छक-छककर पी
फिर भी,
भरा न जी;
वह तृषा -
वही तो तृषा।
रंग, तान, रस, गंध, स्पर्श से
जुड़ा गए मन-प्राण;
वह तृप्ति -
वही तो तृप्ति।
हटें न आँखें,
जनम-अवधि-भर
चाहे जितनी बार निहारूँ;
वह रूप -
वही तो रूप।
सुख-दुख में
समरूप भाव-
मृत्यु-भय से ं डरे;
वह जीवन -
वही तो जीवन।
बार-बार की पढ़ी हुई
तो भी
फिर-फिर पढ़ने को मन खींचे;
वह कविता -
वही तो कविता।
कवि - सिद्धिनाथ मिश्र
संग्रह - द्वाभा
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2010
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