Translate

बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

किताब (Books by Purwa Bharadwaj)



सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का काव्य-संकलन 'कुआनो नदी' (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1973) मेरे सामने है। उसकी धूल झाड़कर पिछले महीने मैंने अपने सिरहाने वाले थाक में रखा था। यह किताब पापा की है। पहला पन्ना पलटते ही अक्षर चमके - नंदकिशोर नवल और 
नीचे लिखी तारीख 20.2.74 थी। उस चमक ने क्षण भर को उमड़े अश्रुकण को सोख लिया। पापा किताब खरीदते ही उस पर सबसे पहले तारीख के साथ अपना दस्तखत करते थे। ज़्यादातर हिन्दी में और कभी कभी अंग्रेज़ी में। शायद अंग्रेज़ी किताबों पर ही N. K. Nawal लिखते थे। कभी इस पर ध्यान नहीं दिया और न ही इस पर बात हुई। जो भी हो यह उनकी बड़ी अच्छी आदत थी जिससे दूसरे को किताब मारने में बनता नहीं था 😊अपूर्व को भी नही! 

पापा किताबें खूब खरीदते थे। जब विद्यार्थी थे तब भी। माँ ने बताया था कि उन्होंने शादी की रात में अपने वज़ीफ़े के पैसों से खरीदकर दो कविता की किताबें भेंट की थीं। किशोरावस्था में मुझे वह फ़िल्मी से ज़्यादा सनक भरा लगा था। उन किताबों का नाम माँ ने क्या बताया था, मैं भूल गई। शायद एक अज्ञेय की थी और एक धर्मवीर भारती की। या कोई और दो किताबें थीं जिनकी तस्दीक करनेवाला अब कोई नहीं। यह 1959 की बात है। 

आगे चलकर पापा जब शादी-ब्याह और जन्मदिन पर भी किताबें भेंट करते थे, तब मुझे थोड़ा अजीब लगता था। सोचती थी कि उनका किताब-प्रेम दुनियादारी से बेखबर है। जब अपने दोस्तों को भी किताब देने को कहते थे तो कभी कभी यह लगता था कि पापा- माँ कंजूसी कर रहे हैं। हालाँकि हर बार खरीद कर ही देते थे। धीरे-धीरे यह हमारी भी आदत में समाने लगा था (फिलहाल ऐसा नहीं है)। मुझे याद है जब मैंने बच्चन-प्रेमी अपनी स्कूल की दोस्त को बच्चन की किताब भेंट की थी। अब दशकों बाद हमदोनों महज़ उसकी चर्चा से रोमांचित हो जाते हैं।

किताबों की कई श्रेणियाँ थीं - भाषा के मुताबिक (हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और बांग्ला के अलावा विदेशी भाषाओं की अनूदित किताबें), विधा के मुताबिक (कविता, कहानी, आलोचना आदि) और विषय के मुताबिक (साहित्यिक एवं राजनीतिक)। इनके अलावा जासूसी किताबें भी थीं। तिलिस्मी, ऐय्यारी वाली भी थीं जिन्हें किशोरावस्था तक हमारी नज़रों से छिपा कर रखा गया था। जहाँ तक याद है 'किस्सा तोता-मैना' टाइप रंगीन बड़े आकार की या देवकीनंदन खत्री की 'चंद्रकांता संतति' जैसी। उनको चुरा चुराकर देखा था और तब सोचा भी था कि माँ-पापा क्या अंट-शंट पढ़ते हैं। हालाँकि पापा फख्र के साथ कहते थे कि तुम्हारी माँ की रुचि का 'रेंज' - दायरा काफ़ी वसी (विस्तृत) है - गोर्की, चेखव, टैगोर, शरत बाबू, माणिक बंदोपाध्याय, प्रेमचंद से लेकर जासूसी कहानियों तक।  

तिलिस्मी और रूमानी किताबों की तुलना में जासूसी किताबें उनसे अधिक पाक-साफ़ मानी जाती थीं। माँ खूब पढ़ती थी - कर्नल रंजीत, इब्ने सफ़ी वगैरह। गोपाल राम गहमरी के नाम की छाया तो मन पर है, मगर याद नहीं कि उनकी 'जासूस' पत्रिका हमारे घर में थी या नहींशुरुआत में भैया छिपाकर ओम प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा वगैरह के उपन्यास पढ़ता था। उनको माँ जब्त कर लेती थी और बाद में खुद पढ़ने लगी थी। एक समय आया जब माँ-बेटा सलाह करके पढ़ते थे और आदान-प्रदान होता था। भैया खुले आम पढ़ता था एस. सी. बेदी की राजन-इक़बाल शृंखला। 'चन्दा मामा', 'नंदन', 'पराग', 'बाल भारती' (बोरिंग-सी लगती थी) जैसी पत्रिकाओं को तो अखबारवाला नियम से दे जाता था। पत्रिका पहले किसके हाथ लगती है इसकी ताक में हम दोनों भाई-बहन रहते थे। बीच बीच में बाज़ार से आने वाली पत्रिकाओं में फैंटम, चाचा चौधरी और साबू जैसे पात्र हमारे साथ साथ माँ के भी प्रिय थे। 

घर में शब्दकोश का कोना अलग से था। हिन्दी, उर्दू-हिन्दी, संस्कृत-हिन्दी, संस्कृत-अंग्रेज़ी, अंग्रेज़ी-हिन्दी आदि शब्दकोश के साथ अमरकोश और समांतर कोश (थिसारस), पारिभाषिक शब्दकोश भी कतारबद्ध थे। वैसे पापा से अधिक शब्दकोश माँ देखती थी। थोड़ी भी शंका हो तो रानीघाट वाले घर में पहले तल्ले पर रखी आलमारी से शब्दकोश लाने में हम भाई-बहन टालमटोल करते रहते थे और तब तक माँ चली जाती थी। भरसक पापा को अपने से ज़्यादा माँ के शब्द ज्ञान पर भरोसा था। 

पापा के लिए किताब ज़रूरत थी। वे एक ही किताब के कई कई संस्करण भी लेकर रखते थे और यदा कदा पहले संस्करण से उसका मिलान भी करते थे। किताबों का पहला संस्करण इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण होता चला गया। बहुत बाद में जाकर जब मैं अपने इस 'मनमाफ़िक' ब्लॉग के लिए कविता की किताबों को पलटती थी तो अलग अलग संस्करण में बहुत बार कविताओं की प्रस्तुति में फ़र्क दिखने लगा था और तब मैं पापा के खजाने में से पहले संस्करण को खोजती थी। 

अंग्रेज़ी किताबों के लिए भी पापा उत्सुक रहते थे। 23.6.74 की उनकी एक चिट्ठी है। वे अपने छोटे भाई को लिखते हैं - 

दिल्ली में अंग्रेजी पुस्तकों की दुकान में कुछ किताबें खोजना, शायद इनमें से कुछ मिल जाएँ। Ernst Fischer की दो किताबें हैं - 'The Meaning of Art' (पाकेट बुक में, Pelican) और 'Art against Ideology' । इसके अलावा लूकाच की एक किताब है - 'Studies in Contemporary Realism'। कॉडवेल की एक नयी किताब निकली है - 'Romance and Realism'। इसके अलावा कॉडवेल के  Aesthetics पर मार्गोलीज की एक छोटी सी किताब आयी थी। यह किताब अधिक Important है। इनमें से एक किताब भी मिल जाए तो ठीक है। यदि किसी किताब का दाम ज्यादा हो तो उसे छोड़ देना। यहाँ मैं लोगों से माँगकर काम चला लूँगा।

ताउम्र पापा नई और अपने काम से जुड़ी किताबों के लिए प्रयासरत रहे। उसके लिए उन्होंने खूब यात्राएँ कीं, पुस्तकालयों की धूल फाँकी, वहाँ घंटों बैठकर किताबों से सामग्री कॉपी में उतारी, जिसका संभव हुआ फोटोकॉपी कराकर बाइंड करवाकर सहेजा। उनके द्वारा संपादित 'निराला रचनावली' के लिए मैंने भी पटना विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में बैठकर 'मतवाला' की फ़ाइल से निराला की रचनाओं की नकल की थी। उन दिनों पुरानी किताबों का महत्त्व जो समझ में आया वह जीवन भर की सीख बन गया। मेरे चाचा की तो पापा ने जान ही निकाल ली थी जब उन्होंने कलकत्ता की नेशनल लाइब्रेरी में बैठ-बैठकर (अपनी नौकरी से छुट्टी लेकर) निराला की अन्यत्र अनुपलब्ध किताबों में से रचनाओं को हाथ से कॉपी में उतारा था। उन दिनों जर्जर किताबों की फोटोकॉपी नहीं हो पाती थी और न ही उन्हें स्कैन करके डिजिटल स्वरूप में लाया गया था। ऐसे में पसीना बहाते हुए पुस्तकालय में बैठकर हाथ से विराम चिह्न सहित ज्यों का त्यों  नकल करना ही एकमात्र उपाय था। कई दशक बाद जब मैं पंडिता रमाबाई पर शोध कर रही थी तब यह और तीव्रता से समझ में आया था कि पुस्तकालयों का रख-रखाव और आधुनिक टेक्नॉलजी से संपन्न होना कितना मायने रखता है। 

हमारे घर की किताबों के स्रोत कई थे। उनमें एक छोटा हिस्सा उपहारस्वरूप किताबों का भी था।समीक्षक-आलोचक और संपादक होने के नाते प्रकाशकों और लेखकों के यहाँ से पापा के पास किताबें आने लगी  थीं। कभी कभी तो माँ आजिज़ आ जाती थी। तब उनमें निर्ममतापूर्वक छँटाई का काम किया जाता था। उसमें गुणवत्ता पहला आधार होता था, दूसरा आधार पसंद था। मुझे याद है जब घघा घाट से हमलोग बुद्ध कॉलोनी के घर में आए थे तब कलेजे पर कितने पत्थर रखकर पत्रिकाओं की फ़ाइल हटाई थी। जिल्द मढ़ी हुई काफ़ी पत्रिकाएँ एक लाइब्रेरी को दे दी थीं और खुदरा खुदरा पत्रिकाएँ रद्दीवाले के हवाले कर दी थीं। 

पापा-माँ की पूँजी किताबें थीं और उनको सहेजने के लिए धीरे-धीरे 10 आलमारी जमा हो गई थी। उनमें से दो लकड़ी की हैं जिनमें शीशे लगे पल्ले हैं। अपने गाँव के अपने शीशम के पेड़ की लकड़ी से बनी हुईं इन आलमारियों में शुरुआत में खास किताबें रखी जाती थीं। यदि मैं भूल नहीं रही तो पापा द्वारा संपादित निराला रचनावली सबसे पहले उसी में सजी थी। बाद में वर्णक्रम के हिसाब से किताबों का वर्गीकरण हुआ था। रचनाकारों के अनुसार। बाकी स्टील की आलमारियों में भारी भरकम किताबें रखी जाती थीं। जिनमें शीशे लगे स्लाइडिंग वाले खाने थे उनमें वे किताबें रखी जाती थीं जो अधिक काम में आती थीं या अन्य रचनावलियाँ। अधिक कीमत के कारण अक्सर योजना बनाकर रचनावलियाँ खरीदी जाती थीं और कई बार उधार पर। (राजकमल प्रकाशन या मोतीलाल बनारसी दास के यहाँ पापा का खाता चलता था। शायद अनुपम प्रकाशन के यहाँ भी।) 1980 के दशक में रचनावली और समग्र का शोर था तो उनकी आभा हमारे घर तक भी फैली थी। हम बच्चों को खास हिदायत थी कि रचनावली नंबर के अनुसार सजाई जाए। जहाँ तहाँ से नहीं निकाली जाए। 

किताबों के पुट्ठे (spine) का खास खयाल रखने को कहा जाता था। अरे 'पुट्ठा' शब्द कितने दिनों बाद ज़ेहन में आया ! पुट्ठे पर हाथ रखना - जैसा प्रयोग जब भूल-बिसर गया है तो किताब का पुट्ठा कैसे याद रहता! बहरहाल, हार्ड बाउंड 

माँ के साथ हमलोग अपने घर की 'लाइब्रेरी' की देखभाल करते थे। (पुस्तकालय शायद ही कहते थे हमलोग। वैसे 'लाइब्रेरी' शब्द का इस्तेमाल हमारे अलग अलग किराये के डेरों में किताबों के लिए समर्पित कमरे के लिए भी  होता था।) साफ़-सफ़ाई और किताबों को करीने से सजाने में सबलोग लगते थे। हाँ, भैया ने शायद कम समय दिया होगा। साल में कुछेक छुट्टी के दिनों में किताबों के थाक के बीच लुंगी-गंजी पहने पापा की छवि आज तक मलिन नहीं हुई है। उनकी युवावस्था की उस छवि में कुछ और लोग समय बीतने के साथ जुड़ते गए। उनके कुछ प्रिय जन (जो अनिवार्यतः साहित्यानुरागी होते थे) उनका हाथ बँटाने लगे थे क्योंकि माँ थक चुकी थी और मैं भी विदा हो चुकी थी।  

इनके अलावा किताबों की कई छोटी-बड़ी दुकानों पर साहित्यिक अड्डेबाज़ी होती थी जिसके अभिन्न अंग थे पापा। संभवतः इसी कड़ी में अपने विद्यार्थी जीवन में हमारी अड्डेबाज़ी पटना कॉलेज के सामने स्थित पीबीएच - पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस में होती थी। यहाँ किताबों के बीच आंदोलन से लेकर लड़ाई, रूठने-मनाने से लेकर रोमांस तक चलता रहता था। 

शुरू से यह तय था कि पापा की सारी किताबें अपूर्व ले जाएँगे। उनके बाद ... क्योंकि उनके सामने किताब लाने पर ढेर सारी हिदायतें मिलती थीं और वादे के मुताबिक समय पर न लौटाई जाए तब तगादा करने में पापा संकोच नहीं करते थे। हाँ, हम दिल्ली आ गए तब पापा थोड़ी उदारता बरतने लगे। बोलते थे कि अगली बार दिल्ली से पटना आइएगा तो किताब लौटा दीजिएगा। धीरे-धीरे अशक्त होने लगे तो कहने लगे कि यह किताब रख लीजिएगा। या कभी यह भी कहते कि फिलहाल वो वाली किताब लौटा दीजिएगा क्योंकि पता नहीं कब मुझे पलटने की ज़रूरत आन पड़े। अपूर्व उनको छेड़ने के लिए कुछ मुस्कुराकर कहते और पापा का स्वर थोड़ा कठोर होने लगता था तो माँ उनको झिड़क देती थी कि किताब घर ही में तो रहेगी, आप नाहक चिंता कर रहे हैं। 

2020 की 12 मई को पापा गए, लेकिन किताबें यथावत् घर में रहीं। हमने तय किया था कि माँ के सामने कुछ नहीं छेड़ना है। 15 फरवरी, 2024 को माँ भी चली गई तब विचार किया जाने लगा। वादे के मुताबिक हम दिल्ली पापा की सारी किताबें नहीं ला पा रहे थे। फिलहाल क्वार्टर में हैं, अपना मकान नहीं है। आगे किराये के मकान में कहाँ सारा पुस्तकालय समाएगा ? पापा की केवल गिनती की चुनींदा किताबें लेकर हम दिल्ली आए। शीशम की दो आलमारी भी मूवर्स एंड पैकर्स की मार्फ़त दिल्ली आईं, मेरी इकलौती पुश्तैनी संपत्ति! केवल पापा की लिखी और संपादित किताबों को भैया ने अपनी धरोहर के रूप में रख लिया है। कुछ पसंदीदा किताबें आत्मीय जन ले गए। बाकी किताबों को किसी अच्छे पुस्तकालय में देने की मशक्कत का किस्सा कभी और! हार-दार कर पटना साहित्य सम्मेलन को भैया ने पापा की हज़ारों किताबें भेंट कीं। किताबों के तीन बुकशेल्फ सहित। कुछ रैक और आलमारी पहले ही प्रियजन ले गए। घर खाली हो गया। भैया ने जब किताबों से भरा अंतिम ट्रक विदा किया था तब उसने फ़ोन किया था। वह रो पड़ा कि ऐसा लग रहा है कि मैंने पापा को घर से निकाल दिया है। फ़ोन पर दूसरी तरफ़ मेरे गले में काँटा चुभ रहा था कि असली दगा तो मैंने किया, पापा से, उनकी किताबों से! 




2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर यादें। किताब से मुहब्बत करने वाले ऐसे लोग अब कितने रहेंगे पता नहीं। तुम्हें पढ़ते हुए मुझे मेरे पिता याद आएं। किताबों से ऐसी ही तो मुहब्बत है उनकी। तुमने जो लिखा वो सबके लिए महत्वपूर्ण है। अगली किस्त का इंतजार है

    जवाब देंहटाएं
  2. हमारे पापा की जान उनकी किताबों में थी .किताबों में ही पापा को देखते हैं ,याद करते हैं . अब तक तो सहेज कर रखा है ,भविष्य में न जाने क्या हो ?

    एक बात तय है  ऐसी किताबें किसी भी ज़िंदगी में मिलने वाली नहीं हैं . मैन समझ सकता हूँ कैसा अपूर्व और अद्भुत संग्रह होगा . बहुत सुंदर लिखा आपने .--अपूर्व गर्ग 

    जवाब देंहटाएं