बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक फिर चुप।
मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें
जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप।
पहाड़, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा के बरक्स
एक छोटा सा टिमटिमाता
मेरा भी शाश्वत छोटा सा चुप.।
गलत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप -
चलने के पहले एक बन्दूक का चुप
और बन्दूक जो कभी नहीं चली
इतनी शान्ति का
हमेशा की मेरी उम्मीद का चुप।
बरगद के विशाल एकान्त के नीचे
सम्हाल कर रखा हुआ
जलते दीये का चुप।
भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बच यह मेरा चुप,
अपनों के जुलूस में बोलूँ
कि बोलने को सम्हाल कर रखूँ का चुप।
कवि - विनोदकुमार शुक्ल
संकलन - कभी के बाद अभी
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2012
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