Translate

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

छकड़ा वाला और पानी वाला (By Purwa Bharadwaj)

अपनी व्यस्तता पसंद है मुझे। एक व्यस्त दिन के बाद अपनी वापसी की यात्रा को पलटकर देख रही हूँ तो थोड़ा मुस्कुरा रही हूँ और खीझ भी रही हूँ। 

उस रात गुजरात के शहर भुज से चली। दिन में शिक्षकों के साथ पाठ्यचर्या पर काम किया। तिपहर से शाम तक एक टीम के साथ जेंडर आधारित हिंसा पर बात की। फिर खाली हो गई। कहीं जाने को नहीं था। रहने की जगह से सुबह ही सरो सामान आ चुकी थी। देर रात भुज से अहमदाबाद तक की ट्रेन थी तो चार दुकान जाकर खरीदारी कर ली। मेरी सवारी थी एक बड़ा सा छकड़ा (ऑटो)। आकार में  'विक्रम' से थोड़ा छोटा। नया न था, लेकिन चमचमाता हुआ। आरामदेह सीट और इतनी जगह कि मेरा सूटकेस आराम से आ गया। 

छकड़ा चालक प्यारा सा ट्रांस व्यक्ति है जिसने मुझे चार साल पहले उस शहर का दर्शन कराया था। पुराने किले और सरोवर के पास फोटो खींची थी। मेरे फोन में अब वो फोटो नहीं है, लेकिन चार साल पुराना उसका नंबर दर्ज था। उसके मुताबिक यह नंबर लगभग 15 साल से उसके पास है क्योंकि बिजनेस के लिए बार-बार नंबर बदलना ठीक नहीं। उसका स्टाइल भी नहीं बदला है -  कटोरा कट बाल के साथ थोड़ी जुल्फ़ी, पैंट-शर्ट। इस बार उसके साथ आइसक्रीम खाते हुए मैंने उसकी प्रेम कहानी सुनी। वह जिस लड़की को पसंद करता है उससे कानूनन शादी मुमकिन है या नहीं, यह फ़िक्र उसे है। उसके घर में उसकी मर्जी चलती है और उसकी मोहब्बत जगजाहिर है, मगर हिंदू-मुसलमान के रिश्तों को लेकर आजकल के माहौल ने उसे चिंतित कर रखा है। उसका समाधान तो मेरे पास नहीं है, लेकिन कुछ जानकारी उसके लिए इकट्ठा कर सकती हूँ। मैंने बैठे-बैठे क्वीयर अधिकारों पर काम करनेवाली एक दोस्त से जानकारी माँगी। उसने एक नंबर दिया जिस पर मुझे संपर्क करना बाकी है। 

... बानो से बदलकर एक लड़के के नाम का कागज़ बनवाने, छकड़ा चलाते हुए अपना दबदबा कायम करने का उसका किस्सा मैंने पहली मुलाकात में सुना था। पिछले साल बीच में जब चंद मिनटों की भेंट हुई थी तो वह खैल के मैदान में कुर्सी पर बैठा था। हार्मोन थेरेपी और ऑपरेशन करवाने की  बात उसने बताई थी। इस बार छकड़ा चलाते हुए उसने बताया कि कानून पर चल रही बहसों को वह ध्यान से देखता-सुनता है। अलग अलग जेंडर पहचान वालों से उसकी दोस्ती है। दोस्ती का बढ़ता दायरा ही उसका 'सपोर्ट सिस्टम' है। उसी ने मुझे स्टेशन छोड़ा। बीच में वह अपनी बहन को कहीं से लाने की जिम्मेदारी निभाने के लिए गायब हुआ था, मगर उस दौरान मेरे पास उसकी प्रेमिका अपना छकड़ा लेकर आ गई थी। मैं जब एक दुकान में लगभग 45 मिनट गुज़ारकर एक बड़ा सा थैला लेकर बाहर निकली तो कुछ मिनटों के लिए परेशान हुई कि मेरे सूटकेस सहित छकड़ा कहाँ गया। तभी एक दुबली-पतली लड़की ने पुकारा जो छकड़े की आगेवाली सीट पर बैठी थी। मेरा सामान उसी के पास था। उसने अपने छकड़े में मुझे एक अच्छे से शाकाहारी होटल में पहुँचा दिया और चली गई। वहाँ मैं इत्मीनान से कुछ देर सामान सहित बैठ सकती थी। जब तक मैंने खाना खाया छकड़ा लेकर वह वापस आ गया। होटल की लॉबी में उसने कई सेल्फ़ी ली और मुझे भी एक-दो में शामिल कर लिया। 

अभी भी वक्त था। हमने छकड़े में शहर के मशहूर स्वामी नारायण मंदिर का चक्कर लगाया। उसका उत्सव चल रहा था तो बड़े से इलाके में इतनी सजावट थी कि मुझे छठ के दिनों का पटना याद आ गया। पिछली बार मंदिर के भीतर जाकर देख चुकी थी तो भीड़-भाड़ में अभी जाने का मन नहीं किया। मैंने मंदिर में जाने के प्रस्ताव को किनारे कर दिया तो उसने कुछ कहा नहीं। हाँ, शायद थोड़ा हैरान जरूर हुआ। बहरहाल, हम शहर की रौनक पर, G 20 के कारण नए-नए भवनों के निर्माण पर और राजनेताओं के दौरे के नाम पर होनेवाले रंग-रोगन पर बात करते हुए आगे बढ़ गए। स्टेशन का रास्ता थोड़ी ऊँचाई वाला था। वहाँ से शहर की जगमगाहट देखकर पहली बार मुझे उसके विस्तार का अंदाज हुआ। उसकी जगमगाहट चुभ नहीं रही थी न चौंधिया रही थी, बल्कि बसाहट के इत्मीनान से भरी हुई फैली थी। वाकई शांत सा शहर है यह। गुजरात ने जो ज़हर हर जगह घोल दिया है उससे दूर दिखता है।  स्टेशन पर विदा लेते हुए उस चार घंटे के साथी ने "बाय मैम" कहा तो मुझे बुरा लगा। अब उसकी पीठ मेरे सामने थी और मुझे दिख रहा था उसके गले में लहराता सफेद रुमाल! 

खैर, ईद के बाद अपने अपने कामों पर लोग लौट रहे थे। सपरिवार। लौटती बारात जैसा दृश्य था स्टेशन पर। साफ-सुथरा स्टेशन। अजनबियत में भी परिचित सा लगा मुझे। एक बुजुर्ग महिला ने गुजराती में मुझसे मेरे कोच का नंबर पूछा। मैंने हिन्दी में जवाब दिया और सोचा कि गुजराती का वाक्यांश तो बोल ही सकती थी तो भला मैं क्यों सकुचा गई। पिछले सालों में दसियों प्रशिक्षणों (ट्रेनिंग) और कार्यशालाओं में मैंने इतनी गुजराती और कच्छी भाषा सुनी है कि 50 क्या 60 प्रतिशत आराम से समझ लेती हूँ। अब थोड़ा थोड़ा बोलने का अभ्यास करना चाहिए। "केम छो" और "मजा मा" से शुरुआत कर ही देनी चाहिए। 

यात्रियों में मुसलमानों की तादाद सबसे अधिक थी। उनकी खुशदिली से मैं ईद की रौनक का अंदाजा लगा रही थी। वही ईद जो शायद अपनी याद में पहली बार काम करते हुए कटी और बिना सेवई के। आयोजक मिठाई ले आए थे क्योंकि 20 लोगों के लिए सेवई के इंतज़ाम के लिए फौरन दूध का जुगाड़ मुश्किल था। मगर सेवई की भरपाई मिठाई से कहाँ ! अगले दिन की मीटिंग में मैंने अपना मलाल जाहिर किया। उसके अगले दिन चलते समय प्यार से मुझे एक किशोरी ने "साटा"  का डिब्बा पकड़ाया। उसने कहा कि घर पर ईद की सेवई थी, मगर सेवई लाना मुश्किल था और बातचीत में "साटा" का ज़िक्र चला था सो आपके लिए ले आई। मैंने उत्सुकता से डिब्बा खोला और एक टुकड़ा चखा। बेसाख्ता मेरे मुँह से निकला कि अरे यह तो हमारी बालूशाही जैसा है। वाकई वह बालूशाही ही है, चीनी में पगी और उससे सजी हुई कच्छी मिठाई। 

ट्रेन की ठीक सामने की सीट पर एक बुजुर्ग सज्जन थे - कृष्ण भक्त। इस्कॉन वालों की धज में। बैग के अलावा कई छोटे-बड़े थैले थे उनके पास। उम्र देखकर मैंने उनका सामान सहेजने और जगह बनाने में मदद के लिए हाथ बढ़ाया तो उन्होंने रोक दिया। रुखाई से नहीं, किंचित् स्वाभिमानी स्वर में। खासे चुस्त थे। खुद से सब ठीक ठाक किया और बिस्तर बिछाया। सोने के पहले उन्होंने फोन पर किसी से बात की, संभवतः सिंधी ज़ुबान में। उसमें गुजराती मिली हुई सी लगी, पर खासी अलग थी। मुझे कुछ अंदाजा नहीं लगा सिवा इसके कि उन्होंने अगले को अपनी खैरियत दी। फिर बिना पूछे सीधे बत्ती बुझा दी। मैंने सिर उठाकर देखा तो बोले "लाइट बंद कर रहा हूँ।" मैं कुछ कह नहीं पाई। नींद आ नहीं रही थी। सोचा था कि लैपटॉप पर कुछ काम कर लूँगी, परंतु वह भी रह गया। 

मेरे सहयात्री के पास पानी की दो छोटी-बड़ी बोतल थी जिसमें से बड़ी वाली तुरत लुढ़क गई। उसे उठाने के लिए मैं झुकी तो उन्होंने मना कर दिया और वह कब तक नीचे पड़ी रही मुझे पता नहीं। मेरा ध्यान उसी पर अटका रहा क्योंकि प्लेटफॉर्म पर कोई दुकान दिखी नहीं थी और मैं पानी की बोतल की तलाश में थी। कूपे में कोई बेचने भी नहीं आया। रात के 11 बजने को आए थे। अमूमन बहुत प्यास मुझे नहीं लगती, मगर तब गला सूखे जा रहा था। बहुत मन किया कि पानी माँग लूँ, मगर हो न सका। कीमत देकर लेने का प्रस्ताव असभ्य होता तो वह भी नहीं हुआ। किसी तरह सो गई और अपने अलार्म के बजने के पहले ही उठ भी गई। सुबह पाँच बजे अहमदाबाद स्टेशन उतरी। ओला टैक्सी बुलाकर भागी हवाई अड्डे पर। वहाँ घुसते ही महँगी सी पानी की बोतल खरीदनी पड़ी ताकि गला तर कर सकूँ और थायरायड वाली दवा खा सकूँ। उस समय ट्रेन की सीट के नीचे पड़ी पानी की बोतल कौंधी। और गुलाबी-नारंगी कपड़ों में पानीवाले कृष्ण भक्त भी।  

1 टिप्पणी: