बहुत पहले की बात है. लोगों की एक जमात थी. उनका पेशा मवेशी पालना था. रोहिताश्व ऐसी ही एक जमात का आदमी था. उसके पिता का नाम हरिश्चंद्र था. रोहिताश्व का मतलब लाल घोड़ा होता है. हरि के माने भी घोड़ा है. शायद साईं जमात ही अपना परिचय घोड़ा कहकर देती थी.
ब्राह्मण बने इन्द्र ने रोहित को बार-बार नसीहत दी थी-काम में ही मंगल बसता है, सौन्दर्य रहता है. जो काम करता है, वही श्रेष्ठ है. काम से ही सुख मिलता है. इसलिए काम करो. जो काम करता है उसका शरीर और मन, दोनों बढ़ते हैं. मेहनत सारी कमियाँ दूर किए रहती है. इसलिए काम करो. काम करने से मधु, मीठे फल मिलते हैं. देखो, सूरज की रोशनी सदा चलती है, कभी नहीं सोती. इसलिए काम करो, काम करो.
लेकिन इन्द्र ने पहले ही कहा तह, काम की यह महत्ता उनकी सुनी हुई है. इससे यह पता चलता है कि इन्द्र स्वयं परिश्रम नहीं करते थे. बहुत संभव है, वे उस ज़माने के एक दास-प्रभु थे. खुद मेहनत करने के बजाय दासों से मेहनत कराके वे अपार संपत्ति के मालिक बन बैठे थे. रोहिताश्व को पाने के लिए वे बहुत दिनों से सत्तू बाँधकर पीछे पड़े थे, जैसा कि चाय बागान की कुलीगिरी और लड़ाई के सिपाही की भर्ती के लिए दलाल तरह-तरह से फुसलाते हैं. यह भी शायद वैसा ही था.
इन्द्र ने कहा था, चरैवेति, चरैवेति - काम करो, काम करो. लेकिन जो काम करेगा, वह अपनी मेहनत का पूरा फल पाएगा या नहीं, इस पर उन्होंने ख़ास कुछ नहीं कहा. दरअसल अगर काम का फल काम करने वालों को मिलता तो इन्द्र का वैसा महल बनकर नहीं खड़ा होता.
बात चाहे अच्छी ही हो, पर वह किसके लाभ के लिए कही गई है, यही देख लेना ज़रूरी है. आज जब कुछ लोग स्वयं आराम करते हुए देश के बाकी लोगों की गर्दन तोड़ने के लिए उपदेश दिया करते हैं, तो वह सत्य नहीं जँचता, जाली हो जाता है. उसमें छन्द नहीं फन्द है.
सम्पादक - देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय
पुस्तक - जानने की बातें, भाग 5 , साहित्य और संस्कृति
मूल - बांग्ला में प्रकाशित 'जानवर कथा' पुस्तकमाला का पंचम भाग
अनुवादक - हंसकुमार तिवारी
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006
प्रख्यात दार्शनिक देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने बच्चों में समय, समाज और प्रकृति को देखने-परखने की वैज्ञानिकी समझ तथा ज्ञान के विकास के लिए विभिन्न विषयों के आधिकारिक विद्वानों के सहयोग से ग्यारह खंडों में इस महत्त्वपूर्ण पुस्तकमाला का संकलन-संयोजन-संपादन किया है. यह किसी बाल विश्वकोश से कम नहीं. खुशी-खुशी लक्ष्य की ओर बढ़ना ही छन्द है - इस तरह से छन्द को परिभाषित करते हुए वे चलते-चलाते रोहित की जो कहानी सुनाते हैं, वह पेश है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें