(बतर्ज़ कव्वाली)
हाय लीडर दुरंगी न कम गुम हुए !!
बीच धारा अगम थी - गुड़म् गुम हुए !!
'इन्क़लाबी' हमारे न कम गुम हुए :
लेके साइकिल हमारी निगम गुम हुए !!
हमने देखा था उनको इसी मोड़ पर !
एकदम आए वो ! एकदम गुम हुए !!
ऐसे खो गए जाके आफ़िस में हम :
अपने कानों पर रक्खे क़लम गुम हुए !!
बोली बरसात में इन्क़लाबी दुल्हन :
'ले के छाता हमारा बलम गुम हुए !'
रक्खो एक् सौ चवालिस दफ़ा फूँक फूँक !
वर्ना रक्खा जो अगला कदम, गुम हुए !!
जैसे होश आज बंगाल सरकार के :
हम तो ऐसे, तुम्हारी क़सम, गुम हुए !!
ऐसी आँधी चले ... हम भी पूछें - कहाँ,
वो जो ढाते थे जुल्मों-सितम, गुम हुए ??
आ रहे हैं मसीह्-ओ-खिज़र झींकते :
हे ! अब इन्क़लाबों में हम गुम हुए !!
क्या गुरुजी मनुSजी को ले आयेंगे ?
हो गए, जिनको लाखों जनम गुम हुए !!
अपनी किस्मत को यों रो रहे हैं चियांग -
रह गए हम लँडूरे, सनम गुम हुए !!
किस एटम् गर से पूछे कि - इन्सान के
हीरोशिमा में कितने अदम गुम हुए !?
हमने ज़ेरे-ज़मीं, की तरक़्क़ी पसन्द :
ले के शमशेर अपनी क़लम गुम हुए !!
आज - सन् 1948-49 के ज़माने में
चियांग - चियांग-काई-शेक, जिन्हें फ़ारमूसा (ताइवान) में शरण लेनी पड़ी
ज़ेरे-ज़मीं - 'अंडर ग्राउंड'
शायर - शमशेरबहादुर सिंह
संकलन - सुकून की तलाश
संपादन - रंजना अरगड़े
प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1998
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