5 दिनों
के आवासीय कोर्स के बाद आज जब घर आई तो सीढ़ी चढ़ना भी मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। यह आवासीय
कोर्स दिल्ली में ही आयोजित था, लेकिन मैं सुबह-शाम आना-जाना कर रही थी। हर दिन
चुस्ती से बीता और मैं उदासी को पीछे ढकेलने में कामयाब रही। शायद आज अपने आपको
बाँधे रखने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई, तभी तो टैक्सी में आते-आते भी मैं निढाल हो गई।
गला सूख रहा था। लगा कि ग्लूकोज़ का स्तर घट गया हो, परंतु उसकी आशंका को मैंने परे धकेल
दिया। आज दिन के खाने में एक गुलाब जामुन खा चुकी थी। नाश्ता-खाना भी समय पर हुआ
था। तब भी पाँव झनझना रहा था। घर घुसते ही मैंने पानी पिया। लेटने जाने के पहले
एसी का स्विच जलाने मैं झुकी और दीवार के उस कोने से प्रिंगल की गंध उठी। यह वही
कोना था जहाँ उसकी साँस टूटी थी। बिस्तर तक आते आते मैं भहरा गई।
रुलाई रोके नहीं रुकी। कितनी चीज़ें चक्कर खा रही
थीं दिमाग में। 30 तारीख
गुज़री है कल जो पापा के घर से विदा होने की तारीख के रूप में दिमाग पर छप चुकी है।
दो दिन बाद उनका जन्मदिन है और मैं पटना जा नहीं रही हूँ। उनकी गैरहाज़िरी में माँ
के साथ रहने का मन जो करता था अब उसका कोई मतलब नहीं। माँ पापा के पास है, यह मानना चाहती
हूँ, लेकिन
कमबख्त अपने दिमाग का क्या करूँ जो कहता है कि इस जीवन के बाद कुछ नहीं है। काश
दिमाग को ताखे पर रखना मुमकिन होता ! मन की चलती ! माँ-पापा के साथ प्रिंगल होती!
उनका दिल बहलता प्रिंगल से और प्रिंगल को उनसे भरपूर दुलार मिलता!
बेटी दावे से कहती थी कि नानी तो पक्का प्रिंगल
को गोद में ले लेगी और वह दुम हिलाते हुए, नाक से टहोका मारकर उनको अपने को प्यार करने
पर मज़बूर कर देगी। वह भौंकेगी या झपटेगी, इसका खतरा नहीं था। उसकी भूँक कभी आक्रामक
नहीं थी। पहली बार प्रिंगल चंडीगढ़ गई थी और अम्मी की कुर्सी के नीचे जाकर
बैठी थी तो अम्मी ने प्यार से कहा कि इसे बिस्कुट दे दो। जबकि हमें लग रहा था कि पूजा-पाठ
करनेवाली अम्मी कहीं प्रिंगल की मौजूदगी या उसके स्पर्श से परहेज़ न करें।
ऐसी थी प्रिंगल। आज बाबूजी, पीसा बाबू, नन्ना, जेठू-जेठी, मामू-मामी, दादा-भैया लोग
ही नहीं, सारे दोस्त और जाननेवाले प्रिंगल को याद कर रहे हैं।
नाना-नानी से प्रिंगल मिली नहीं है, मगर वीडियो पर
नाना-नानी इस नतनी को देखकर निहाल होते रहे हैं। हर बार प्रिंगल का हाल-चाल ज़रूर पूछते।
उनको एक-दूसरे से मिलाने की चाह लिए मैं रह गई और वे सब चले गए। माँ-पापा अंतिम
बार जुलाई, 2015 में
दिल्ली आए थे। यानी प्रिंगल के घर आने से एक महीना पहले। उस समय पापा बीमार थे और
गंगाराम अस्पताल में इलाज चला था। नींद न आने के लिए ढेर सारी दवाएँ खाने के वे
आदी हो गए थे और उनसे छुटकारा चाहते थे। वैसे पेट की जलन (एसिडिटी) के अलावा उनको
कोई बड़ी समस्या न थी।
लिखाई-पढ़ाई
की गति में नींद न आने से जो व्यवधान पड़ता जा रहा था, उसने कई सालों
में उनकी चिंता को गहरा कर दिया था। नाजुक वे ठहरे शुरू के, लेकिन धीरे
धीरे शरीर से कमज़ोर होते जा रहे थे। बावजूद इसके मन की मज़बूती ने उनको भहराने नहीं
दिया था। हम सब पापा पर नाराज़ होते थे कि आप बिना मतलब के परेशान रहते हैं। उनकी
बेचैनी समझते हुए भी उसकी तीव्रता का हमें अहसास नहीं था। इतना ज़रूर था कि उसे
सीधे सीधे वार्धक्य से उपजी चिंता मानकर नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता था।
माँ पापा की बेचैनी समझती थी। उसकी शारीरिक
तकलीफ़ें जो दिनोदिन बढ़ती जा रही थीं उनमें निस्संदेह पापा का क्षीणकाय होते जाना
एक कारण था। उसकी असुरक्षा मैं महसूस कर रही थी। उसकी बीमारी उसी अनुपात में बढ़ती
जा रही थी जिस अनुपात में पापा की दुष्चिन्ता। माँ का पाँव जवाब देने लगा था और उस
कमज़ोरी ने समय पर बाथरूम तक पहुँच न पाने की असमर्थता को पेशाब पर नियंत्रण खत्म
होने की बीमारी में तब्दील कर दिया था। बेटी के घर में अपनी असमर्थता पर काबू
पाने की माँ की जद्दोजहद देखते हुए मैं उसको कहती थी कि तुम खुले विचारों की हो तो
कब से और क्यों बेटी के घर को पराया मानने लगी। यह है ढाँचा! कोर्स में पितृसत्ता के
ढाँचे और जेंडर-जाति आदि के ढाँचे पर तीन दिन पहले ही बात की थी, लेकिन अपने रोज़मर्रापन
में, अपनी भावनाओं में उन सबको ठीक-ठीक पहचानने की ज़हमत हम नहीं उठाते। माँ का भहराता
मन भी तो उस ढाँचे से ही जुड़ा था।
एक बार फिर गंगाराम अस्पताल के डॉक्टर से माँ का इलाज चला। बारी-बारी से माँ-पापा को अलग अलग डॉक्टर से दिखलाने के प्रयास ने रंग दिखाया। पापा को फ़ायदा हुआ और माँ को भी। हमें थोड़ी राहत मिली और मेरा पापा से झगड़ा भी थोड़ा कमा। वे दिल्ली में रहकर बेटा-बेटा करते थे तो मैं हत्थे से उखड़ जाती थी। असल में उनको चैन नहीं था और मैं उन्हीं पर झल्ला पड़ती थी। मानना होगा कि मैंने अपनी घबराहट माँ-पापा और भैया - सब पर उड़ेली है।
यह कोई नया नहीं था। शुरू से ऐसा रहा है। जब मैं माँ-पापा पर चिल्लाती थी तो पापा धीरे से कहते थे कि पूरब थक गई है या परेशान है। शादी के बाद शुरू शुरू की बात है। होली थी। अपनी गृहस्थी का नया उत्साह था। खूब पकवान पकाए, मेहमानों का स्वागत किया। रात तक थककर चूर। अकेले इतना सब करने की आदत नहीं थी। अपूर्व साथ देते थे, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था। उसका जेंडर के नज़रिए से अब विश्लेषण भले कर लूँ, पर उस वक्त कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अकबकाहट क्यों हो रही है। सारा गुबार निकला रानीघाट जाकर। यह भहराना ही था। छोटा-मोटा ही सही। मेरे हिसाब से भहराना एक लंबी प्रक्रिया है। उसमें तनाव और थकान का अनुपात तय नहीं होता। इसका अंत कब कैसे और कहाँ किसके सामने होगा, यह दूसरों को ही नहीं, कई बार खुद को चौंका देता है।
आज सोच रही थी कि पहले के मुकाबले मेरा भहराना अब काफ़ी कम हो गया
है। काम को आगे करके मैं अपने को समेटने की कोशिश करती हूँ। पापा जब गए थे तो माँ
के हिसाब से सबकुछ व्यवस्थित करना हमारी प्राथमिकता थी। लेकिन मुझे 12 वें दिन ही माँ
को छोड़कर दिल्ली आना पड़ा था। इसको लेकर मुझे तनाव हो रहा था, मगर मेरे सामने विकल्प नहीं
था। मैं उस तरह भहराई नहीं। भैया-भाभी और लावण्य माँ के आसपास थे। खुद माँ ने मुझे
कहा कि तुम जाओ। पापा होते तो वो भी यही कहते। इसके बावजूद उस वक्त माँ के पास नहीं
रह पाने का अपराध बोध आज तक गया नहीं है।
इधर दिल्ली में बड़ी हलचल थी। कोविड के आतंक के
साये में लॉकडाउन में फँसे मज़दूरों के लिए सामुदायिक रसोई (कम्युनिटी किचेन) चलाने
वाली टीम में हम शामिल थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में दिन के कई कई घंटे
गुज़रते। प्याज़ छीलने-काटने,
अदरक-लहसुन
पीसने-कूटने के अलावा कभी कभार घटी-बढ़ी सब्ज़ी खरीदने वाली टोली में हम होते थे। धीरे
धीरे यह मज़दूर ढाबा के रूप में पुकारा जाने लगा। उस टोली में भाँति
भाँति के लोग थे। जब अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, रसायनशास्त्र, भौतिकी, उर्दू-हिंदी
के प्रोफ़ेसर, शोध में लगे विद्यार्थी, कॉलेज में कदम रखने वाले नए विद्यार्थी, आंदोलनों
से जुड़े लोग, फ़िल्मकार सब इकट्ठे बड़ी-सी देगची या परात के इर्द-गिर्द बैठकर आलू छीलते
दिखते और पूरा राजनीतिक विश्लेषण कर रहे होते तो कितना स्वाभाविक लगता था!
उस सामुदायिक रसोई में दो-तीन रसोइयों के द्वारा
खाना तैयार करने के बाद छोटा सा समूह पैकेट बनाने में लगता था। हमारा ज़्यादा समय
उसी में जाता। नाप से सब्ज़ी का पैकेट बनता और गिनकर पूड़ी रखी जाती। पोषण और
स्वाद को ध्यान में रखकर मिली-जुली दाल, तहरी, आलू-लौकी पुलाव,
अचारी पुलाव वगैरह बदल बदल कर बनता। उनके वितरण की योजना बनती, इलाके बँटते।
बंद रास्तों से बचते-बचाते गली-कूचों में छोटी गाड़ियों में साथी निकल जाते अलग अलग
इलाकों में मज़दूरों को खाना पहुँचाने। रसोइयों को लाने-पहुँचाने की ड्यूटी भी लगती।
युवा साथी नेतृत्व में थे, पर प्रौढ़ साथी पीछे नहीं थे। जून में दिल्ली
विश्वविद्यालय के परिसर से सामुदायिक रसोई दूसरी जगह चली गई। लॉकडाउन की मियाद बढ़ती
जा रही थी और अलग अलग कोनों से ‘फूड पैकेट’ की माँग आने लगी थी। बहुत
सारे साथी इस मुहिम को बहुत आगे तक ले गए। काम के विस्तार के साथ मुझे लगा कि हम सब
बिखरने लगे थे। मगर यह मेरी नज़र से! निजी तौर पर बिखरने या भहराने को हम जैसे समझते
हैं उससे अलग प्रक्रिया होती है किसी समूह या छोटे-बड़े आंदोलन के fragmentation
की।
यहाँ तनिक थमूँ। यह बिखरना एकदम समानार्थी है भहराने का
या कुछ बारीकियाँ हैं इसमें? शायद बिखरने के ठीक पहले का चरण है भहराना ? नहीं ! कई
बार सबकुछ गुँथा हुआ होता है और एक के ऊपर चढ़ा हुआ। शब्दकोश पलटने के लिए मैं उठी,
माँ की तरह। काठ की आलमारी के ऊपरी खाने में बृहत् हिन्दी कोश विराजमान है और खूब इस्तेमाल
होने के कारण अब उसकी जिल्द टूट रही है। पटना होता तो जिल्दसाज़ कहीं न कहीं मिल ही
जाता। पापा खोज निकालते या माँ किसी न किसी
को पकड़ लेती। हमारे घर में स्कूल की किताब, हमारा उपयोगी रजिस्टर, पत्रिका का अंक,
पुरानी किताब, नानाजी का लिखा और अब खो चुका ‘चलित हिन्दी व्याकरण’ अनगिनत मढ़ी हुई
किताबें थीं। जब किसी का पुट्ठा निकलने लगता, जिल्द भहराने को होती तो पापा जिल्दसाज़
के पास चल पड़ते। किताबों की देखभाल में माँ की उतनी ही भूमिका थी तो वह पहले ही पापा
को चेता देती कि फलाना किताब का फ़र्मा ढीला पड़कर जिल्द से खिसकने वाला है और उसकी जुज़बंदी
ज़रूरी है। आह ! कितने दिनों बाद इन शब्दों की गलियों से भी गुज़रना हो रहा है। माँ-पापा
के साथ कितना कुछ चला गया!
बहरहाल, शब्दकोश ने भहराने को अरबी भाषा का बताया और लिखा
यकबारगी गिरना, टूट पड़ना। यानी भहराने में एक झटका लगता है, कुछ अप्रत्याशित होता है,
अनायास। ऐसा ही तो बिखरने में भी होता है, है न ? सहसा बिखर जाता है कुछ (रिश्ता, विश्वास
और न जाने क्या क्या...) मगर बिखरना धीरे-धीरे भी हो सकता है और जानी-बूझी प्रक्रिया
भी। उसका अंतिम बिंदु है विघटित हो जाना। शायद भहराने में एक संभावना छुपी है कि उसे
वापस खड़ा किया जाए। टूटना शायद भहराने का आंशिक पहलू है। वाकई उलझ गई मैं।
सिर्फ़ मानसिक स्तर की प्रक्रिया नहीं है भहराना। ठोस भौतिक-दैहिक
रूप है इसका। इस 19 अगस्त की सुबह सुबह अपूर्व की आँखों के सामने जब बेचैन खड़ी प्रिंगल भहराने लगी थी और कमरे
के किनारे शायद दीवार के सहारे उसका शरीर नीचे की तरफ़ झुकने लगा था तब उनको लग गया
था कि यह भहराना अब फिर कभी नहीं उठने के लिए है। कारण हम सबको पता था – कैंसर। आज
उसी कोने से उठी प्रिंगल की गंध ने मुझे भहरा दिया, लेकिन मैं तो दुबारा उठ गई और लिख
रही हूँ। प्रिंगल की गंध में माँ-पापा की गंध घुल-मिल गई है।
भहराने के दूसरे छोर पर है उबरना, समेटना। उसमें जुटे
हैं हम सब। बेटी को थोड़ा ज़्यादा वक्त लगेगा। मुझे इसे मनोरोग बनने की हद तक नहीं जाने
देना है।