि मेरे
साथ अड्डेबाज़ी छूटेगी नहीं। ग़ाज़ियाबाद के गोभी के खेत में जाकर हम जब मस्ती कर
सकते हैं तो इस दुनिया के पार भी मिलकर मस्ती करेंगे।
स्कूल में हमने अपने समूह का नाम रखा
था - PAVAS - P पूर्वा A
अल्पना V वर्षा A अंजु S
सिंधु। आज वह टूट गया।
हमारा कॉलेज अलग हो गया था, मगर हमारा संपर्क बना रहा। हम सबकी शादियों ने
भी दोस्ती और दोस्त को भुलाने का काम नहीं किया। हाँ, घरेलू
और वयस्क जीवन की नाना प्रकार की भूमिकाओं ने हमें व्यस्त अवश्य कर दिया था। तब भी
कभी बंबई से अंजु आई तो हम होटल की लॉबी में मिल लिए, सिंधु
बंबई से आई तो अंसल प्लाज़ा के गेस्ट हाउस में बैठकी ज़माने के बाद हम दिल्ली हाट
में विचरने चले गए। अमेरिका से रेनी आई तो हम सब रेस्टोरेंट में मिल लिए. कविता के
घर जमावड़ा हुआ तो शामिल होनेवालियों में थी पूर्णिया से नीना, बंबई से सीमा और
दिल्ली से राहत दी’, अल्पना और मैं. राँची से वर्षा आई तो कनाट प्लेस में अल्पना,
अंजना, राहत दी की चौकड़ी जमा ली। स्वरूपा
बंबई से आई तो हम अल्पना के घर धमक गए। मॉल का चक्कर भी हम कुछ दोस्त हाथ में हाथ
डालकर लगा आते थे. नुज़हत के घर ईद में समय तय करके अल्पना और मैं हमदोनों एक साथ पहुँचे
थे।
दोस्तों से मिलने का अल्पना ने कोई
मौका गँवाया नहीं. खुद गाड़ी चलाती थी या ड्राइवर रहता था या कोई व्यवस्था हो वह
कभी चूकी नहीं. उसके साथ coordination आसान था. कार्यक्रम बनाने में कभी लफड़ा नहीं
हुआ. भले उसकी तबीयत खराब हो, मुँह पर मास्क हो, पैर में सूजन हो, खाने-पीने पर
पाबंदी हो. जब उसने ठान लिया तो ठान लिया, कह दिया तो कह दिया. एक फार्म हाउस में
अल्पना ने घर के पकवान का स्टॉल लगाया था तो याद से चलते समय उसने भरवाँ लाल मिर्च
का अचार पकड़ा दिया था। यानी हम बहानेबाज़ अड्डेबाज़ ठहरे!
स्कूल में हमारी बस के दो ट्रिप होते
थे दो रूट पर। मेरा और अंजु का एक रूट था और वर्षा-अल्पना का दूसरा रूट। छठे छमासे
यदि दोनों ट्रिप को मिला दिया जाता था तो हम लड़कियों की बाँछें खिल जाती थीं।
अंत्याक्षरी, धौल-धप्पा, खुसुर-फुसुर और ठहाका! उन दिनों को याद कर रही हूँ और सोच रही हूँ कि
अल्पना किस रूट पर चली गई? यह कौन सी ट्रिप है?