किराये का घर रूखी ज़मीन की तरह है, जड़ें जमाने में
बहुतेरी गर्मियाँ, बरसातें और जाड़े लग जाते हैं.
सोच रहा हूँ कविता के हिस्से में कौन सा कमरा आयेगा,
मन को किधर बिखेरूँगा, पूरब में या पश्चिम में.
यहाँ उत्तर की तरफ खुला है, फिर भी फाल्गुन की रिमझिम में
मन और हवा गन्ध की बहार से डोल उठते हैं,
झरझराता नीम टुनटुन चिड़िया का महीन गला खोल देता है,
घुग्घू और बुलबुल झुण्डों में 'दाना चुगने आते हैं'
तोते परम सुख से तीती निबौरियाँ ओठों में धर कर
खाते हैं और चुपचाप सोचते रहते हैं
इन के अलावा शालिक हैं, कौए हैं, कितने ही दुलार से
और पक्षियों को देखो, ये बराबर चीखते रहेंगे.
किराये का घर है रूखी ज़मीन, ऊसर, भूदान की तरह,
भोगने बसने के योग्य नहीं, पर उसे पाने में भी झंझट,
दलाली सलामी वगैरह की माँगों से परेशान मैं फिलहाल
उत्तर के कमरे में आ जाता हूँ, निर्विकार नीम फूलों से लदा है.
कवि - विष्णु दे
अनुवादक - डा. भारतभूषण अग्रवाल
संग्रह - स्मृति सत्ता भविष्यत्
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली,
पहला संस्करण - 1972
वाह जी वाह, हमारी स्मृतियां तो इन्हीं तमाम घरों में रची-बसी हैं।
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