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सोमवार, 18 जुलाई 2022

मेरी नानी सीता सुंदर (My maternal grandmother Seeta Sundar by Purwa Bharadwaj)

आज 18 जुलाई है। नानी के जाने का दिन। 45 साल हो गए। यह तारीख टँगी रहती है किसी कोने में। मुझे बुद्ध कॉलोनी वाले घर के आँगन में उनकी अंतिम छवि का ध्यान है। लेकिन उससे ज़्यादा याद आती है आँगन की बगल में जो रसोई थी, छप्पर वाली लंबोतरी रसोई, उसमें काम करती नानी। मुझे नानी के हाथ के खाने का स्वाद याद है। मेरे पापा भी उनके खाने की बड़ी तारीफ करते थे। नानी से फ़रमाइश करके कई बार मैं माँड़-भात खाती थी। उसना चावल का। उसमें घी और निमकी, नमक में लिपटे सूखे नींबू वाली जो काली सी पड़ गई हो।


नानी का नाम था सीता सुंदर - सीता सुंदरी। सचमुच सुंदर और सौम्य। उनकी युवावस्था का अंदाजा तो नहीं मुझे, मगर एक 'स्टाइलिश' फ़ोटो याद है जिसमें नानी ने बिना बाजू के (स्लीवलेस) ब्लाउज़ के साथ सीधे पल्ले की साड़ी पहन रखी थी और गॉगल्स लगा रखा था। संभवतः अपनी सबसे छोटी बेटी का जो उन दिनों कॉलेज में थी। बाल खुले थे, सद्यःस्नाता नानी के। कभी कभी नानाजी (कविवर रामगोपाल शर्मा 'रुद्र') की कविताओं में उनको तलाशती हूँ। और कभी कभी यह भी सोचती हूँ कि हमलोग अपने घरों की औरतों को ही कितना कम जानते हैं। माँ के चेहरे में नानी दिखती है और मुझमें माँ की काफी झलक है। तो संतोष कर सकती हूँ कि नानी का कुछ तो लिया होगा मैंने।

नानी का घर था छपरा में इटवा महेशिया। माँ बताती है कि इटवा नदी थी जिसकी एक तरफ था महेशिया। बाबू हरिशंकर सिंह और शहदुल्लापुर गाँव की रूप कांता कुँवर की इकलौती संतान थी सीता सुंदर। 1912 का जन्म। जमींदार की बेटी। माँ जब सुनाती है कि उसके नाना की 42 गाँव की जमींदारी थी (जो तीन भाइयों में बँटी थी और 14 गाँव उसके नाना के हिस्से में थे) तो उसके स्वर में क्षण भर को ही सही रुआब आ जाता है। 

सीता सुंदर को स्कूल कभी नहीं भेजा गया, लेकिन घर पर कैथी लिखना-पढ़ना सिखाया गया। बहुत दुलारी थी। गंदुमी रंग वाली माँ की गोरी-चिट्टी बेटी। बहुत लंबी तो नहीं, मगर चौड़ी काठी होने से कद्दावर लगती थी। बाल खूब लंबे, इतने कि कुर्सी पर बैठाकर धोए जाते थे। 

सीता सुंदर की शादी लगी दाउदपुर शाहपुर, पटना में, मिलिट्री छावनी से आधा किलोमीटर दूर के घर में। बाबू सहदेव सिंह के बड़े बेटे रामगोपाल सिंह शर्मा से ('रुद्र' उपनाम बाद में आया और जब गया में थे तो रुद्र गयावी भी लिखते थे)। सीता सुंदर की भावी सास बड़ी कड़क थीं। दनाड़ा गाँव की जो नौबतपुर के तिसखोरा गाँव के पास है। वे बाबू सहदेव सिंह की दूसरी पत्नी थीं। उनकी पहली पत्नी दो बच्चों - रामगोविंद और सीता को जन्म देकर गुज़र गई थी। दूसरी पत्नी से चार बच्चे हुए - राधा, रामपरी, रामगोपाल और रामशंकर।  

रामगोपाल के लिए सीता सुंदर की जोड़ी ठीक रहेगी या नहीं, इसकी जाँच करने के लिए गंगा पार महेशिया औरत को भेजा गया था। उन दिनों स्टीमर से गंगा पार करना, फिर बैलगाड़ी या टमटम से महेशिया जाना खासा तरद्दुद था। फिर भी एक चतुर सुजान औरत महेशिया पहुँची। जमींदार का घर था, दूरा (मुख्य द्वार) खुला रहता था। सीता सुंदर आँगन में बैठी बाल सुखा रही थी। 13-14 की वय। होनेवाली दुल्हन तक पालक झपकते वो औरत आई और उसने सीधे किशोरी के गले में हाथ डाल दिया और हठात बोल पड़ी, "ए मैयो, कहाँ लड़की के घेघ हइई! लड़की तो एत्ता सुत्थर हइई!"  भोजपुरी प्रदेश में मगही में यह सुनते ही हल्ला पड़ गया। जब तक लोग समझते समझते वो औरत चंपत हो गई। लड़कीवालों को इतना तो भान हो गया कि कहाँ से और क्यों वो औरत आई होगी। 

बहरहाल, शादी पक्की हो गई। साल था 1926 और लगन पड़ा वैशाख पूर्णिमा को। दूल्हा 14 साल का और दुल्हन भी 14 साल की। उम्र में लगभग बराबर, मुश्किल से कुछ दिन या महीने भर का अंतर रहा होगा। सीता सुंदर के ससुर बाबू सहदेव सिंह ने इस बड़े घर की बेटी की अगवानी में दानापुर की मुख्य सड़क के किनारे पक्का मकान बनवाया। वे स्टेशन मास्टर थे। पढ़े-लिखे और संगीतप्रेमी व्यक्ति। रामायण का पाठ करते थे, सितार बजाते थे और हारमोनियम भी। उन्होंने बहू के लिए घर में पक्का पाखाना भी बनवाया था। नहाना-धोना शायद इनरा पर ही होता था। पक्का, बीच में लोहे का पावट। बगल में पक्के का छोटा हौज जैसा बनवाया गया। नहाने के बाद उसका पानी सब्ज़ी के खेत में जाता था। वहीं दाहिनी तरफ गोशाला और बाईं तरफ बखार यानी अनाज का भंडार। ऐसा स्वागत हुआ सीता सुंदर का। 

ससुराल के बाकी रंग भी सीता सुंदर ने देखे। सास को पुकारती थी सरकार जी और ससुर को बाबू साहब। बड़ी ननदें थीं दीदी। लाड़-दुलार के साथ सास-ननद का शासन भरपूर झेला। उनकी एक ननद के तानों का किस्सा तो अगली दो पीढ़ी तक चला (और उसका विश्लेषण करते हुए यह भी सुनने में आया कि वे वैवाहिक सुख से वंचित रह जाने के कारण तिक्त हो गई थीं)। एक (सौतेली) जेठानी जो थीं वो भी उनको लुलुआती  रहती थीं। कभी कभी सास सीता सुंदर के कमरे की सिकड़ी (कुंडा) लगा देती थी यह कहकर कि इतनी सुंदर है पुतोह कि इनरा के पास ताड़ पर चढ़ा पासी उसको निहारेगा। 

सच कहा जाए तो लक्ष्मण रेखा के रूप अलग अलग हैं। कोई भी हो सीता, राम की या रामगोपाल की, उसको नियंत्रण करनेवाले चारों तरफ हैं - घर-बाहर सब।

1934 के भूकंप का किस्सा तो अजीब है। जलजला ऐसा था कि सबकुछ डोल गया था। दीवारें झूम रही थीं। उसी में घबरा कर सास ने सीता सुंदर के कमरे की सिकड़ी चढ़ा दी। अस्त व्यस्त होकर बहू इधर-उधर न भागे, इसकी चिंता थी। बंद किवाड़ के पल्ले से चिपकी हुई सीता सुंदर ने कैसे वह समय काटा होगा, कल्पना की जा सकती है। उसी में किसी ने गलत खबर दे दी कि रामगोपाल तो बेतिया में खतम हो गया। उन दिनों वे बेतिया के ख्रीस्त राजा -  के. आर. हाई स्कूल में पढ़ा रहे थे। यह नामी स्कूल 1927 में बेतिया के कैथोलिक चर्च के परिसर में स्थापित हुआ  था और 1930 में वर्तमान परिसर में स्थानांतरित हो गया था। भूकंप ने बेतिया में भयानक तबाही मचाई थी, इसलिए वहाँ जो लोग थे उनके परिजन बहुत डरे हुए थे। लेकिन सीता सुंदर को अपने सौभाग्य पर बड़ा भरोसा था। उसने अपनी सास को कहा, "सरकार जी, हम्मर किस्मत एतना छोट न है। अपने के बेटा नाच के अपने केआगु में आ खड़ा होएतन। अपने विश्वास करु।" 

सीता सुंदर का भरोसा सही साबित हुआ और घर में उनका कद बढ़ा। रामगोपाल सही सलामत बेतिया से शाहपुर, पटना आ गए। भूकंप में रेल, तार, बिजली सब तहस-नहस हो गया था, मगर जैसे-तैसे घर पहुँच ही गए। इसके बाद तानों का नया सिलसिला शुरू हुआ कि बहू को संतान नहीं हो रही है। शादी के 9 साल बाद सीता सुंदर गर्भवती हुई। 1935 में पहली संतान हुई - लड़की, जो आठ महीने में ही चल बसी। जम्हुआ से यानी टिटनेस से। सुनते हैं कि इसी धक्के ने सीता सुंदर के पिता बाबू हरिशंकर सिंह के प्राण हर लिए। अपनी इकलौती बेटी का दुख उनसे सहन नहीं हुया। 

1938 में सीता सुंदर पुत्रवती हुई। इस बार आठ दिन में ही टिटनेस ने पुत्रहीन कर दिया। फिर 1941 में एक बेटी (मेरी माँ) पैदा हुई, 1946 में दूसरी बेटी, 1948 में तीसरी बेटी और 1951 में बेटा। उसके बाद एक और बेटी हुई। बेटे के पहले और बाद में भी बेटियाँ ढेंगराने - जनने के लिए सीता सुंदर ने चुनिंदा गालियाँ खाईं। सास कहती कि "हम्मर बेटा के बेटी बिहअते बिहअते जुत्ता खिआ जाई"  तो ननद कहती कि "बेटी बिहअते बिहअते हम्मर भाई के पगड़ी बेचा जाई।" उस वक्त सीता सुंदर को न जमींदार की बेटी होने से कोई रियायत मिली न संभ्रांत ससुराल ने शिष्टता का परिचय दिया। ऐसा होता है पितृसत्तात्मक परिवार!

औरत धरती की तरह होनी चाहिए, परंपरा से चली आ रही इस सीख को सीता सुंदर ने गाँठ में बाँध रखा था। जब पति के पास नौकरी नहीं थी तो भी सीता सुंदर ने ससुराल में जली-कटी सुनी थी। पति ठहरे कवि, दीन-दुनिया से बहुत मतलब नहीं। खैर, मास्टरी की उन्होंने। सीता सुंदर ने हृदय से हर कदम पर अपने रामगोपाल का साथ निभाया। उनके बिना रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' वो नहीं होते जो हुए। 
उन्होंने कई नौकरियाँ बदलीं। मुस्तफ़ापुर गए, गया के ज़िला स्कूल में शिक्षक हुए। हिन्दी के शिक्षक थे, जिमनास्टिक के चैंपियन भी थे। पहलवानी का शौक भी था। मिलिट्री ट्रेनिंग भी किसी वक्त में की थी। साथ में कविताई। सुरीली आवाज़ में गायन। कवि सम्मेलनों की रौनक। मौज में आते तो घर में भी अपनी कविताओं का सस्वर पाठ करते। इन सब से निर्लिप्त सी रहते हुए भी सीता सुंदर उनके सरअंजाम में दिन-रात लगी रहती थी। खाने की थाली परोसकर पंखा झलने से लेकर गाय पोसने का काम किया ताकि पति और बच्चों को खालिस दूध मिल सके।  

1845 में स्थापित गया के ज़िला स्कूल का डंका बजता था। पति इस नौकरी में टिके तो वहाँ पिता महेश्वर मोहल्ले में सीता सुंदर की अपनी गृहस्थी जमी। मेरी माँ अपने जन्मस्थान गया के बारे में लगाव से बात करती है। उस मोहल्ले मे शिव का जो विशाल प्राचीन मंदिर है वह अब भी माँ की धुँधली यादों से झाँकता है। फिर पूरा परिवार ज़िला स्कूल के क्वार्टर में आ गया। सीता सुंदर दूसरी बेटी की माँ बनी। अड़ोस-पड़ोस का साथ था, आपस में हेल-मेल था। समय सुख से गुज़र रहा था। घूमना-फिरना भी होता था। शिक्षक गण सपरिवार रामशिला और प्रेतशिला की पहाड़ियों पर पिकनिक मनाने जाते थे तो सीता सुंदर का परिवार भी होता।  

1948 में पटना आ गए सब। किराये के मकान में। भिकना पहाड़ी में जमुना बाबू के दो कमरे के मकान में सीता सुंदर बसीं। पटना कॉलेजियट में क्वार्टर कुछ महीनों बाद मिला। तीसरी बेटी का जन्मस्थान वही है। फिर बाकरगंज बजाजा के दोमंजिला मकान में बेटा हुया। घर पर ही। प्रसव पीड़ा उठी तो खोज शुरू हुई घर के सवांग की, जो यार-दोस्तों के बीच कहीं जमे बैठे थे। गोविंदमित्र रोड में जनता होटल था - मालिक थे जद्दु बाबू और मैनेजर थे नगीना बाबू। रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' वहीं पाए गए।  ब्रजकिशोर नारायण, अंजनी प्रसाद सिन्हा, नगेन्दर आदि की मंडली में। पता नहीं उस दिन सिर्फ कविताएँ सुनने-सुनाने का सिलसिला था या ताश की बैठकी भी थी, जो हो राम जी को बुलहटा मिला तो महफ़िल से उठे और पहुँचे सीता जी के पास। इस बीच जचगी के लिए दाई की भी खोज हो रही थी। लेकिन किसी के भी पहुँचने के पहले राघवेंद्र अवतरित हो गए। सीता सुंदर को सँभाला उनकी माँ रूप कांता कुँवर ने। 

प्रसूति गृह से सीता सुंदर जल्दी ही काम के मोर्चे पर आ गईं। चार बच्चों की भरी-पूरी गृहस्थी उन्हीं के कंधों पर टिकी थी। 5 साल के बाद 1956 में सीता सुंदर की सबसे छोटी बेटी का जन्म हुआ। मुख्तार टोली, कदम कुआँ के किराये के मकान में। खुश-खुश और संतुष्ट रहा सीतायन! मेरी माँ अपने बचपन के कई नाम बताती है - भीम भंटा राव, पॉम्चू, लु-लू-पुलु-पुशियान ... इससे खुशहाली ही तो टपकती है!

अपने पिता के जाने के बाद माँ का सहारा सीता सुंदर ही थीं। वे उन्हें ईआ कहती थीं और वे बेटी को बबुओ और दामाद को पाहुन पुकारती थीं। सबका महेशिया आना-जाना नियमित रूप से होता था। बच्चों ने अपने ननिहाल का भरपूर आनंद लिया है। गर्मी की छुट्टियों में तो ज़रूर जाना होता था। लंबे समय तक महेशिया छूटा नहीं। नाता-रिश्तेदारी चलती रही। अनाज-पानी भी वहाँ से काफी दिनों तक पटना आता रहा।  

बाद में ईआ अशक्त हुईं तो उसे सीता सुंदरअपने साथ ले आईं। गर्दनीबाग के क्वार्टर में, जो पुराने सचिवालय में अनुवादक के पद पर काम करने के नाते पति (नानाजी) को मिला था। बिना किसी उज्र के। यह कहना इसलिए ज़रूरी है कि औरत को अपने मायके की जिम्मेदारी उठाने की इजाज़त ही नहीं होती और संसाधन सीमित हों तब तो और मुश्किल। सीता सुंदर को राम गोपाल 

सीता सुंदर ने अपनी माँ की बड़ी सेवा की।  टिकिया सुलगाकर हुक्का - नारियल भरने का काम भी किया। नानी का नारियल भरना तो उनके सब बच्चों के लिए खेल जैसा ही था, लेकिन तीसरी बेटी अपनी नानी की सबसे ज़्यादा चहेती थी। बहुत मन से उनकी देखभाल की। 95 साल की उम्र में रूप कांता कुँवर विदा हुईं बेटी के घर से। लगता है कि कैंसर था। पूरे शरीर में काले-काले गोल धब्बे जैसे हो गए थे मानो किसी ने टिकिया से दाग दिया हो। पेट में छेद जैसा हो गया था जिससे पानी रिसता रहता था। मुझे गर्दनीबाग में कोनिया घर की बगल में भंडार में खाट पर गुड़ी-मुड़ी लेटी बड़की नानी याद हैं।  

अभी बात चली तो माँ ने जसीडीह का किस्सा सुनाया - 1963 का। पापा साइनस की भयंकर तकलीफ झेल रहे थे। 1962 में उन्होंने एम. ए. की परीक्षा छोड़ दी और तीन साल तक नहीं दे पाए। हर तरह का इलाज करवाया। होमियोपैथी की किताब पर किताब पढ़ गए। उपचार के लिए गोरखपुर में विट्ठल दास मोदी के प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र - आरोग्य भवन में महीना भर गुज़ारा। फिर अपने गाँव चाँदपुरा के एक व्यक्ति के सुझाव पर वे बाघमारा, जसीडीह प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र पहुँचे। वहाँ चिकित्सक थे महावीर प्रसाद पोद्दार। तब से जसीडीह हमारे घर की बातों में घूम-फिर कर आता ही रहा। रहन-सहन और खान-पान पर उसका ऐसा असर रहा कि हम बचपन में उस स्वास्थ्यप्रद सादगी से चिढ़ भी जाते थे। बहरहाल, लौटते हैं नानी से जुड़े जसीडीह के किस्से पर। हम भाई-बहन का जन्म नहीं हुआ था तब। माँ-पापा दो प्राणी अकेले पहुँचे थे जसीडीह। आमदनी नहीं थी। उन्होंने सोचा भी न था कि पहली ही बार में तीन महीने रुकना पड़ेगा। इलाज भी रसाहार और दूध कल्प जैसा महँगा। दूध कल्प का मतलब माँ ने बताया - हर आधे घंटे में एक पाव कच्चा गाय का दूध। धारोष्ण दूध ! प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र की गौशाला बाद के सालों में हमें भी याद है। माँ के पास केवल दो साड़ी थी जिसे बारी-बारी से धोती-पहनती थी। तीन महीने में दोनों साड़ियाँ छिर सी गई थीं। तभी नानी नाना के साथ जसीडीह आई थीं। अगले ही दिन वे रिक्शे से देवघर गईं और दो सूती साड़ी खरीद कर ले आईं। 

ऐसी ही थीं रागो माँ (साहित्यकार हंसकुमार तिवारी सीता सुंदर को मस्ती में कभी कभी यही पुकारते थे। ज्येष्ठ पुत्री रागिनी की माँ - रागो माँ)!   
 
                                                                                                                                                    किस्सा जारी ... 

 

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