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रविवार, 31 दिसंबर 2023
आख़िरी ट्रेन रुक गई है (Mahmoud Darwish translated into Hindi)
आख़िरी ट्रेन आख़िरी प्लेटफ़ॉर्म पर रुक गई है। वहाँ कोई नहीं है
गुलाबों को बचाने के लिए, कोई कबूतर नहीं शब्दों से तामीर की गई औरत पर उतरने के लिए।
वक्त ख़त्म हो चुका है। गाना बेहतर नहीं है झाग के मुक़ाबले।
हमारी ट्रेनों पर भरोसा मत करो, प्यारे। भीड़ में किसी का भी इंतज़ार मत करो।
आख़िरी ट्रेन रुक गई है आख़िरी प्लेटफ़ॉर्म पर। लेकिन कोई भी
नारसीसस की छाया नहीं डाल सकता वापस रात के आईनों में।
मैं कहाँ लिख सकता हूँ देह के अवतार का अपना सबसे ताज़ा वृत्तांत?
यह अंत है उसका जिसका अंत होना ही था। वह कहाँ है जिसका अंत होता है?
मैं कहाँ ख़ुद को अपनी देह में अपने वतन से आज़ाद कर सकता हूँ?
हमारी ट्रेनों पर भरोसा मत करो, प्यारे! आख़िरी कबूतर उड़ गया है।
आख़िरी ट्रेन आख़िरी प्लेटफार्म पर रुक गई है। और वहाँ कोई नहीं था।
फ़िलिस्तीनी कवि : ग़स्सान ज़क़तान
अरबी से अंग्रेज़ी: मुनुर अकाश और कैरोलिन फ़ॉश
हिंदी में : अपूर्वानंद
संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं
प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023
शनिवार, 30 दिसंबर 2023
रूमाल (Ghassan Zaqtan translated into Hindi)
हमारे बीच कहने को कुछ न बचा
सब उस ट्रेन में चला गया जिसने अपनी सीटी
उस धुएँ में छुपा ली जो बादल न बन सका
उस चले जाने में जिसने तुम्हारे हाथ पाँव बटोरा किए
कुछ भी नहीं बचा कहने को हमारे बीच
इसलिए रहने देते हैं तुम्हारी मौत को
चमकती चाँदी की गहरी कौंध
और रहने देते हैं उन शहरों के सूरज को
तुम्हारे कंधों पर रखे गुलाब
के अक्स में।
फ़िलिस्तीनी कवि : ग़स्सान ज़क़तान
अरबी से अंग्रेज़ी: फ़ादी जूदा
हिंदी में : निधीश त्यागी
संकलन : कविता का काम आँसू पोंछना नहीं
प्रकाशन : जिल्द बुक्स, दिल्ली, 2023
गुरुवार, 28 दिसंबर 2023
कविता का काम आँसू पोंछना नहीं है ('It is not poetry’s job to wipe away tears by Zakaria Mohammed Translated into Hindi)
वह रो रहा था, इसलिए उसे सँभालने के लिए मैंने उसका हाथ थामा और आँसू पोंछने के लिए
मैंने उसे कहा जब दुख से मेरा गला रुँध रहा था: मैं तुमसे वादा करता हूँ कि इंसाफ़
जीतेगा आख़िरकार, और अमन जल्दी ही क़ायम होगा।
ज़ाहिर है मैं उससे झूठ बोल रहा था। मुझे पता था कि इंसाफ़ नहीं मिलने वाला
और अमन जल्द नहीं आने वाला, पर मुझे उसके आँसू रोकने थे।
मेरी यह समझ ग़लत थी कि अगर हम किसी चमत्कार से
आँसुओं की नदी को रोक लें, तो सब कुछ ठीक ठाक तरह से चल निकलेगा।
फिर चीज़ों को हम वैसे ही मान लेंगे जैसी वे हैं। क्रूरता और इंसाफ़ एक साथ मैदान में
घास चरेंगे, ईश्वर शैतान का भाई निकलेगा, और शिकार हत्यारे का प्रेमी होगा।
पर आँसू रोकने का कोई तरीक़ा नहीं है। वे बाढ़ की तरह लगातार बहे जाते हैं और अमन की
रवायतों को तबाह कर देते हैं।
और इसलिए, आँसुओं की इस कसैली ज़िद की ख़ातिर, आइए, आँखों का अभिषेक करें
इस धरती के सबसे पवित्र संत के रूप में।
कविता का काम नहीं है आँसू पोंछना।
कविता को खाई खोदनी चाहिए जिसका बाँध वे तोड़ दें और इस ब्रह्मांड को डुबा दें।
फ़िलिस्तीनी कवि : ज़करिया मोहम्मद
अरबी से अंग्रेज़ी : लीना तुफ़्फ़ाहा
हिंदी अनुवाद : निधीश त्यागी और अपूर्वानंद
संकलन : कविता काम आँसू पोंछना नहीं
प्रकाशन : जिल्द प्रकाशन, दिल्ली, 2023
भजन (Mahmoud Darwish translated into Hindi)
जिस दिन मेरी कविताएँ मिट्टी से बनी थीं
मैं अनाज का दोस्त था।
जब मेरी कविताएँ शहद हो गईं
मक्खियाँ बस गईं
मेरे होठों पर।
फ़िलिस्तीनी कवि : महमूद दरवेश
अरबी से अंग्रेज़ी: अब्दुल्लाह अल-उज़री
हिंदी अनुवाद : अशोक वाजपेयी
संकलन : 'कविता का काम आँसू पोंछना नहीं' में मूल मॉडर्न पोइट्री ऑफ़ द अरब वर्ल्ड, पेंगुइन बुक्स, 1986 से
प्रकाशन - जिल्द बुक्स, 2023
सोमवार, 25 दिसंबर 2023
अधूरे ड्राफ्ट (पूर्वा भारद्वाज)
दिलचस्प यह लगा कि अभी फ़िलिस्तीनी कविताओं के अनुवाद के संकलन पर काम करते हुए साल बीत रहा है और 2023 की शुरुआत में ब्लॉग के ड्राफ्ट में फ़िलिस्तीनी कवि नाजवान दरवेश की कविता सहेजी हुई है। इसका हिन्दी में अनुवाद करके अपूर्वानंद ने 4 जनवरी की शाम सवा चार बजे मुझे भेजा था। उस दिन मुझे बुखार था और मैं अरबी से जो अंग्रेज़ी अनुवाद था उससे हिन्दी अनुवाद का मिलान नहीं कर पाई थी। इसलिए कविता ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं कर पाई। और उसी रात अम्मी के जाने की खबर ने तो कितना कुछ उल्टा पलटा कर दिया था! आज नाजवान दरवेश की वह कविता सामने ला रही हूँ -
4.1.23
कोई मुल्क नहीं मुझे लौटने को
और कोई मुल्क नहीं जिससे जलावतनी हो
एक दरख़्त जिसकी जड़ें हैं
बहता दरिया
वह मर जाए अगर रुके
वह मर जाए अगर न रुके।
गालों और बाँहों पर मौत के
मैंने ज़िंदगी के सबसे अच्छे दिन गुज़ारे
और जो ज़मीन मैंने खोई हर रोज़
उसे हासिल किया रोज़ नए सिरे से
लोगों के एक मुल्क हैं
लेकिन मेरा ढेरों में बदल गया अपने न होने में
ख़ुद को नया किया ग़ैरमौजूदगी में
इसकी जड़ें
मेरी तरह
पानी हैं
यह सूख जाएगा अगर थम जाए
मर जाएगा अगर थम जाए।
हम दोनों दौड़ रहे हैं
सूर्यकिरणों के स्तंभ की नदी के साथ
एक नदी सोने के बुरादोंवाली
जो उठती है प्राचीन ज़ख्मों से
और हम कभी नहीं रुकते
हम चलते रहते हैं
कभी न सोचते हुए रुकने को
ताकि हमारे दो रास्ते मिल सकें।
मेरा कोई मुल्क नहीं जिससे जलावतनी हो
कोई मुल्क नहीं लौटने को
मैं मर जाऊँगा अगर मैं रुकता हूँ
मैं मर जाऊँगा अगर मैं चलता रहा।
29.4.23
लिखना अक्सर
बहुत मुश्किल काम लगता है. क्यों ?
आज मुझे लेखन की कार्यशाला में लड़कियों के साथ काम करते हुए एक नया
अनुभव हुआ. ये लड़कियाँ कम उम्र की हैं, किशोरी हैं और लिखना सीखने को बेताब हैं. उन्होंने
औपचारिक शिक्षा हिचकोले खाते हुए ली है, मगर कहीं कहीं
अच्छे अच्छे लिक्खाड़ को मात देनेवाली हैं.
उन लड़कियों के साथ मैं तरह तरह की गतिविधियाँ करा रही थी. वैसी ही
एक गतिविधि के दौरान मुझे लगा कि दरअसल लेखन को पारदर्शी होना चाहिए और मुश्किल
वहीं आती है. हम पर्दादारी चाहते हैं. हम चाहते हैं कि कोई हमारे लिखे से हमारे
अंदर न प्रवेश कर जाए. हम सामनेवाले को करीब तो लाना चाहते हैं, मगर खुद अपने चारों तरफ लक्ष्मण रेखा खींचते हुए चलते हैं. एक सीमा के बाद
कोई हमारे भीतर न झाँकने पाए. इस कशमकश के बीच लेखन चलता है. ऐसा मुझे लगता है कि
कम से कम स्त्री लेखन तो ज़रूर.
हम क्या लिखें, किसके बारे में लिखें, कब लिखें, कैसे लिखें और कितना लिखें - इसकी
आज़ादी तो नहीं है. ऊपर से लिखें ही क्यों - यह सबसे बड़ा सवाल है. स्त्री लेखन को
लेकर जितनी बातें होती हैं उनमें ज़्यादातर इन आपत्तियों के इर्द गिर्द घूमती हैं.
उनकी बेबाकी समाज को जल्दी हजम नहीं होती. इस वजह से स्त्रियाँ प्रायः खुद को
नियंत्रित करती रहती हैं. घर-परिवार वगैरह से बाहरी नियंत्रण उसके बाद आता है.
अभी गाँधी को स्त्री लेखन के माध्यम से पेश करने के लिए जब मैं स्क्रिप्ट पर काम कर रही थी तो महादेवी वर्मा की रचना 'पुण्य स्मरण' को मैंने कई दफ़ा पढ़ा. उसके शीर्षक पर बार-बार ध्यान जाता रहा. गाँधी को याद करते हुए उनके गुणों और कर्मों की असाधारणता पर सबका ध्यान जाता है. उनका धुर विरोधी भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। और ध्यान में आता है गाँधी का शरीर। महादेवी के शब्दों में उनकी ठुड्ढी, उनके होंठ, उनकी आँखें, उनके बड़े कान, उनका माथा, उनकी पिंडली …
6.5.22
चिढ़ क्या एक भाव है ? या भावों की शृंखला है ? या सबका घोल ?
आज मैं रोई। फूट-फूट कर नहीं। चुपचाप भी नहीं। अकेले में भी नहीं। वजह साफ होते हुए भी बहुत देर तक अपने से सवाल करती रही कि आखिर इतना भी क्या है ! एक बात मन की नहीं हुई, एक योजना पूरी नहीं हुई, रुटीन में एक बदलाव आया, एक दिन अस्त-व्यस्त हुआ। बस ! इतना चिढ़ना क्यों !
फिर सोचने लगी कि मैं जो चिढ़ रही हूँ, उसमें क्या क्या है। उसमें छटपटाहट थी, तकलीफ थी, बेचारगी थी, अफ़सोस था, गुस्सा था, हताशा थी, स्मृति का दंश था, निर्भरता थी, अकेलापन था, थकान भी थी। लगने लगा कि क्या मैं दिमागी रूप से अस्थिर हूँ या एकदम नासमझ।
3.8.19
नूह. हरियाणा का एक ज़िला और मेवात का हिस्सा. एक पैगंबर का नाम. उलझा हुआ इतिहास और वर्तमान भी. पिछड़ेपन के साथ खतरनाक होने का भी ठप्पा.
और इन सबके बीच नूह की कार्यशाला में मौजूद कुछ आँखों की चमक मुझे बार-बार परेशान कर रही है. पहली जोड़ी
2.3.19
मैं जब न तब शब्दों के जाल में फँस जाती हूँ। पिछले कई दिनों से जो एक शब्द दिमाग में घूम रहा है वह है बित्ता। समझा ? वही बित्ता जिससे हम और आप अक्सर चीज़ों को नापते रहते हैं। जब हाथ की पाँचों उँगलियों को तानकर फैलाओ तो अँगूठे के ऊपरी छोर से लेकर कानी उँगली के अंतिम छोर तक की लंबाई। यह किसी अनपढ़ का नाप नहीं है, औपचारिक शिक्षा हासिल करने में सफल व्यक्ति के लिए भी बित्ता सहज सुलभ नाप है।चलता-फिरता इंची टेप ! भले सबके हाथ का आकार-प्रकार एक न हो, मगर बित्ते से नापने का चलन है।
हाल ही में अपनी रसोई के लिए काठ की आलमारी खरीदने मैं गई थी। दुकान पर पहुँचते ही नाप का अंदाज होने का गुमान तुरत गायब हो गया। घर पर फोन मिलाया और बेटी को हाथ वाले गज (कोहनी से लेकर उँगलियों के छोर तक) से रसोई में अलमारी रखने की संभावित जगह नापने को मैंने कहा। फिर तुरत लगा कि बित्ता बेहतर नाप होता। बित्ते
21.4 17
सैर के जूते …
17.1.16
"आज रंग है ऐ माँ. रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री" कव्वाली के बोल याद आ रहे हैं। अमीर खुसरो की यह रचना 'रंग' नाम से प्रसिद्ध है। -
18.6.14
वह अपनी आँखों में लिए फिरता है
एक मोती; और दिनों के आखिरी सिरे से
और हवाओं से वह लेता है
एक चिंगारी; और अपने हाथ से,
बारिश के जजीरों से
एक पहाड़, और रचता है भोर.
मैं उसे जानता हूँ-वह अपनी आँखों में लिए फिरता है
समुन्दरों की भविष्यवाणी
उसने बताया मुझे इतिहास और कविता
जो किसी जगह को पाक करती है.
मैं उसे जानता हूँ-उसने बताया मुझे सैलाब
अब रुकती हूँ। नींद आ रही है। आज इसे ब्लॉग पर प्रकाशित कर ही दूँ, वरना यह भी अधूरा ड्राफ्ट न बन जाए। वैसे अधूरापन इतना बुरा भी नहीं ! सच्चाई है। बस उसके कारणों की पड़ताल में फँसो तो उलझन होने लगती है। (फिर अम्मी वाला शब्द उलझन!) व्यर्थता का अहसास, असंतोष, खीझ, झल्लाहट, अवसाद और भी बहुत कुछ डराने लगता है। अपूर्व को इस अधूरेपन से बिना उत्तेजना के निपटते देखती हूँ तो ईर्ष्या होती है। उनके ईमेल में सैंकड़ों ड्राफ्ट पड़े हैं - लेख की शुरुआत के, चिट्ठी के मजमून के, पैम्फ्लेट या माँगपत्र के, गुस्से के इज़हार के, प्यार के भी दो बोल ! व्यक्तिगत बात तो वे शायद ही किसी से साझा करते हैं और ऐसे में अधूरे ड्राफ्ट उनके लिए संभवतः राहत हों।
मुमकिन है कि हमारी बेटी के रजिस्टर, डायरी के पन्ने, स्केच बुक वगैरह पर दर्ज अधूरी शब्दाकृतियाँ - आकृतियाँ भी रास्ता खोलती हों, जिनके लिए मैं हमेशा चिंतित रही। 2013 में जब विनोद रैना गए थे तो उसने एक कविता लिखी थी, अंग्रेज़ी में। बहुत दिनों बाद उसने अपने बाबा को पढ़ाई थी। मैं आज तक प्रतीक्षारत हूँ क्योंकि उसने कहा था कि कविता पूरी करके पढ़ाएगी। वैसे वह बहाना था, उसे मुझे टालना था। यानी अधूरापन वैधता भी प्राप्त करता है - रोशनी में न लाने का वैध कारण ठहरता है। जैसे अदालत के फ़ैसले का अधूरा ड्राफ्ट या अधूरा प्रेमपत्र।
अभी मेरे लैपटॉप की स्क्रीन पर आकाशगंगा का चित्र है। इसके पहले कुछ और था। आज जब मैंने लैपटॉप खोला तो इस चमचमाते चित्र को देखकर मूड बन गया और अपने अधूरेपन से भी किंचित् मोहग्रस्त हो गई।
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