दिलचस्प यह लगा कि अभी फ़िलिस्तीनी कविताओं के अनुवाद के संकलन पर काम करते हुए साल बीत रहा है और 2023 की शुरुआत में ब्लॉग के ड्राफ्ट में फ़िलिस्तीनी कवि नाजवान दरवेश की कविता सहेजी हुई है। इसका हिन्दी में अनुवाद करके अपूर्वानंद ने 4 जनवरी की शाम सवा चार बजे मुझे भेजा था। उस दिन मुझे बुखार था और मैं अरबी से जो अंग्रेज़ी अनुवाद था उससे हिन्दी अनुवाद का मिलान नहीं कर पाई थी। इसलिए कविता ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं कर पाई। और उसी रात अम्मी के जाने की खबर ने तो कितना कुछ उल्टा पलटा कर दिया था! आज नाजवान दरवेश की वह कविता सामने ला रही हूँ -
4.1.23
कोई मुल्क नहीं मुझे लौटने को
और कोई मुल्क नहीं जिससे जलावतनी हो
एक दरख़्त जिसकी जड़ें हैं
बहता दरिया
वह मर जाए अगर रुके
वह मर जाए अगर न रुके।
गालों और बाँहों पर मौत के
मैंने ज़िंदगी के सबसे अच्छे दिन गुज़ारे
और जो ज़मीन मैंने खोई हर रोज़
उसे हासिल किया रोज़ नए सिरे से
लोगों के एक मुल्क हैं
लेकिन मेरा ढेरों में बदल गया अपने न होने में
ख़ुद को नया किया ग़ैरमौजूदगी में
इसकी जड़ें
मेरी तरह
पानी हैं
यह सूख जाएगा अगर थम जाए
मर जाएगा अगर थम जाए।
हम दोनों दौड़ रहे हैं
सूर्यकिरणों के स्तंभ की नदी के साथ
एक नदी सोने के बुरादोंवाली
जो उठती है प्राचीन ज़ख्मों से
और हम कभी नहीं रुकते
हम चलते रहते हैं
कभी न सोचते हुए रुकने को
ताकि हमारे दो रास्ते मिल सकें।
मेरा कोई मुल्क नहीं जिससे जलावतनी हो
कोई मुल्क नहीं लौटने को
मैं मर जाऊँगा अगर मैं रुकता हूँ
मैं मर जाऊँगा अगर मैं चलता रहा।
29.4.23
लिखना अक्सर
बहुत मुश्किल काम लगता है. क्यों ?
आज मुझे लेखन की कार्यशाला में लड़कियों के साथ काम करते हुए एक नया
अनुभव हुआ. ये लड़कियाँ कम उम्र की हैं, किशोरी हैं और लिखना सीखने को बेताब हैं. उन्होंने
औपचारिक शिक्षा हिचकोले खाते हुए ली है, मगर कहीं कहीं
अच्छे अच्छे लिक्खाड़ को मात देनेवाली हैं.
उन लड़कियों के साथ मैं तरह तरह की गतिविधियाँ करा रही थी. वैसी ही
एक गतिविधि के दौरान मुझे लगा कि दरअसल लेखन को पारदर्शी होना चाहिए और मुश्किल
वहीं आती है. हम पर्दादारी चाहते हैं. हम चाहते हैं कि कोई हमारे लिखे से हमारे
अंदर न प्रवेश कर जाए. हम सामनेवाले को करीब तो लाना चाहते हैं, मगर खुद अपने चारों तरफ लक्ष्मण रेखा खींचते हुए चलते हैं. एक सीमा के बाद
कोई हमारे भीतर न झाँकने पाए. इस कशमकश के बीच लेखन चलता है. ऐसा मुझे लगता है कि
कम से कम स्त्री लेखन तो ज़रूर.
हम क्या लिखें, किसके बारे में लिखें, कब लिखें, कैसे लिखें और कितना लिखें - इसकी
आज़ादी तो नहीं है. ऊपर से लिखें ही क्यों - यह सबसे बड़ा सवाल है. स्त्री लेखन को
लेकर जितनी बातें होती हैं उनमें ज़्यादातर इन आपत्तियों के इर्द गिर्द घूमती हैं.
उनकी बेबाकी समाज को जल्दी हजम नहीं होती. इस वजह से स्त्रियाँ प्रायः खुद को
नियंत्रित करती रहती हैं. घर-परिवार वगैरह से बाहरी नियंत्रण उसके बाद आता है.
अभी गाँधी को स्त्री लेखन के माध्यम से पेश करने के लिए जब मैं स्क्रिप्ट पर काम कर रही थी तो महादेवी वर्मा की रचना 'पुण्य स्मरण' को मैंने कई दफ़ा पढ़ा. उसके शीर्षक पर बार-बार ध्यान जाता रहा. गाँधी को याद करते हुए उनके गुणों और कर्मों की असाधारणता पर सबका ध्यान जाता है. उनका धुर विरोधी भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। और ध्यान में आता है गाँधी का शरीर। महादेवी के शब्दों में उनकी ठुड्ढी, उनके होंठ, उनकी आँखें, उनके बड़े कान, उनका माथा, उनकी पिंडली …
6.5.22
चिढ़ क्या एक भाव है ? या भावों की शृंखला है ? या सबका घोल ?
आज मैं रोई। फूट-फूट कर नहीं। चुपचाप भी नहीं। अकेले में भी नहीं। वजह साफ होते हुए भी बहुत देर तक अपने से सवाल करती रही कि आखिर इतना भी क्या है ! एक बात मन की नहीं हुई, एक योजना पूरी नहीं हुई, रुटीन में एक बदलाव आया, एक दिन अस्त-व्यस्त हुआ। बस ! इतना चिढ़ना क्यों !
फिर सोचने लगी कि मैं जो चिढ़ रही हूँ, उसमें क्या क्या है। उसमें छटपटाहट थी, तकलीफ थी, बेचारगी थी, अफ़सोस था, गुस्सा था, हताशा थी, स्मृति का दंश था, निर्भरता थी, अकेलापन था, थकान भी थी। लगने लगा कि क्या मैं दिमागी रूप से अस्थिर हूँ या एकदम नासमझ।
3.8.19
नूह. हरियाणा का एक ज़िला और मेवात का हिस्सा. एक पैगंबर का नाम. उलझा हुआ इतिहास और वर्तमान भी. पिछड़ेपन के साथ खतरनाक होने का भी ठप्पा.
और इन सबके बीच नूह की कार्यशाला में मौजूद कुछ आँखों की चमक मुझे बार-बार परेशान कर रही है. पहली जोड़ी
2.3.19
मैं जब न तब शब्दों के जाल में फँस जाती हूँ। पिछले कई दिनों से जो एक शब्द दिमाग में घूम रहा है वह है बित्ता। समझा ? वही बित्ता जिससे हम और आप अक्सर चीज़ों को नापते रहते हैं। जब हाथ की पाँचों उँगलियों को तानकर फैलाओ तो अँगूठे के ऊपरी छोर से लेकर कानी उँगली के अंतिम छोर तक की लंबाई। यह किसी अनपढ़ का नाप नहीं है, औपचारिक शिक्षा हासिल करने में सफल व्यक्ति के लिए भी बित्ता सहज सुलभ नाप है।चलता-फिरता इंची टेप ! भले सबके हाथ का आकार-प्रकार एक न हो, मगर बित्ते से नापने का चलन है।
हाल ही में अपनी रसोई के लिए काठ की आलमारी खरीदने मैं गई थी। दुकान पर पहुँचते ही नाप का अंदाज होने का गुमान तुरत गायब हो गया। घर पर फोन मिलाया और बेटी को हाथ वाले गज (कोहनी से लेकर उँगलियों के छोर तक) से रसोई में अलमारी रखने की संभावित जगह नापने को मैंने कहा। फिर तुरत लगा कि बित्ता बेहतर नाप होता। बित्ते
21.4 17
सैर के जूते …
17.1.16
"आज रंग है ऐ माँ. रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री" कव्वाली के बोल याद आ रहे हैं। अमीर खुसरो की यह रचना 'रंग' नाम से प्रसिद्ध है। -
18.6.14
वह अपनी आँखों में लिए फिरता है
एक मोती; और दिनों के आखिरी सिरे से
और हवाओं से वह लेता है
एक चिंगारी; और अपने हाथ से,
बारिश के जजीरों से
एक पहाड़, और रचता है भोर.
मैं उसे जानता हूँ-वह अपनी आँखों में लिए फिरता है
समुन्दरों की भविष्यवाणी
उसने बताया मुझे इतिहास और कविता
जो किसी जगह को पाक करती है.
मैं उसे जानता हूँ-उसने बताया मुझे सैलाब
अब रुकती हूँ। नींद आ रही है। आज इसे ब्लॉग पर प्रकाशित कर ही दूँ, वरना यह भी अधूरा ड्राफ्ट न बन जाए। वैसे अधूरापन इतना बुरा भी नहीं ! सच्चाई है। बस उसके कारणों की पड़ताल में फँसो तो उलझन होने लगती है। (फिर अम्मी वाला शब्द उलझन!) व्यर्थता का अहसास, असंतोष, खीझ, झल्लाहट, अवसाद और भी बहुत कुछ डराने लगता है। अपूर्व को इस अधूरेपन से बिना उत्तेजना के निपटते देखती हूँ तो ईर्ष्या होती है। उनके ईमेल में सैंकड़ों ड्राफ्ट पड़े हैं - लेख की शुरुआत के, चिट्ठी के मजमून के, पैम्फ्लेट या माँगपत्र के, गुस्से के इज़हार के, प्यार के भी दो बोल ! व्यक्तिगत बात तो वे शायद ही किसी से साझा करते हैं और ऐसे में अधूरे ड्राफ्ट उनके लिए संभवतः राहत हों।
मुमकिन है कि हमारी बेटी के रजिस्टर, डायरी के पन्ने, स्केच बुक वगैरह पर दर्ज अधूरी शब्दाकृतियाँ - आकृतियाँ भी रास्ता खोलती हों, जिनके लिए मैं हमेशा चिंतित रही। 2013 में जब विनोद रैना गए थे तो उसने एक कविता लिखी थी, अंग्रेज़ी में। बहुत दिनों बाद उसने अपने बाबा को पढ़ाई थी। मैं आज तक प्रतीक्षारत हूँ क्योंकि उसने कहा था कि कविता पूरी करके पढ़ाएगी। वैसे वह बहाना था, उसे मुझे टालना था। यानी अधूरापन वैधता भी प्राप्त करता है - रोशनी में न लाने का वैध कारण ठहरता है। जैसे अदालत के फ़ैसले का अधूरा ड्राफ्ट या अधूरा प्रेमपत्र।
अभी मेरे लैपटॉप की स्क्रीन पर आकाशगंगा का चित्र है। इसके पहले कुछ और था। आज जब मैंने लैपटॉप खोला तो इस चमचमाते चित्र को देखकर मूड बन गया और अपने अधूरेपन से भी किंचित् मोहग्रस्त हो गई।
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