सूरज को सारे खून माफ़ हैं l
दुनिया के हर इन्सान का
वह रोज़ 'एक दिन' का क़तल करता है
और हर एक उम्र का एक टुकड़ा
रोज़ ज़िबह होता है
इन्सान के इख्तियार में सिर्फ़ इतना है -
कि जिबह हुए टुकड़े को
वह घबरा के फेंक दे, और डरे,
या निडर उसे कबाब की तरह भूने, खाये
और साँसों की शराब पीता
वह अगले टुकड़े का इंतज़ार करे ...
कवयित्री - अमृता प्रीतम
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशक - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पहला संस्करण - 1983
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