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रविवार, 20 जुलाई 2025

लाल कार्ड (Laal card by Anuj Lugun)

 पगदण्डियों पर चलते हुए 

आँखों से उगता है लाल कार्ड

गरीबी और भूख का पहचान-पत्र 

हमारे झोले से झाँकता है 


बिना पहचान-पत्र के 

कोई काम नहीं होता है 

भूख को भी 

चाहिए होता है एक कार्ड


एटीएम कार्ड

क्रेडिट कार्ड

डेबिट कार्ड

उनकी शोभा है

जो भूख को 

विज्ञापन से पहचानते हैं 


हमारा तो है लाल कार्ड

पगदण्डियों पर चलते हुए 

सपनों में लहराता है 

किसी झण्डे की तरह 

किसी आवाज़ की तरह 

अपना दम ठोंकता है 

महाजन बहुत बिगड़ता है इससे। 

                                   - 16.03.2020 



कवि - अनुज लुगुन 

संकलन - पत्थलगड़ी 

प्रकाशन - वाणी प्रकाशन, 2021 


प्याज एक संरचना है (Pyaaj ek sanrachana hai by Rajesh Joshi)


एक संरचना है प्याज। 
सैंकड़ों पत्तियाँ 
एक-दूसरे से गुँथी हुई 
एक संघटित घटना 
एक हलचल 
ज़मीन में फैलती हुई। 

एक संरचना है प्याज
जैसे अलाव के इर्द-गिर्द हमारे लोग 
जैसे दुपहर की छुट्टी में रोटी खाते 
खेतिहर मजूरों के टोले 
एक-दूसरे से बाँटते हुए 
रोटी, नमक और तकलीफ 

एक संरचना है प्याज
गुस्से और निश्चय में कसी हुई मुट्ठी 
एक गुँथी-बुनी 
संगठित रचना है
               प्याज।  

अपनी जड़ें 
और बीज 
अपने पेट में साथ लेकर 
पैदा होते हैं 
प्याज। 

कहीं भी रोप दो 
उग आएँगे 
और फैलेंगे 
झुंड-के-झुंड 
इकट्ठे जनमते हैं वे 
ज़मीन के भीतर,
नन्हे-नन्हे सफेद फूल 
और नाजुक हरी पत्तियाँ 
हवा में हिलाते हुए। 

पलक झपकते 
एक से दो 
और दो से दस होते हुए 
एक सघन समूह हो जाते हैं 
                             प्याज। 

एक संरचना अहै प्याज
ज़मीन के भीतर-भीतर 
एक मोर्चाबन्द कार्यवाही। 
कत्थई देह में रस भरी आत्मा 
और मिट्टी की गन्ध लिये 

जो 
अचानक 
फूट पड़ेगी 
एक दिन 
और फैल जाएगी 
सारे बाजार पर। 

एक संरचना है प्याज। 


कवि - राजेश जोशी 
संकलन - धूप घड़ी
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2002

शनिवार, 19 जुलाई 2025

आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर (By Meer Taqi Meer)

आया जो अपने घर से, वो शोख पान खाकर 

की बात उन ने कोई, सो क्या चबा-चबा कर 


शायद कि मुँह फिरा है, बंदों से कुछ खुदा का 

निकले है काम अपना कोई खुदा-खुदा कर 


कान इस तरफ़ न रक्खे, इस हर्फ़-नाशनो ने 

कहते रहे बहुत हम उसको सुना-सुना कर 


कहते थे हम कि उसको देखा करो न इतना 

दिल खूँ किया न अपना आँखें लड़ा-लड़ा कर 


आगे ही मर रहे हैं, हम इश्क़ में बुताँ के 

तलवार खींचते हो, हमको दिखा-दिखा कर 


वो बे-वफ़ा न आया बाली पे वक़्त-ए-रफ़्तन 

सौ बार हमने देखा सर को उठा-उठा कर 


जलते थे होले होले हम यूँ तो आशिक़ी में 

पर उन ने जी ही मारा आखिर जला-जला कर 


हर्फ़-नाशनो - बात न सुननेवाला 

बुताँ - माशूक़ 

बाली - सिरहाना, तकिया 

वक़्त-ए-रफ़्तन - जाने के वक़्त, मरने के समय 


शायर - मीर तक़ी मीर 

संकलन - चलो टुक मीर को सुनने

संपादन - विपिन गर्ग 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण, 2024  

नुक़्ते की परेशानी के लिए माफ़ी के साथ क्योंकि लाख कोशिश करके भी टाइप में कई जगह नहीं आया।