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गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

हवाई चप्पल (Hawai chappal by Purwa Bharadwaj)

हवाई चप्पल गंदी हो गई है। किए जानेवाले कामों की सूची में उसे साफ़ करना भी है। मैं खुद को कई बार टोक चुकी हूँ, फिर भी यह काम बस टलता जा रहा है। पहले तो हवाई चप्पल साफ़ करने के लिए माँ को टोकना नहीं पड़ता था। हमलोग नहाते समय खुद पुराने ब्रश से रगड़-रगड़ कर उसे साफ़ कर लेते थे। जब हवाई चप्पल की सफ़ेदी फिर से उभरने लगती थी तो बड़ा उत्साह होता था। शायद उतना ही जितना दाँतों के चमचमाने से।

हाँ, आयोजन होता था उसका फीता लगाना। मुझे याद है कि हमलोग साबुन लगाकर फीता घुसाने की कोशिश करते थे। कलम या दतवन या कभी-कभी कैंची की मदद भी लेनी पड़ती थी। हवाई चप्पल की बनावट याद कीजिए। बिना एड़ी के सादी सी चप्पल। बीच में एक खूँटी और उसके अगल बगल दो फीते और तीनों के लिए चप्पल में तीन छेद। फीता अक्सर टूट जाता था (हालाँकि आज की तरह महीने भर में ही नहीं टूटता था)। टूटने पर फुटपाथ की दुकान से चप्पल के नंबर के हिसाब से मैचिंग फीता खरीदकर आता था। बीच के छेद  में फीता लगाना आसान होता था और ताकत व हुनर की परीक्षा होती थी चप्पल के किनारेवाले छेदों में डालने में। भैया भी जब हार जाता था तब माँ का अनुभव काम आता था ! सोचिए औरत के इस अनुभव की कहीं कोई गिनती है भला :)

इन दिनों हवाई चप्पल ही क्या, कोई भी चप्पल-जूता न टाँके लगवाकर पहनता है और न फीता बदलवाकर। अब सीधे नई चप्पल आ जाती है (यह प्रवृत्ति फोन, बैग, कपड़े से लेकर रिश्ते तक में झलकती है, मगर मैं इसे सीधे नकारात्मक अर्थ में नहीं देख रही हूँ)। मैंने अपनी हवाई चप्पल की मरम्मत की बात की तो बेटी से लेकर घर में मददगार लोगों ने तरस भरी निगाह से मुझे देखा और सलाह दी कि इसे कूड़े में डालो। मैं हैरान होती हूँ कि इतनी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ से अक्सर लोगों को मोह क्यों नहीं होता है !  

यदि जूते-चप्पलों के हज़ारों सालों के पूरे इतिहास को पलटकर देखा जाए तो ये धूल-काँटे, सर्दी-गर्मी, कीड़े-मकोड़े और न जाने किस किस बाधा और बीमारी से हमारी सुरक्षा करने का काम करते हैं। उस इतिहास के पड़ाव में काफी आगे जाकर हवाई चप्पल आती है। हवाई चप्पल की सबसे बड़ी ख़ासियत उसका आरामदेह और खुला-खुला होना है। चलते-फिरते जब जहाँ और जितनी बार चाहो खोलो-उतारो। झंझट नहीं है। आराम ही आराम है। फीता बाँधने का, बकलस लगाने का चक्कर नहीं है। रबर से बनाया ही इसलिए गया है ताकि पानी से विकार न आए। धोने में और धोकर सुखाने में भी आसानी। इससे नमी वाली जलवायुवालों को आसानी और दस-बार चप्पल खोलने की ज़रूरत की संस्कृतिवालों को आसानी :) 

भूगोल और संस्कृति का ख़याल रखनेवाली हवाई चप्पल सबसे अधिक आर्थिक स्थिति का ख़याल रखती है।मगर सस्तापन भी अजीब गुण है। यह लोकप्रियता का आधार है, ज़रूरत में ढलने का आधार है, मुनाफे का आधार है तो बिकने का कारण है, पसंद किए जाने का कारण है और फेंक दिए जाने का भी कारण है। इसीलिए हवाई चप्पल से बहुत कुछ जुड़ा है। हम सबके असबाब में यह मौजूद रहता है। उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और कामगार वर्ग सब इसका इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कहीं कहीं यह मुफ़लिसी का द्योतक भी बन जाता है। औकात बताने के लिए यह बयान कर दिया जाता है कि अमुक व्यक्ति हवाई चप्पल में था। फटीचर इंसान का खाका खींचिए तो हवाई चप्पल उसकी पहचान होगी। 

हवाई चप्पल में जो हवाई शब्द है वह हवाई द्वीप के लिए नहीं है। संभवतः यह उसके हवा के समान हल्के होने के कारण जुड़ा है। पहले जब छाल, खाल, लकड़ी और भारी चमड़े की चप्पलें होती थीं तो उनके मुकाबले हलके रबर से बनी यह चप्पल (वैसे फीता प्लास्टिक का भी होता है) वाकई हवा हवाई ही मालूम होगी। हवाई चप्पल पैर में डालो और हवा की तरह दौड़ लगा लो। किसी तैयारी या औपचारिकता की ज़रूरत नहीं। 

औपचारिकता के दायरे से निकालकर हवाई चप्पल आपको अनौपचारिकता के दायरे में ले जाती है। अनौपचारिक मौके से लेकर अनौपचारिक जगह तक। यह भी कहा जा सकता है कि यह सार्वजनिक और निजी का विभाजन  करती है। घर में, सोने के कमरे में, गुसलखाने में यह स्वीकार्य है। स्वीकार्य नहीं, अनिवार्य है। वहाँ हवाई चप्पल ही बेहतर है और आगे से बेटी के दहेज़ में इसे जोड़ देना चाहिए ! 

सार्वजनिक मौकों और जगहों पर हवाई चप्पल पहनना उचित नहीं है। फर्ज कीजिए आपके अधिकारी किसी उद्घाटन समारोह में हवाई चप्पल में चले आ रहे हों, तो उनके रुतबे को कोई नहीं देखेगा। चर्चा हवाई चप्पल की ही होगी। मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज़ आ जाएगा। इसी तरह लकदक बनारसी साड़ी के साथ कोई भद्र महिला हवाई चप्पलों में हो तो हर किसी की निगाह उसके पैरों पर ही जाएगी। किसी ने भी यह किया तो सामान्य तौर पर वह सभ्यता के खिलाफ ही माना जाएगा। सोचिए एक छोटी सी चप्पल पर भारी भरकम सभ्यता का बोझ भी आन पड़ा !

बनावट, रंग-रूप में हवाई चप्पल असभ्य भले न लगे, लेकिन उसकी चटर-चटर आवाज़ बहुतों के कानों को खटकती है। इसे फटफटिया चप्पल कहने में हिकारत का थोड़ा पुट साफ़ नज़र आता है। तब हम आवाज़ के स्रोत को नहीं देखते हैं, बल्कि आवाज़ को अच्छे-बुरे, कर्णप्रिय-अकर्णप्रिय में बाँट देते हैं।  कोई आवाज़ किसे कब कहाँ और क्यों बुरी लगती है, इसकी समाजशास्त्रीय विवेचना करने की फुरसत किस भलेमानस को है !  इतना कोई क्यों दिमाग खपाए कि हवाई चप्पल की इस आवाज़ को पैदा करने में हल्के होने के साथ इसको बनानेवाली सामग्री और धरातल के प्रकार का योगदान रहता है। इसके समानार्थी अंग्रेज़ी का Flip-Flop ही देखें जिसका नामकरण उसके तले के ज़मीन से टकराने पर जो आवाज़ होती है उसके आधार पर रखा गया है। 

आरामदेह होने के बावजूद माना जाता है कि हवाई चप्पल से एक तरह की बेतरतीबी झलकती है। अस्त-व्यस्तता और लापरवाही भी। मुझे याद है जब एक बार अपूर्व एक सम्मेलन (शायद PWA के या AISF के सम्मेलन) में हवाई चप्पल पहने हुए चले आए थे तो उनके बड़े भाई ने उनकी खबर ली थी। वे बोले कुछ नहीं थे, मगर पटना मेडिकल कॉलेज से चलकर पटना कॉलेज के मैदान में आकर उनका भाई की चप्पलों पर नज़र डालना भर काफी था। इतना भी क्या कि आंदोलन में लगे हुए हैं तो हवाई चप्पल चटकारते हुए घूमने का लाइसेंस मिल गया ! उसका तत्काल असर यह हुआ कि तुरत जूता खरीदवाया गया।  

मगर यह लाइसेंस कुछ लोग ले लेते हैं। लापरवाही आखिर बेफिक्री ही तो है ! कार्यकर्ताओं, धरना-जुलूस करनेवालों, नाटक-वाटक करनेवालों को भला इसका होश कहाँ रहता है कि उनके बाल कहाँ जा रहे हैं, कपड़ों की क्या दशा है या उनके पैरों में क्या है। उनकी प्राथमिकताएँ अलग हैं तो चप्पल जैसी तुच्छ चीज़ पर ध्यान कैसे जाएगा ? इसीलिए कवि-कथाकार भी आपको इस वेशभूषा में मिल जाएँगे। मुझे नागार्जुन नानाजी भी याद हैं। उनको याद करूँ तो समझ में आता है कि हवाई चप्पल हिप्पीपन, बोहेमियन रहन-सहन की पहचान के साथ मस्ती और फक्क्ड़पन की भी पहचान है। 

सादगी का प्रतीक भी है हवाई चप्पल, लेकिन उसके लिए जिसके पास संसाधन हैं। जो विकल्प रहते हुए भी इसे चुने। मतलब इसमें भी चुनाव मायने रखता है।  यदि कुछ है ही नहीं औरआप इसे चुनें तब तो यह साधनहीनता का प्रतीक होगा न  ?  लेकिन बात फिर इसकी होगी कि कौन कहाँ से देख रहा है। यह किसी के लिए संपत्ति का हिस्सा भी है। आपने सफर में ऐसी कई गठरियाँ देखी होंगी जिनमें से सँभाल कर रखी गई हवाई चप्पल झाँक रही होगी। 

मुझे सफ़ेद ज़मीन और नीले रंग के फीतेवाली हवाई चप्पल ही पसंद थी और पसंद है। आजकल जो फ़ैशन के नाम पर नीली-काली या लाल-गुलाबी चप्पल चलने लगी है वह मुझे नहीं चाहिए, लेकिन दुकानों से वह धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। बाज़ार की चमक-दमक के आगे उसके सादेपन का टिकना मुश्किल ही है। इसका अफ़सोस मनाते हुए मैं पिछले हफ्ते कही गई बाटा की दुकान के कर्मचारी की बात सोचने लगी। सफ़ेद और नीली हवाई चप्पल माँगने पर उसने सीधे कहा कि अब वह नहीं आ रही है और पब्लिक की पसंद बदल गई है। मैं सोचने पर मजबूर हुई कि क्या मैं पब्लिक नहीं हूँ !

हवाई चप्पल का ध्यान आते ही जो अगला शब्द ज़ेहन में आता है वह है बाटा।  दोनों एक दूसरे के पर्याय की तरह हैं। इस बाटा को मैं हिंदुस्तानी नाम समझती थी क्योंकि इतना अपना सा, परिचित सा है। छोटा और आसान है जिसमें जीभ ऐंठती नहीं है और हम सही सही उच्चारण कर पाते हैं। (वरना दक्षिण भारतीय या उत्तर पूर्व के नाम का उच्चारण करने में कितनी अटक आती है। स्थान विशेष ही नहीं, धर्म विशेष से जुड़े नाम भी हम बोल नहीं पाते हैं।) यह बाटा विदेशी मूल का है, जिसको ख़ारिज करने की माँग अभी तक नहीं उठी है। 1894 में चेकोस्लोवाकिया में जब तीन भाई-बहन - अन्ना बाटा, थॉमस बाटा और एंटनिन बाटा ने अपना कारोबार शुरू किया था तो उनको इसका गुमान नहीं रहा होगा कि दुनिया के किसी दूसरे छोर पर बसे गाँव-शहर में उनका नाम रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन जाएगा। उनका पूरा नाम नहीं, उपनाम बाटा ! यह अलग बात है कि अब घर-घर का नाम बन चुके इस बाटा में अन्ना बाटा का नाम भी शामिल है,  यह अधिकांश को मालूम नहीं है।  

यों बाटा तरह-तरह के जूते-चप्पल  बनाने की कंपनी है और अब तो बैग और बेल्ट से लेकर न जाने क्या-क्या बनाने लगी है, लेकिन शायद इसको मशहूर बनाने का श्रेय हवाई चप्पल को होगा। कम से कम उत्तर भारत के संदर्भ में मैं कह सकती हूँ ! आम लोगों की ज़रूरत, सहूलियत और जेब का ख़याल शुरू से बाटा ने किया। मुमकिन है कि एक सदी पहले उन्होंने बड़े पैमाने पर कामगार वर्ग के लोगों के लिए चमड़े और कपड़े का जो जूता Batovky बनाया उसकी लोकप्रियता ने हवाई चप्पल बनाना सुझाया होगा। पहले व दूसरे विश्वयुद्ध के हालात ने भी उनको जूते-चप्पलों की दुनिया में तब्दीली लाने का जो मौका दिया, शायद उस दौरान यह बना होगा। या कौन जाने पुआल या तरह-तरह के रेशों से बने जापानी ज़ोरी से हवाई चप्पल की दास्तान जुड़ी है ? या फिर देश-विदेश में जड़ तलाशने के बजाय अपने यहाँ की खड़ाऊँ (पादुका) का ही विकसित रूप इसे क्यों न मानें ? उससे पवित्रता और प्राचीनता दोनों का खोल भी चढ़ जाएगा ! वैसे यह दिलचस्प शोध का विषय है। 

हवाई चप्पल की बात से उससे होनेवाली पिटाई का याद आना स्वाभाविक है। इसका लचीलापन वहाँ काम आता है। सट से लगने पर अच्छी खासी चोट लगती है ! बच्चों और बीवी की पिटाई के लिए सबसे सहज सुलभ हथियार रहा है यह। कवि सम्मेलनों में बोर करनेवाले कवियों और सभाओं में झूठे वादे करनेवाले नेताओं पर इसको आजमाने की खबर बीच-बीच में आती रहती है। हल्की होती है तो निशाना दूर-दूर तक लगाया जा सकता है। इन दिनों भक्तों की हवाई चप्पल का नया निशाना बन गए हैं बाबा लोग। चोरी-चकारी या छेड़-छाड़ में रँगे हाथ पकड़ानेवाले अपराधी भी इसे झेलते रहते हैं। सड़क छाप मजनुओं और शोहदों के लिए हवाई चप्पल की मार सबक तो नहीं है, मगर उसको लगानेवाली लड़की के विरोध करने की हिम्मत ज़रूर बढ़ती है ! 







1 टिप्पणी:

  1. आपका लेख पढा और पुराने दिनो की यादें ताजा हो आई।
    जिस नीली सफेद हवाई चप्पल की आपने बात की है, वह अभी भी आसानी से उपलब्ध है। बाटा में अब भी वही हवाई चप्पल मिलती है। बस बाटा ने हवाई नाम का ब्रांड एक ब्रा जिल कम्पनी को बेच दिया है। रिलैक्सो में भी यही हवाई चप्पल मिलती है। शायद नए दौर के फैशन या हवाई चप्पल से जुडी फेटिश की वजह से इनकी लोकप्रियता में कमी आई है।
    जो भी हो, अगली बार अगर आपको हवाई चप्पल मिले तो बताइयेगा जरूर।

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