उड़ गया है रंग
प्राण दुकूल का, पर चढ़ रहा है ओज
व्यक्ति-बबूल पर
औ' तिक्त कड़ुए गोंद-सा
कुछ व्यर्थ का साफल्य
सूना सारहीन महत्त्व
बहकर सूखकर एकत्र है
औ' खुरदुरे काले तने की डालियाँ
इस गोंद की
कटु-कठिन गाँठों से
सुशोभित हो
प्रदर्शित कर रही हैं आत्म-वैभव
आत्म-गरिमा
रात-दिन
[संभावित रचनाकाल 1945-1946. बनारस. हंस, जून 1946 में प्रकाशित]
कवि - मुक्तिबोध
संकलन - मुक्तिबोध रचनावली, खंड 1
संपादक - नेमिचंद्र जैन
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, तीसरी आवृत्ति, 2011
आज के भाषण के संदर्भ में इस कविता को पढ़ें तो एक और कोण खुलता है !
प्राण दुकूल का, पर चढ़ रहा है ओज
व्यक्ति-बबूल पर
औ' तिक्त कड़ुए गोंद-सा
कुछ व्यर्थ का साफल्य
सूना सारहीन महत्त्व
बहकर सूखकर एकत्र है
औ' खुरदुरे काले तने की डालियाँ
इस गोंद की
कटु-कठिन गाँठों से
सुशोभित हो
प्रदर्शित कर रही हैं आत्म-वैभव
आत्म-गरिमा
रात-दिन
[संभावित रचनाकाल 1945-1946. बनारस. हंस, जून 1946 में प्रकाशित]
कवि - मुक्तिबोध
संकलन - मुक्तिबोध रचनावली, खंड 1
संपादक - नेमिचंद्र जैन
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, तीसरी आवृत्ति, 2011
आज के भाषण के संदर्भ में इस कविता को पढ़ें तो एक और कोण खुलता है !
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