आज चाँद ने खुश-खुश झाँका,
काल-कोठरी के जँगले से ;
गोया मुझसे पूछा हँसकर
कैसे बैठे हो पगले-से ?
कैसे ? बैठा हूँ मैं ऐसे -
कि मैं बंद हूँ गगन-विहारी ;
पागल-सा हूँ ? तो फिर ? यह तो
कह कर हारी दुनिया बेचारी ;
मियाँ चाँद, गर मैं पागल हूँ -
तो तू है पगलों का राजा ;
मेरी तेरी खूब छनेगी,
आ जँगले के भीतर आ जा ;
लेकिन तू भी यार फँसा है -
इस चक्कर के गन्नाटे में ;
इसीलिए तू मारा-मारा -
फिरता है इस सन्नाटे में ;
अमाँ, चकरघिन्नी फिरने का -
यह भी है कोई मौजूँ छिन ?
गर मंजूर घूमना ही है,
तो तू जरा निकलने दे दिन ;
यह सुन वह आदाब बजाता -
खिसक गया डंडे के नीचे ;
और कोठरी में 'नवीन' जी
लगे सोचने आँखें मीचे.
- 1933
कवि - बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
संग्रह - पदचिह्न
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - दानिश बुक्स, दिल्ली, 2006
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