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शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

बक्सा (Box by Purwa Bharadwaj)

मेरे पास कई बक्से हैं - लोहे और स्टील के चदरे वाले। सब माँ का दिया हुआ है या उसी का एक-दो मैं ले आई हूँ। उनमें जो बड़ा होता था उनको माँ ट्रंक कहती थी या कभी कभी मुहावरेदार प्रयोग करते हुए संदूक। बल्कि मामा (दादी) संदूक शब्द का अधिक इस्तेमाल करती थी। शब्दों के इस्तेमाल में वस्तु के स्वरूप के अलावा वक्ता की पहचान और रुतबे को भी देखना पड़ता है, इससे मैं वाकिफ़ हूँ। जब बक्स - बक्सा या अंग्रेज़ी के बॉक्स शब्द की व्युत्पत्ति (etymology) खोजने चली तो मैं लैटिन तक ही नहीं गई, भटककर क्रिया रूप बॉक्सिंग और उसके कर्त्ता बॉक्सर तक चली गई। यहाँ ठेठ आयताकार पेटी ही मेरी आँखों के सामने है। 

पिछले कई सालों से मैंने सारे बक्से-ट्रंक-संदूक को ऊपर दुछत्ती (या बॉक्स रूम) या जो अब 'Loft' अधिक कहलाता है, उसमें रख दिया था। धीरे-धीरे उसमें अब बड़े बड़े कार्टन, बड़े गत्ते, टूटी-फूटी चीज़ें और तत्काल इस्तेमाल में न आनेवाले बड़े बर्तन वगैरह रख दिए गए हैं। वह इतना ठसाठस भर गया कि मुझे बक्सों को हटाकर उनके लिए जगह बनानी पड़ी। चार-पाँच बक्सों में से दो छोटे बक्सों को मैंने नीचे उतार दिया। अब घर में उनके लिए जगह बनाना आसान नहीं था। आजकल घर में बक्सा कौन भलामानुस रखता है ? पतिदेव को तो अपनी लोहे की आलमारी भी पसंद नहीं थी, बक्सा कहाँ से रुचता ! 

हाँ तो मैं बात कर रही थी कि दुछत्ती से मेरे 2 बक्से ज़मीन पर आ गए। पहले वे नज़र से ओझल थे और अब साक्षात् सामने थे। रखूँ कहाँ ? ना-नुकुर को अनदेखा करके दावे के साथ मैंने अपने कमरे में ही रख लिया। नीचे एक पुरानी दरी बिछाई और एक के ऊपर एक बक्से को रखकर ऊपर से उसे एक नए मोटे गहरे रंग के सूती दुपट्टे से ढँक दिया। उसके ऊपर मेरे थैले, पर्स, कलम वगैरह के साथ एक शीशे का पेपरवेट भी है जो बिना इस्तेमाल के मारा-मारा फिर रहा था। बक्सों के कोने में गत्ते के खोल में दो बड़ी बड़ी तस्वीरें हैं। उपहारस्वरूप मिली ये तस्वीरें हमदोनों की हैं - कंप्यूटर से बनाई गई। बड़ी जीवंत हैं। अपने घर में यादगार छोटी-छोटी तस्वीर लगाना तो सजावट का हिस्सा है, लेकिन अपनी ही कैलेंडरनुमा तस्वीर टाँगना ज़रा अटपटा लग रहा है। बाद में उस पर माला चढ़ाने का मन होगा किसी को तब शायद काम आ जाएगी :) तत्काल बक्सों की ओट में वे सुरक्षित हैं।  

अगली बार घर में हवा के शुद्धीकरण के लिए 'एयर प्यूरीफ़ायर' आया और  ठंड में एक और 'ऑइल हीटर' आ गया तो मैंने उनके डब्बों को ऊपर दुछत्ती पर चढ़ा दिया। यह सोचकर कि जब कभी घर बदला जाएगा तो सामान ले जाने में काम आएगा। नतीजतन ऊपर से दो और बक्से विस्थापित हुए। इस बार उनको जगह मिली स्टडी में। रोज़ाना झाड़ू-पोंछा करने में दिक्कत न हो और बक्सों में नमी के कारण ज़ंग न लगे, इसलिए मैंने सोचा कि स्टील के बक्सों के नीचे चार ईंट लगा दूँ। माँ लोग यही करती थी। मुझे याद आ रहा है कि माँ कभी कभी ईंट के ऊपर पहले एक मज़बूत पटरा रख देती थी। उनपर चार-चार बक्से एक के ऊपर एक रखे जाते थे। एकदम संतुलित रहते थे। बक्सों को उतारना-चढ़ाना सब माँ अकेले करती थी। पापा या भैया ने कभी उसमें हाथ लगाया हो, मुझे याद नहीं। उम्र के साथ जब माँ अशक्त होने लगी तो उन बक्सों को खोलना-बंद करना भारी पड़ने लगा था। सहायिका-सहायक के बूते काम चलता रहा, नैपथलिन की गोलियाँ डलवाई जाती रहीं। माँ के आदेश का स्वर कब खुशामद में बदल गया, अंदाजा नहीं। पलटकर सोचती हूँ तो बक्सों की उस उपेक्षा में कहीं न कहीं हम माँ और उसके लगाव की उपेक्षा कर रहे थे।  

बदसूरत न लगे, इसलिए पहले लोग बक्सों के नीचे लगी ईंटों को अखबार में लपेट देते थे और साल-छह महीने में वह अखबार बदलकर नए अखबार में ईंटों को लपेट दिया जाता था। [औरतों का जिम्मा था यह या कम से कम उनकी देख-रेख में यह साज-सँभाल होता था। पितृसत्तात्मक घर के ढाँचे ने घर की 'रानी' को घर के भीतर का राज-पाट (वह भी पूरा नहीं, आंशिक) सौंप रखा है जिसमें बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है। माँ की तरह मैं भी अधिकतर वही भूमिका निभाती हूँ - चयन (Choice) की आज़ादी और एजेंसी के नाम पर!] लेकिन अब 'आउटडेटेड' बक्सों के लिए इतना तरद्दुद कौन करे और यह भी कि जब से ई-पेपर लिया जाने लगा है अखबार मिलता कहाँ है! कभी कोई सामान आ गया अखबार में और वह सही-सलामत साफ़-सुथरा हुआ तो उसे सहेज लिया, वरना तुड़ा-मुड़ा अखबार तो फेंक दिया। मुझे याद है कि एक बार मैं शताब्दी ट्रेन से एक अखबार उठाकर ले आई थी। अब तो ताखे भी खत्म हो गए हैं जिनपर पुताई के चूने से बचने के लिए अखबार बिछाते थे हमलोग। खैर, अब ताखा, पोचारा - चूने से दीवारों की पुताई और छपाई की स्याही की गंध वाले अखबार के लोप होते जाने का विलाप किसी और दिन!

फिलहाल मैंने बक्सों के पैर की तरह लगी ईंटों को अखबार में नहीं लपेटा है। वे नई ईंटें हैं, हालाँकि साबुत नहीं हैं। कॉलोनी में कहीं काम चल रहा था तो छँटी हुईं ईंटों के ढेर में से मेरी वर्तमान सहायिका सरोज चार ईंट उठा लाई थी। सिर पर रख कर ऊपर लाई क्योंकि तीन मंज़िल चार ईंट हाथ में उठाकर लाना आसान नहीं था। उन पर एक नहीं, दो बक्से जम गए हैं। वे डगमगा नहीं रहे। मैंने एक पुराना मेज़पोश - टेबलक्लॉथ डालकर बक्सों को ढँक दिया है।  उनके ऊपर बैठा जा सकता है, लेकिन मैंने किताबों की नई थाक रखने के लायक उसे बना दिया है। उस स्टडी में कोई बाहरी आने-जाने से रहा, सो फ़िलवक़्त वे बक्से इत्मीनान से हैं। मध्यमवर्गीय घरों की साज-सज्जा पर बनी किसी रील में वैसे ढँके-दुबके बक्सों को देख आप हँस सकते हैं, अन्यथा मेरे जैसों के लिए वह यादों का ज़खीरा है।  

बक्से के पैर से ध्यान आया कि इसका पूर्वज लकड़ी का 'चेस्ट' (Chest) भी चौपाया होता था। प्राचीन मिस्र देश में सदियों पहले जो 'चेस्ट' मिलता था उसमें भी पैर लगे होते थे। कपड़े, गहने, काग़ज़ात,  कीमती असबाब आदि रखने के लिए चेस्ट सर्वोत्तम फर्नीचर था। ढक्कन, ताला और उसे समेटने के लिए लोहे की पट्टी उसकी आरंभिक बनावट का अनिवार्य हिस्सा हैं। उसके बावजूद वह सादा सा था। प्राचीन राजमहलों, खज़ानों, यूरोपीय चर्चों आदि में उनके अवशेष मिल जाएँगे। ब्रिटैनिका के मुताबिक 13 वीं सदी में फ़्रांसीसी लोगों ने उसमें पच्चीकारी की शुरुआत की। दिलचस्प यह था कि इस काल के अन्य चेस्ट की बनावट पर Romanesque art (11 वीं-12 वीं सदी में यूरोप में विकसित कला जिसमें कई सभ्यताओं की कलाओं का मिश्रण था) और Gothic art (मध्य 12 वीं सदी से 16 वीं सदी के बीच यूरोप में विकसित कला) की छाप दिखती है। स्थापत्य कला का मूर्ति कला, चित्रकला से जुड़ाव स्वाभाविक रहा है और कला की विशेष शैली का प्रभाव हम अनेकानेक क्षेत्र में देखते आए हैँ। उसी तरह फ़र्नीचर बनाने के लिए Romanesque art एवं Gothic art से विचार (idea) लेना अजूबा नहीं है। यदि हम पुराने चेस्ट की तस्वीरें देखें तो उनका अर्धगोलाकार होना हमें मेहराबों की याद दिला देगा। संग्रहालयों में उसे देखा भी है। 'एंटीक' डिज़ाइन के रूप में आधुनिकतम फ़र्नीचर की वेबसाइट पर भी। 

चेस्ट खोलने-बंद करने में सहूलियत लाने और उसकी उपयोगिता को बढ़ाने के लिहाज से ही शायद ड्राअर का डिज़ाइन बना होगा। तभी तो 17 वीं सदी से कई ड्राअर वाले चेस्ट ही प्रचलित हो गए। इधर मध्य युग में ही कप और अन्य बर्तन रखने के लिहाज से cupboard - कबर्ड जैसी संरचना विकसित हो चुकी थी। उसमें जो अलग अलग खाने यानी ताक (shelves) बनने लगे थे, वे परंपरा से चले आ रहे थे। सामान रखने के लिए अलग अलग खानों की ज़रूरत सभ्यता के आरंभिक दौर में ही महसूस की गई थी। कहते हैं कि पाषाणकाल में खानाबदोश जीवन में गुफाओं-कंदराओं में प्राकृतिक रूप से बने गहरे गड्ढे ताक का काम कर रहे होंगे। धीरे-धीरे चेस्ट में भी खाने/ताक बनने लगे थे ताकि अलग अलग सामान का संग्रहण हो सके। आगे चलकर चेस्ट और कबर्ड के मकसद और उनकी बनावट में मेल-जोल हुआ। अब कबर्ड में पल्ला खुलता था सामने, न कि चेस्ट की तरह ऊपर। आजकल तो जगह की कमी ने पल्ला/दरवाज़ा/ढक्कन सबका स्लाइडिंग विकल्प दे दिया है। जब हमने तीन गहरे-गहरे ड्राअर वाला चेस्ट मुनिरका में फ़र्नीचर की दुकान से बनवाया था तब माँ को वह भाया था। उसे लगा था कि कई बक्सों की जगह ऐसा फ़र्नीचर ज़्यादा माकूल है। मेरा ध्यान गया कि सामान रखने वाला बक्सा फ़र्नीचर की कोटि में आराम से आएगा, पैकेजिंग वाला बॉक्स नहीं। 

चलिए बक्सा पुराण पर लौटते हैँ! मेरा एक बक्सा जो शादी में मौसी ने दिया था, वह ऊटी में एक आवासीय स्कूल में छूट गया। इसकी टीस गाहे बगाहे उठती रहती है। बिना स्कूल के पदाधिकारियों को बताए मैं बेटी को ऊटी से 22 दिन में ही लेकर भाग आई थी। कहा था कि हफ़्ते भर के लिए ले जा रही हूँ, मगर मुझे पक्का मालूम था कि वहाँ वापस नहीं लौटना था। इस चक्कर में ढेर सारे गर्म कपड़ों के साथ बक्सा वहीं रह गया। बहुत बाद में स्कूल वालों ने कुछ कपड़े किसी के हाथ भिजवाए, मगर रज़ाई-कोट आदि के साथ वो मेरी शादी वाला बक्सा वहीं रह गया। मैंने बहुत दुख मनाया, लेकिन एक बक्से को लाने के लिए उतनी दूरी की यात्रा मुमकिन नहीं थी। यात्रा व्यय की चिंता से अधिक मामला यह था कि मुझे भावनात्मक दबाव फिर नहीं झेलना था। लिहाजा बक्से का यह बिछोह सह गई!

इसी से याद आया माँ की शादी वाला लाल बक्सा और उससे बड़ा काला टूटे कुंडे वाला ट्रंक जिसमें नानाजी और पापा की डायरी रखी रहती थी। माँ को नए-नए ब्रीफ़केस-सूटकेस की भीड़ में उन बक्सों को अपने जीते-जी नहीं हटाना था। लाल बक्से में अँखरा धोती, नई साड़ी, 2x2 रुबिया ब्लाउज़ पीस, पेटीकोट का पॉपलीन कपड़ा, शादी-ब्याह में मिला हुआ पैंट-शर्ट का कपड़ा (विमल, सियाराम या रेमण्ड्स का) साड़ी का नया फ़ॉल, नई चादर और बुनाई के काँटे वगैरह सँभाल कर रखे हुए थे। बुनाई की अलग अलग नंबर की सलाइयों को माँ ने बाद में बक्से से निकलवाकर अपने कमरे वाली आलमारी में रख लिया था। वह उन सलाइयों के लिए सुपात्र खोज रही थी जो उनका कदरदान हो, जिसे बुनाई का शऊर हो। मैंने बमुश्किल एक हाफ़ स्वेटर बनाया था और नमूने के तौर पर स्कूल में जमा करने के लिए कुछ छोटा-मोटा बनाया था। बेटी के लिए शौकिया एक नन्हा-सा स्वेटर बनाकर मैंने माँ और मौसी की बुनाई के हुनर के आगे हथियार डाल दिए थे। असल में मेरा मन ही नहीं लगता था। 

माँ की इच्छा थी कि उसकी शादी वाला बक्सा घर में ही रहे। मेरे लिए वह धरोहर होती, मगर उसके जाने के कुछ महीनों बाद जब घर खाली किया जा रहा था तब ठस्स बनकर हमने बहुत कुछ हटा दिया। सबकुछ तितर-बितर हो गया, जानते-बूझते। यह सोचकर संतोष किया कि माँ की देख-रेख करनेवाली मीरा-गौरी के जीते-जी उनके पास भी माँ की निशानी रहेगी। बाद में तो उनके बच्चे भी हमारी तरह इन बक्सों को हटा देंगे। मैं अपने पास रखे माँ के चंद बक्सों को देखकर अपना अपराध-बोध कम करने की नाकामयाब कोशिश करती हूँ। सोचती हूँ कि बरगद की तरह बक्सों की जड़ें मेरे दिल-दिमाग से लेकर मेरे रुँधे गले में अटकी हैं।  

बक्से का छोटा बक्सी जैसे संदूक़ का संदूक़ची (छोटा-नाजुक बनाने के लिए जो प्रत्यय लगते हैं अक्सर उनको भाषा एवं जेंडर की निगाह से देखना चाहिए) कहलाता है और एक बक्सी है मेरे पास। तकरीबन 45-46 साल से। यह उन दिनों की बात है जब स्कूल बैग की जगह थोड़े खाते-पीते घरों के बच्चों के पास अल्युमिनियम या स्टील के चदरे वाला छोटा बक्सी आने लगा था। बहुत कायदे का और खूबसूरत तो नहीं, मगर एक बक्सी मेरे पास भी आया। भैया के पास नहीं क्योंकि उस ज़माने में भी लड़के वैसी चिकनी-चमकती बक्सी नहीं ले जाते थे। यह मैं अपने सीमित अनुभव और याददाश्त से लिख रही हूँ, मुमकिन है कि दूसरी जगह लड़के ले जाते हों और तब गौर से उनकी बनावट में 'मर्दानगी' कैसे पिरोई गई थी, इसे परखना पड़ेगा। ज़रा रुकिए, अभी अभी मेरे एक देवर ने अल्युमिनियम वाला बक्सा (बक्सी) लेकर स्कूल जाने की बात बताई। उसमें मज़ेदार था मुझसे यह पूछना कि आप बक्सा लड़ाई खेली हैं या नहीं। उसके इस व्हाट्सएप संदेश में भी उसकी मुस्कुराहट छुप नहीं रही थी - "हमलोग दोस्तों के बक्से से अपना बक्सा लड़ाते थे और जिसका बक्सा पिचक जाता था वो हार जाता था।"

खैर, मैं वह बक्सी लेकर कभी स्कूल नहीं गई। मुझे उसका भोथरापन पसंद नहीं था, बावजूद इसके कि वह मेरे लिए कीमती था। मैंने उसमें क्या-क्या छिपाकर रखा, इसका खुलासा करने में अभी भी शर्मा रही हूँ। एक छुटका ताला खरीदा था, जिसकी चाभी 24 घंटे मेरे पास रहती थी। माँ-पापा बिना सिद्धांत बघारे बच्चों की निजता (प्राइवेसी) का खयाल रखते थे। भैया भले चिढ़ाता रहता था और खेल-खेल में धमकाता था कि बच्चू, तुम्हारी बक्सी मेरे हाथ लग जाए तब देखना। फिर सबके ध्यान से वह बक्सी उतर गई जो आज भी मेरे पास उसी रूप में सुरक्षित है। केवल कुंडा टूट गया है और ताला नहीं है, मगर अब उस गोपन की रक्षा की चिंता नहीं है। 

निजता, गोपनीयता, सम्मान कितना कुछ जुड़ा है बक्से से! माँ बताती थी कि जब शादी के बाद बिना उससे पूछे और बिना उसको बताए उसका बक्सा खोलकर ससुराल में सामान बाँट दिया गया था तब वो भौंचक्क रह गई थी। शहरी नववधू को यह गँवईपन लगा था, असभ्यता लगी थी (हालाँकि गँवईपन और असभ्यता अनिवार्य रूप से जुड़े नहीं हैं)। अधिकार की बात है इसमें। अधिकार-क्षेत्र का अधिक्रमण भी है। कौन किसका बक्सा कब और क्यों खोले, यह घर-परिवार में सबको मालूम रहता है और रस्म के नाम पर यह अभी भी बेरोक-टोक चल रहा है। मगर माँ को अपने अस्तित्व से इन्कार करना लगा था यह। अपना बक्सा अपने मुताबिक रखने की आज़ादी की ख्वाहिश में स्त्री का मन कौन पढ़ पाता है ? वह उसका जो करे, चाहे तो पूरा उकट कर रख दे।  

पिछले हफ़्ते सुधा भारद्वाज की किताब 'फाँसी यार्ड' में जब 'झाड़ती' के बारे में पढ़ रही थी तब मन काँप गया था। जेल में 'झाड़ती' शब्‍द का उपयोग नियमित रूप से की जानेवाली तमाम तरह की तलाशियों के लिए किया जाता है। पहला झटका जेल में दाखिल होते ही लगता है जब पूरा नंगा कर तलाशी ली जाती है। बेहिस्सपने की इंतहा देखिए कि उठक-बैठक करवा कर तलाशी ली जाती है कि किसी ने गुप्‍तांगों में तो कुछ नहीं छिपा रखा है। अचानक अभी मुझे 'झाड़ती' शब्द बक्से की तलाशी के किस्से के प्रसंग में कौंधा। इतना दुखदायी और अपमानजनक कि मैं उससे बचना चाहूँगी। कुछ बातें दफ़न रहें तो बेहतर है। वास्तव में एक बक्सा जब शक के नाम पर दूसरे द्वारा खोल दिया जाता है तो केवल भरोसा तार-तार नहीं होता, बल्कि रिश्ता तार-तार हो जाता है। 





 

शनिवार, 23 अगस्त 2025

बहर-ए-तवील (Bahar-e-taveel by Muztar Khairabadi)

मैं यही सोच रहा था उसे क्यों हमने दिया दिल 

है जो बेमेहरी में कामिल, जिसे आदत है जफ़ा की 

जिसे चिढ़ मेहर-ओ-वफ़ा की, जिसे आता नहीं आना, ग़म-ओ-हसरत मिटाना 

जो सितम में है यगाना, जिसे कहता है ज़माना 

बुत-ए-बेमेहर-ओ-दग़ा बाज़, जफ़ा पेशा फुसुँसाज़,

सितम खाना बरअन्दाज़, ग़ज़ब जिसका हर इक नाज़, नज़र फ़ितना,

मिज़ा तीर, बला ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर, ग़म-ओ-रंज का बानी 

क़ल्क़-ओ-दर्द का मूजिद, सितम और जौर का उस्ताद, जफ़ाकारी में माहिर 

जो सितमकश-ओ-सितमगर, जो सितमपेशा है 

दिलबर, जिसे आती नहीं उल्फ़त, जो समझता नहीं चाहत 

जो तसल्ली को न समझे, जो तशफ़्फ़ी को न जाने, जो करे कौल न पूरा 

करे हर काम अधूरा, यही दिन-रात 

तसव्वुर है कि नाहक़ उसे चाहा, जो आए न बुलाए,

न कभी पास बिठाए, न रूख-ए-साफ़ दिखाए, न कोई बात सुनाए 

न लगी दिल की बुझाए, न कली दिल की खिलाए 

न ग़म-ओ-रंज घटाए, न रह-ओ-रस्म बढ़ाए, जो कहो कुछ तो खफ़ा हो 

कहे शिकवे की ज़रूरत, जो यही है तो न चाहो,

जो न चाहोगे तो क्या है, न निबाहोगे तो क्या है 

बहुत इतराओ न दिल दे के, ये किस काम का दिल है 

ग़म-ओ-अन्दोह का मारा, अभी चाहूँ तो रख दूँ उसे तलवों से मसलकर 

अभी मुँह देखके रह जाओगे,

हैँ, इनको हुआ क्या कि मेरा दिल लेके मेरे हाथ से खोया।   


शायर - मुज़्तर खैराबादी (1865-1927)

संकलन - सलमान अख्तर की 'घर का भेदी'

प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2024 

अपने 'मनमाफ़िक' ब्लॉग के लिए कविताएँ चुनने के लिए पहले मैं खूब किताबें खरीदती थी। धीरे-धीरे मेरे आलस ने व्यस्तता और अनमनेपन की ओट ले ली। इसको दूर करने का प्रयास जारी है। 'घर का भेदी' दिलचस्प किताब है। सलमान अख्तर ने अपने दादा मुज़्तर खैराबादी, वालिद जाँ निसार अख्तर, मामू मजाज़, भाई जावेद अख्तर पर लिखा है। पेशे से डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक सलमान अख्तर खुद भी शायर हैँ। उनका गद्य कमाल का लगा मुझे। उर्दू का प्रवाह तो अप्रतिम है। 

(नुक़्ते की गड़बड़ी की माफ़ी क्योंकि बीसियों कोशिश के बाद भी 'ख' और 'फु' में न लगा। अक्सर कोई और शब्द लिखकर- उसमें से काटकर नुक़्ते वाला शब्द निकाल लाती हूँ।)



गुरुवार, 21 अगस्त 2025

गोबरैले (Gobraile by Sarveshvar Dayal Saxena)

यह क्या हुआ 

देखते-देखते 

चारों तरफ गोबरैले छा गए। 


गोबरैले - 

काली चमकदार पीठ लिए 

गंदगी से अपनी-अपनी दुनिया रचते 

ढकेलते आगे बढ़ रहे हैं 

कितने आत्मविश्वास के साथ। 


जितनी विष्ठा 

उतनी निष्ठा। 

कितनी तेज़ी से 

हर कोई यहाँ रच रहा है 

एक गोल-मटोल संसार 

और फिर उसे 

तीखी चढ़ाइयों 

और ऊबड़-खाबड़ ढलानों पर 

ठेलता जा रहा है। 


देखने-सुनने और समझने के लिए 

अब यहाँ कुछ नहीं रहा - 

सत्ताधारी, बुद्धिजीवी, 

जननायक, कलाकार,

सभी की एक जैसी पीठ 

कालई चमकदार,

एक जैसी रचना 

एक जैसा संसार। 


पच्चीस वर्षों से लगातार 

यही देखते-देखते 

लगता है हम सब 

गोबरैलों में बदल गए हैं,

यह दूसरी बात है 

कि अपना संसार रचने के प्रयास में 

हम औंधें गिर पड़े हैं ;

हमारे नन्हें-नन्हें पैर 

इस शून्य में निरंतर चल रहे हैं 

और चलते जा रहे हैं 

जब तक यह विराट आकाश 

एक गंदी गोली में न बदल जाए। 

                   2 

अच्छे से अच्छा शब्द फूलकर 

गोबरैले में बदल जाता है 

और बड़े से बड़े विचार को 

गंदी गोली की तरह ठेलने लगता है - 

चाहे वह ईश्वर हो या लोकतंत्र । 


गोबरैले चढ़ रहे हैं 

गोबरैले बढ़ रहे हैं 

और हम सब 

ग़लीज़ इश्तहारों से लदी 

दीवार की तरह निर्लज्ज खड़े हैं। 


क्रांति के नाम पर 

यदि ये कभी कुचल भी गये 

तो कहीं खून नहीं होगा 

एक लिजलिजे पीले मवाद-सा 

चारों तरफ़ कुछ फैल जायेगा। 

                3 

हरे हैं जंगल 

हरे हैं घाव 

हरे हैं दुख 

लेकिन सब काला-काला दीखता है 

(इन्हीं गोबरैलों के कारण)


काली हैं आँधियाँ 

काले हैं खून 

काले हैं मन 

लेकिन सब हरा-हरा दीखता है 

(इन्हीं गोबरैलों के कारण)  

                                       (दिसंबर, 1969) 


कवि - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 

संकलन - कुआनो नदी 

प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1973 


यह किताब पापा की है। पहले पन्ने  पर उनके दस्तखत के नीचे तारीख 20.2.74 की है। 'गोबरैले' कविता के अंत में उनकी लिखावट में टिप्पणी दर्ज है - "बेचैनी, घनघोर अनास्था की कविता"। पहले पन्ने पर "जितनी विष्ठा/उतनी निष्ठा।" जहाँ है उस पर निशान लगा कर उन्होंने लिख रखा है - "धूमिल - 'भाषा की नाक पर रूमाल रखकर निष्ठा की तुक विष्ठा से मिला दूँ।' यह तुक सर्वेश्वर ने मिलाई।" आज सालों बाद उनकी लिखावट देखकर बहुत अच्छा लगा। ऐसा लगा कि वे हैँ, पटना में हैँ, डुब्बी मारकर लिख-पढ़ रहे हैँ। 


गुज़रना (Guzarana by Vyomesh Shukl)

इतनी बीहड़ क्रूरता के साथ बसे देश में सिर्फ़ तुम्हारे घर के नीचे, अफ़सोस, कभी ट्रैफिक जाम नहीं लगता जिसमें फँसा जा सके। वहाँ से खयाल की तरह गुज़रना होता है। 


कवि - व्योमेश शुक्ल 

संकलन - काजल लगाना भूलना 

प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2020  

मंगलवार, 19 अगस्त 2025

रौशनदान (Roshandaan by Purwa Bharadwaj)

हिन्दी की रचनाओं में यदा कदा रौशनदान शब्द मिल जाता है। उर्दू में थोड़ा ज़्यादा। फ़ारसी तो मूल ही है इसका।मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ 'मद्दाह'  के उर्दू हिन्दी शब्दकोश में इसका अर्थ दिया हुआ है "मकान में रौशनी आने का सूराख"। यह अर्थ सर्वज्ञात है। हाँ, मुझे इसके हिज्जे में हमेशा लगता है कि रोशनदान लिखूँ या रौशनदान। 'दान' प्रत्यय है, यह स्पष्ट है। इसकी तरह "गुलदान" जैसे शब्द आमफ़हम हैं। 

अक्सर लगता है कि रौशनदान जैसे शब्द ही नहीं, उनसे जुड़ी सारी संवेदनाएँ, सारे अनुभव अब धीरे धीरे मिटते जा रहे हैं। हाल ही में जब मैं नव उदारवाद, बाज़ारवाद आदि के बारे में पढ़ रही थी तो भाषा पर उसके प्रभाव का सवाल फिर से ज़ेहन में आया था। पिछले साल जब निरंतर के 'युवा, यौनिकता और अधिकार कोर्स' के एक सत्र के दौरान एक सहकर्मी ने संस्कृति के क्षेत्र में नव उदारवाद के व्यापक असर की बात की तो पता नहीं क्यों मेरा ध्यान उस सभा कक्ष की बनावट और उसमें भी रौशनदान न होने पर गया था। क्या स्थापत्य को भी बाज़ार ने जकड़ दिया है, क्या रौशनदान का भी इन व्यापक ढाँचों से रिश्ता है ?

रौशनदान नहीं है मेरे घर में। अभी वाले घर में जो कि तीन तल्ले पर है, उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियों ने रौशनदान की कमी को पूरा करने का काम किया है। उसके पहले जब हम बहुमंज़िली इमारत में नहीं रहते थे तब उन सारे घरों में रौशनदान ज़रूर हुआ करता था। 

लेकिन क्या रौशनदान का रिश्ता मकान कहाँ स्थित है यानी किस तल पर है - भूतल या प्रथम-द्वितीय-तृतीय आदि तल से है ? (यहाँ ग्राउंड फ्लोर की जगह भूतल लिखना ज़रा पराया सा शब्द लग रहा है, हालाँकि मैं हिन्दी के शब्दों के भरसक इस्तेमाल की हामी हूँ) असल में मकान की बनावट महत्त्वपूर्ण है। उसमें तल तो मायने रखता ही है, अलग अलग काम के लिए बनाए गए कमरों के आकार-प्रकार, लंबाई-चौड़ाई के साथ छतों की ऊँचाई की भी भूमिका होती है। पटना में ही माँ-पापा जब बुद्ध कॉलोनी के अपार्टमेंट में आ गए थे तब राजप्रिया अपार्टमेंट में रौशनदान नहीं है, इसे सबसे पहले माँ ने चिह्नित किया था। 

पटना के रानीघाट, गुलबीघाट, घाघा घाट के सारे घरों में रौशनदान था। वैसे वे सारे घर अलग अलग ऊँचाई पर थे। रानीघाट में सीढ़ी से ऊपर जाकर आँगन था फिर एक और तल था जहाँ पापा का कमरा, मेरा कमरा और सामने छत थी। पापा के कमरे की खिड़की के ऊपर जो रौशनदान था उससे जब बारिश के छींटे आते थे तो उनकी मेज़ पर रखी किताबों को बचाने के लिए हममें से कोई फटाफट नीचे से भागकर आता था। उस ज़हमत के बाद कभी किसी ने रौशनदान के होने को दोष नहीं दिया। उन दिनों रौशनदान घर का ज़रूरी हिस्सा होते थे। प्राकृतिक रौशनी और हवा आने-जाने का ऐसा ज़रिया जिसके बिना घर घर न लगे। 

रानीघाट में मेरे छोटे से कमरे में खिड़की से हटकर ठीक मेरे बिस्तर के ऊपर रौशनदान था जहाँ से कभी झाँको तो बगलवाले मकान की छत दिखती थी। वह बड़ा दिलचस्प था क्योंकि बगलवाले मकान की छत की ऊँचाई इतनी थी कि वहाँ कोई खड़ा हो तो मेरे रौशनदान से उसका घुटना ही दिखता था। अलग अलग समय में दोनों मकान बने होंगे तभी ऐसा हुआ होगा कि दोनों की सतह में इतना अंतर था। इतना तय है कि उस समय बस कौतूहल का सबब था वह रौशनदान। उस रौशनदान से मुझे दूर आसमान पर उड़ती पतंगों की झलक भी याद है। ऐसा नहीं था कि मेरे लिए खिड़की-दरवाज़े बंद थे। छत पर जाने की भी मनाही नहीं थी कि रौशनदान रौशनी का इकलौता ज़रिया हो। तब भी रौशनदान से बाहर झाँकना एक अलग किस्म की सनसनाहट पैदा करता था। 

गुलबीघाट की लखनचंद कोठी में हम जब आए तबतक मेरा बसेरा शादी हो जाने के कारण राजेंद्रनगर हो गया था। बहुत कम लखनचंद कोठी में रात बिताने का मौका मिला मुझे। जब कभी वहाँ माँ के कमरे में सोती थी तो अटपटा लगता था कि कोई रौशनदान नहीं था। जबकि ड्राइंग रूम में, पापा की स्टडी में और किनारे वाले भैया के कमरे में भी रौशनदान था। वजह घर की बनावट ही थी। बाकी कमरों की तरह माँ के कमरे में भी बडी बड़ी खिड़कियाँ ज़रूर थीं, फिर भी मुझे रौशनदान की कमी खटकती थी। माँ के कमरे में सामने एक बड़ी सी खिड़की थी और उसकी पिछली दीवार में दो बड़ी बड़ी खिड़कियाँ थी जो एक स्टोर रूम में खुलती थीं। उसमें पीछे एक बड़ा दरवाज़ा था जो सामने खुली जगह में खुलता था। माँ ने उसमें गोभी वगैरह की खूब खेती करवाई। जब जब वह पीछेवाला दरवाज़ा खुलता था माँ का कमरा और रौशन हो जाता था। मानो वह दरवाज़ा न होकर बड़ा सा रौशनदान हो!

माँ के कमरे में सामने की तरफ खिड़की-दरवाज़ा और आँगन था, इसलिए रौशनी की कमी नहीं थी वहाँ, लेकिन मुझे रौशनदान का न होना क्यों याद रह गया ? कहीं ऐसा तो नहीं कि शादी के बाद मेरा कोई कमरा उस घर में नहीं रह गया था और मैं उस कसक को रौशनदान की कमी में तलाशती रही ! नहीं नहीं, मैं भटक रही हूँ... 

साँस लेने का ज़रिया है रौशनदान, यह कहना क्या घिसा-पिटा वाक्य दोहराना है ? मुझे कुछ किस्से पता हैं जब रौशनदान से न केवल प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान होता रहा है, बल्कि प्रेमी-प्रेमिका ने जुगत लगाकर मुखड़ा भी देखा है। मुझे कोई फ़िल्मी दृश्य तो याद नहीं है, लेकिन खोजे ज़रूर मिल जाएगा। 

आम तौर पर पक्के मकान में दीवार के ऊँचाई वाले छोर पर और छत के करीब होता है रौशनदान। यानी उस तक पहुँचना कठिनाई भरा है। तब भी रौशनदान घर में सेंध लगाने का रास्ता रहा है। इसकी खबरों का दस्तावेजीकरण हुआ है। उनकी समाजशास्त्रीय व्याख्या मुमकिन है। 

पहले घरों में रौशनदान चौकोर या आयताकार खुले होते थे। धीरे-धीरे रौशनदान को सुरक्षा के लिहाज से देखा जाने लगा। उसमें सलाखें लगने लगीं, लकड़ी के पल्ले भी लगने लगे। इसी से याद आया दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित अपने पुराने क्वार्टर का। वह पुराने किस्म का क्वार्टर था जिसकी छत बहुत ऊँची थी। इतनी ऊँची कि आजकल के हिसाब से उसमें दो मंज़िल तो नहीं, मगर एक मंज़िल के बाद आधी मंज़िल तो बन ही जाए। उसमें बड़े बड़े रौशनदान थे और उनमें लकड़ी का पल्ला लगा था। बारिश के वक्त या आँधी के वक्त उसे नीचे गिराना होता था। अब यह आसान तो नहीं था, इसलिए उसमें रस्सी लटका दी गई थी ताकि ज़रूरत के हिसाब से रौशनदान का ढक्कन लगा दिया जाए। ऐसा मैंने पहली बार देखा था। एक बार जब रौशनदान से लटकती रस्सी टूटकर काफी ऊपर चली गई थी तो मैंने अपने इलेक्ट्रिशियन अली (जो अब नहीं रहा) से मदद ली थी। उसने नई मज़बूत रस्सी बाँधी थी ताकि रौशनदान का इस्तेमाल मनचाहे तरीके से हम कर सकें। 

इंसान के दिमाग की उपज है रौशनदान, इसलिए उस पर नियंत्रण रखना, उसे अपनी ज़रूरत के मुताबिक रंग-रूप, आकार-प्रकार देना इंसान करता रहा है। यदि अंग्रेज़ी में रौशनदान के समानार्थी Skylight के इतिहास पर जाएँ तो ईसा पूर्व प्राचीन रोमन वास्तुकला तक जाना होगा। धीरे धीरे खुले रौशनदान की जगह पारदर्शी या रंगीन शीशे और प्लास्टिक आदि से ढँके रौशनदान का चलन हुआ। उसमें कोण बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि रौशनदान में/से सूरज की किरण सीधे पड़ेगी या तिरछे इससे भवन का तापमान निर्धारित होता है। उससे जुड़ जाता है सौर ऊर्जा के संरक्षण का मामला और भवन को ठंडा-गर्म रखने का मामला। मतलब पूरा विज्ञान भी समाया है रौशनदान में!

अभी मुझे दिल्ली के शाहपुर जाट इलाके में बिताए अपने 9 साल याद आ रहे हैं। वहाँ कई तल्ले वाले मकान ऐसे थे जिनमें ऊपर सीढ़ी चढ़ते जाइए और बीच में जालीदार छत देखते जाइए। समझ में आया कि खिड़की न होने की कमी की वे भरपाई कर रहे हैं। और जब खिड़की नहीं है, बालकनी नहीं है, दालान या बारामदा नहीं है तो रौशनदान क्या खाक होगा ! मुझे लगा कि रौशनदान के विचार को ही जालीदार छत में पिरो दिया गया है ताकि घर अँधेरा न लगे। धूप-हवा की गैरहाज़िरी और उसके कारण सेहत की चिंता भाड़ में जाए, असल है बाज़ार! घर बिक जाए या उसमें किराया लग जाए, इसको सुनिश्चित करने में मददगार होती है रौशनदाननुमा जालीदार छत! 

यदि कहीं नए नए मकान में आपको गोलाकार रौशनदान जैसी खुली जगह दीवार में दिखे तो खुश मत होइए कि रौशनदान की घरवापसी हो रही है। वह exhaust fan के लिए बनाया गया है, रौशनदान के मकसद से नहीं। खासकर रसोई में और बाथरूम में ताकि धुआँ, खुशबू-बदबू पड़ोसी की नाक में दम न करे। घरवैया को भी सुकून दे। ताज़गी अब रौशनदान से नहीं, exhaust fan से मिलती है। कुछ महीनों पहले मेरी रसोई में जब exhaust fan बार-बार खराब हुआ तो चिढ़कर मैंने सोचा कि छोड़ ही दिया जाए और उस छेद को रौशनदान मानकर चला जाए तो सब हँसने लगे। तीसरी मंज़िल पर और कोई खतरा तो नहीं, मगर चूहों और गिलहरियों की आमद का बेधड़क रास्ता बन जाता वह। हारकर रौशनदान की योजना धरी की धरी रह गई और उस जगह एक नए exhaust fan की तैनाती कर दी गई।  

चिड़ियों का बसेरा बनता है रौशनदान, यह जानी हुई बात है। कई कहानियों में रौशनदान में बने घोंसलों, उसमें दिए गए अंडों और नवजात बच्चों का ज़िक्र मिलता है और इंसान की कशमकश का भी कि रौशनदान साफ़ करना अधिक ज़रूरी है या जीव रक्षा करना। कविताएँ भी लिखी गई हैं रौशनदान पर, मगर अभी कुछ याद नहीं। अलबत्ता गूगल बाबा ने गुलज़ार की एक फ़ालतू सी कविता दिखाई "मेरे रौशनदान में बैठा एक कबूतर"। लगता है कि AI ने गुलज़ार की शैली में लिख दिया है :) 

रौशनदान से छिटकती सूरज की किरणों को कवियों, चित्रकारों, नाटककारों सबने इतना दिखलाया है कि उसकी चमक अब उत्साह नहीं जगाती है। प्रकाश-व्यवस्था करनेवालों ने कैमरे के आगे-पीछे, मंच पर, कोने-कोने में वास्तविक रौशनदान और उसके रूपक का बहुविध इस्तेमाल किया है। 

कहना न होगा कि रौशनदान के किस्से अनगिनत हैं। और जब मैं किस्सा कह रही हूँ तो कल्पना से उपजे किस्सों से अधिक अनुभवजनित किस्से हैं। उनमें से हमारी करीबी (गुरुपुत्री) नीरजा दी' के लिए रौशनदान मृत्यु से पहले परिचय का माध्यम बना था। यह उनके बचपन की बात है यानी साठ का दशक रहा होगा। हुआ यों था कि वे सब गाँव गए थे। उनके पीछे वाले घर में किसी का देहांत हो गया था। वहाँ से रोने की आवाज़ें आ रही थीं, पर बच्चों को बाहर नहीं जाने दिया जा रहा था। उनकी उत्सुकता स्वाभाविक थी, मगर घर के बड़े तो दुख से बच्चों को दूर रखना चाहते हैं। बाहर की हलचल की वजह जानने का उपाय बच्चों को सूझ नहीं रहा था। एकमात्र संभावना का द्वार था रौशनदान, मगर वह खासा ऊपर था। आखिर में उन्होंने जुगत लगाई। नीरजा दी' और उनका भाई - दोनों बच्चे किसी तरह अपने कमरे में रखे लकड़ी के संदूक पर चढ़े। तब संदूक की बगल में जो लकड़ी की आलमारी थी उस पर चढ़ना आसान हो गया और रौशनदान उसी आलमारी के ऊपर था। अब रौशनदान से पीछे वाले घर का नज़ारा साफ़ साफ़ दिख रहा था। इतना साफ़ कि आज तक वह दृश्य नीरजा दी' की आँखों में कैद है! वह रौशनदान उन्हें भूलता नहीं है।

इसी से ध्यान आता है मकबरों, गुंबदों और तहखानों में बने रौशनदान का भी। देखा जाए तो एक तरफ़  रौशनदान रहस्य पैदा करता है तो रहस्य खोलता भी है। ताला है तो कुंजी भी है रौशनदान। 

इस प्रसंग में मुझे एक और किस्सा याद आता है रौशनदान से। किसी ने बताया था कि एक बार एक किशोर ने नाराज़ या शायद दुखी होकर अपना कमरा ऐसा बंद कर लिया था कि घरवाले परेशान हो गए थे। तब रौशनदान सहारा बना था और उसी रास्ते कोई उस किशोर तक पहुँच पाया था। ज़ाहिर है कि रौशनदान का आकार बड़ा था और घर की छत से होते हुए उस तक पहुँच पाने ने किशोर की सलामती को सुनिश्चित किया। 

अभी मैं ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और मानवाधिकार वकील सुधा भारद्वाज के जेल में बिताए गए समय के दौरान लिखी गई टिप्पणियों के संकलन 'फाँसी यार्ड' को दुबारा-तिबारा पढ़ रही थी तो एकदम अलग ढंग से रौशनदान का खयाल आया। उसमें दर्ज औरतों की ज़िंदगी में - फाँसी यार्ड में कहाँ है रौशनदान ? क्या रौशनदान की गुंजाइश सबके लिए होती है और सब जगह होती है ? फ़िलिस्तीनी लोगों के लिए कौन सा रौशनदान है ? 

कल मशहूर संस्कृति/कला समीक्षक सदानंद मेनन का एक भाषण सुना था, वह दिमाग में चक्कर काट रहा है (हालाँकि उन पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप की जानकारी ने मुझे हिला दिया है!) वर्तमान समय में पूरी दुनिया में हर जगह जो क्रूरता का घटाटोप है, उसमें क्या कहीं से रौशनी छनकर आ रही है ? क्या कोई रौशनदान खुलेगा ? आज सुबह अपूर्व बात करते रहे अंधकार, मौन, निस्तब्धता के इतना तीव्र हो जाने की कि कान फट जाए, कलेजे से लहू टपकने लगे और कहीं कोई तो हरकत हो। कैसे होगा ? रौशनदान का निर्माण किसके द्वारा और कैसे मुमकिन है ? शायद यही भाव उनको नानाजी - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' (जिनकी आज पुण्यतिथि है) की 1951 की लिखी इस 'आह्वान' कविता तक ले आया - 

कोड़ते चलो जमीन कोड़ते चलो! --
                         कोड़ते चलो !!

सड़ गई वहाँ बयार तक बँधी-बँधी :
वे सड़ाँध के तिलिस्म तोड़ते चलो !
                             कोड़ते चलो !!



 

आह्वान (Ahvaan by Ramgopal Sharma 'Rudra')


कोड़ते चलो जमीन कोड़ते चलो! --
                           कोड़ते चलो !!

इस जमीन में हजारों धन-भरे घड़े 
व्यर्थ हैं पड़े, समाज-पाप से गड़े :
बन्द हैं विकास, कोप-कैद में पड़े :
लाखों-लाख गुल शराब के लिए सड़े :
      वे गड़े लहू के घड़े फोड़ते चलो !
                                 कोड़ते चलो !!

सूख गई धार वहाँ धूर हुई रेत :
एक बियावाँ, जहाँ जिंदगी अचेत,
आते नहीं मेह, मधुर भूल गये हेत :
टाँड़-टाँड़ कास हँसे : बाग-बाग बेंत !
     मेह बनो, धार नई छोड़ते चलो !
                               कोड़ते चलो !!

सैंकड़ों पसार शाख, फैल सभी ओर,
भूमि में हजारों गोड़-गोड़ सूँड़-सोर,
लाखों-लाख पौधों के आधार छीन-छोर 
फैले सात-पाँच बड़े रख भूमि-चोर :
      भूमि के लिए इन्हें मरोड़ते चलो !
                                 कोड़ते चलो !!

राह बँधी, चाह बँधी, आह भी बँधी :
कोटि-कोटि बेपनाह जिंदगी बँधी :
कोठियाँ खुली, कि मुक्ति की मही बँधी :
सड़ गई वहाँ बयार तक बँधी-बँधी :
      वे सड़ाँध के तिलिस्म तोड़ते चलो ! 
                                    कोड़ते चलो !!
                                                 - 1951 (हिमशिखर)


कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' (1.11.1912 -19.8.1991)
किताब - रुद्र समग्र
संपादक - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991

नानाजी 19 अगस्त, 1991 की रात कंधे पर बिजली का नंगा तार गिरने की वजह से चले गए थे, वरना कुछ और साल जरूर रहते। साहित्य को लेकर उनकी दीवानगी यह थी कि उसी शाम आयोजित कवि सम्मेलन में उनकी कविता की डायरी छूट गई थी तो रात को अपनी साइकिल से दुबारा उसे लाने निकल पड़े थे। पटना में अपने घर से थोड़ी ही दूर गए थे कि यह हादसा हो गया। 

आज अपूर्व ने नानाजी की यह कविता चुनी। सुनाई भी और बोले कि कितने शब्द हैं और उनका कैसा निस्संकोच इस्तेमाल है! 

बुधवार, 13 अगस्त 2025

बाबूजी : स्मृतिशेष छविशेष (Babujee by Purwa Bharadwaj)

चाचाजी - श्री गंगानंद झा से मेरा पहला परिचय 1980 का है। सीवान (बिहार) के डीएवी कॉलेज में वनस्पतिशास्त्र (बॉटनी) के प्रोफ़ेसर जो देवघर (झारखंड का बैद्यनाथ धाम) के पंडा समुदाय से थे। उनकी भाषा ने मुझे सबसे पहले आकर्षित किया था। मैं हिंदी साहित्य में सक्रिय कवि की नतनी और कवि-आलोचक पिता एवं साहित्यानुरागी माँ की बेटी थी। कवि अपूर्वानंद के पिता होने के नाते चाचाजी से परिचय धीरे धीरे प्रगाढ़ होता गया। साल में दो-चार बार वे बेटे से मिलने सीवान से पटना आते थे तो हमारे घर आते थे। हमारे ड्राइंग रूम में बैठकी होती थी और उसमें खूब साहित्यिक चर्चा होती थी। राजनीतिक मुद्दों पर भी बातचीत होती थी। हमारे यहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), प्रगतिशील लेखक संघ (PWA), भारतीय जननाट्य संघ (IPTA) और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISF) के नए-पुराने साथियों का अड्डा लगता ही रहता था। उन गहमागहमी वाली अनौपचारिक बैठकों से अलग स्वर होता था जब चाचाजी से पापा की गपशप होती थी। उसमें माँ की शिरकत स्वाभाविक रूप से होती थी जो चाचाजी की साहित्य में पैठ से बहुत प्रभावित थी। माँ-पापा-भैया शुरू से यह कहते थे कि अपूर्वानंद की साहित्य और राजनीति में दिलचस्पी का मूल स्रोत गंगा बाबू हैं। अभी पटना से हिंदी के प्रोफ़ेसर तरुण कुमार का शोक संदेश आया - "सम्माननीय गंगा बाबू को विनम्र श्रद्धांजलि" तब फिर से यह संबोधन कौंधा था गंगा बाबू!

कभी कभी मैं चाचाजी को चिट्ठी लिखने लगी थी। हालचाल और पटने का समाचार उन चिट्ठियों में होता था और कहीं हौले से उनके बेटे का समाचार भी। एक बार कोई छोटा सा आयोजन अपूर्वानंद ने अपने डेरे (पटना के मखनिया कुआँ रोड की एक गली में स्थित किराये के अपने कमरे) में किया था। मौका क्या था, ठीक ठीक याद नहीं है मुझे। लेकिन उसके बारे में बताते हुए जो चिट्ठी मैंने चाचाजी को लिखी थी उसकी जवाबी चिट्ठी की एक पंक्ति मेरे दिमाग में अटकी हुई है। उन्होंने लिखा था कि "अरे प्रकृति ने यह आयोजन मेरे बिना कर लिया!" यह शिकायत नहीं थी। स्नेह था और कहीं न कहीं बेटे को लेकर उनकी आश्वस्ति का उद्गार था। मेरे लिए यह इतना कवित्वपूर्ण था कि क्या कहूँ!

मैं कब चाचाजी से बाबूजी संबोधन पर आ गई, याद नहीं। वे अपनी चिट्ठी में नीचे "आशीर्वादक बाबूजी" लिखने लगे थे। बाबूजी के बाकी आत्मीय जन इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि वे चिट्ठी खूब लिखते थे। उनकी लिखावट देखने में थोड़ी उलझी लगती थी क्योंकि पार्किन्सन की वजह से शुरू से उनका हाथ काँपता था। उसमें सुलेख की तरह अक्षर नहीं होते थे, मगर वे इतने सुलिखित और स्पष्ट होते थे कि उसका सानी नहीं। उनकी हर चिट्ठी एकदम अलग तरीके से शुरू होती थी। उनके पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और मेल को पढ़ो तो शब्दों के प्राचुर्य और अलग अलग छवियों का पता चलता है। एकदम सही वर्तनी और वाक्य संरचना ऐसी कि हिंदी के शिक्षक भी उनसे सीखें। हिज्जे देखिए तो अधिकतर वैसा जैसा संस्कृतवाले/वाली लिखें – गङ्गानन्द। संयुक्ताक्षर में खासकर। आगे चलकर जब वे संस्मरण लिखते या विज्ञानसंबधी लेख लिखते तो भी हरेक का तेवर, हरेक की शैली अलग होती थी।

बाबूजी हिंदी, अंग्रेज़ी, बांग्ला के अच्छे जानकार थे। उनका बांग्ला किताबों से प्रेम कमरे में अहर्निश चलते बांग्ला टीवी चैनल तक में झलकता था। रवींद्र संगीत हो या बांग्ला में सुकान्त भट्टाचार्य या नज़रुल गीति हो, बाबूजी घंटों सुनते थे और उस पर बात करना पसंद करते थे। उनसे बांग्ला गीत सुन-सुनकर मेरी बेटी को भी कुछ गीत याद हो गए थे। छुटपन में एक बार उसकी शिक्षिका ने आश्चर्य जताया था तो उसका जवाब था कि “मेरे दादू बंगाली हैं।” बांग्ला के अलावा उर्दू और पंजाबी में भी उनका दखल था। कामलायक गुरुमुखी तो पढ़ ही लेते थे, भले पंजाबी धड़ल्ले से न बोलें। बांग्ला से हिंदी में और अंग्रेज़ी में उन्होंने अनुवाद भी किया है। मुझे याद है कि जब मैं एक पाठ्यपुस्तक अध्ययन (टेक्स्टबुक स्टडी) का हिस्सा थी तब उन्होंने आग्रह पर पश्चिम बंगाल की बांग्ला पाठ्यपुस्तक से कविता के अंश का अंग्रेज़ी में बहुत सुंदर अनुवाद किया था। हमारे मित्र सत्या शिवरमन ने बाबूजी को ऐसे याद किया -

“I have very fond memories of him from my interaction many years ago when he translated all those articles on health from Bangla to Hindi. A great loss for everyone.”

फ़ेसबुक पर बाबूजी दुनिया जहान की किताबों से खूब उद्धरण देते थे और फिर उनपर अपना मंतव्य देते थे। वे सूक्ति से कम नहीं लगते थे और बड़ी संख्या में मौजूद बाबूजी के नौजवान मित्र उन विवेचनाओं से मुतास्सिर होते थे। उनका सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ हमेशा स्पष्ट रहता था। बाबूजी ने कभी उसे छिपाने का प्रयास नहीं किया। संयत और दृढ़ स्वर में वे अपनी बात रखते थे और मैंने कठहुज्जती या बदतमीजी करनेवाले बंदे को भी उनके सामने निरुत्तर होते देखा है।

विज्ञान की शोधपरक पत्रिका और एक-दो साहित्यिक पत्रिका में बाबूजी के चंद लेख छपे हैं, लेकिन वे अधिक सक्रिय रहे वेब पत्रिकाओं और पोर्टल पर। ट्विटर, इंस्टाग्राम पर भी उन्होंने खाता खोला था, मगर वे बाशिंदे थे फ़ेसबुक की दुनिया के ही। इससे ध्यान आता है उनका कंप्यूटर से रिश्ता। 1996 में चंडीगढ़ आने के बाद चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर से मित्रता ज़रिया बनी थी उनके कंप्यूटर ज्ञान का। बाबूजी के ही शब्दों में -

"चंडीगढ़ आने के बाद ... मेरे लिए सेवानिवृत्त जीवन के इस सर्वथा भिन्न परिवेश में अपने लिए प्रासंगिकता तथा परिचय गढ़ने की चुनौती थी। मेरे पास अवसर पर्याप्त था। कम्यूटर की उपलब्धता ने मुझे नया सीखने के आनन्द और उपलब्धि से प्राणवन्त किया। नए सम्पर्क सूत्र कायम हुए। मेरे परिचय में प्रासंगिकता जुड़ी। इसी बीच अपु [अपूर्वानंद] ने बांग्ला के कवि जय गोस्वामी की कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने को कहा। मैं जय गोस्वामी की कविताओं के विशिष्टता को समझना चाहता था। इसलिए अपने निकट के फ्लैट में रहनेवाली डॉक्टर सुष्मिता चक्रवर्ती से बात की। डॉ सुष्मिता को साहित्य से गहरा लगाव है। वे एक व्यक्ति के साथ एक दिन आई, और उनका परिचय देते हुए कहा कि जय गोस्वामी की विशिष्टता के बारे में आप इनसे जानिए। वे पंजाब विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग के प्रोफेसर हरजिन्दर सिंह लाल्टु थे। हिन्दी, बांग्ला, पंजाबी और अंगरेजी साहित्य में विचरण करनेवाले व्यक्ति। लाल्टु ने अपने सहकर्मी बौद्ध अध्ययन सह तिब्बती भाषा के प्राध्यापक डॉ विजय कुमार सिंह से परिचय कराया और उसके बाद डॉ वी.के सिंह के साथ नियमित सम्पर्क बन गया। इस सम्पर्क ने मुझे कम्प्यूटर में लिखने और इण्टरनेट का उपयोग करने में आत्मविश्वास दिया। इस तरह मैं अपनी लिखावट के अपाठ्य होने की असुविधा से मुक्त हो गया। अब तो मैं कलम पकड़ नहीं पाता, पर कम्प्यूटर के उपयोग से सुगमतापूर्वक पन्ने पर पन्ना लिखा करता हूँ।"

चंडीगढ़ प्रवास ने बाबूजी के लिए अलग झरोखा खोला था। वे अपनी सेवानिवृति के बाद अपने बड़े बेटे और बहू के पास सीवान से चंडीगढ़ आए थे। नौकरी से फुरसत पाकर वे देवघर रहना चाहते थे, लेकिन वहाँ अपने पैतृक घर में रहने की उनकी लालसा पूरी नहीं हुई। वहाँ अम्मी (मेरी सास) के बिना रोज़मर्रा की व्यवस्था उनसे संभव न थी और जिस आठ भाई बहन के भरे पूरे परिवार में वे पले बढ़े थे उसका ढाँचा बदल चुका था। अब चंडीगढ़ में दादूभाई (पोता) जीवन के केंद्र में था। मैंने देखा था कि अम्मी-बाबूजी ने अपने दोपहर के खाने का समय बढ़ा दिया था और दादूभाई के स्कूल से लौटने के बाद तीनों इकट्ठे खाना खाते थे।

उनकी रुटीन व्यवस्थित हो चली थी जिसमें लिखना-पढ़ना, कंप्यूटर-फ़ोन में व्यस्त रहने के साथ टहलना, गिने-चुने दोस्तों से मिलना-जुलना शामिल था। केवल पंजाब नहीं, वहाँ बसे हुए तमिलनाडु, गुजरात, केरल के लोगों से भी उन्होंने आगे बढ़कर अपने परिचय का दायरा भी बढ़ाया। बीच में ओल्ड एज होम के डे केयर सेंटर में बैठकी के लिए जाने लगे थे। उनकी रोशनी में वे महानगरीय जीवन का विश्लेषण वैसे ही करते थे जैसे कोई समाजशास्त्री करे।

2021 में मुझे मामाजी - डॉ. शंकरनाथ झा ने बाबूजी के लेखन को संकलित करते हुए उनकी जीवन यात्रा को किताब की शक्ल में लाने का जिम्मा दिया था। रिश्ते की नज़दीकी के कारण मैं घबराई थी, लेकिन फिर मैंने संकलन-संपादन को काम को निर्वैयक्तिक तरीके से करने का दायित्व लिया। बाबूजी के प्रिय शब्द ‘जय यात्रा’ को लेते हुए किताब का नामकरण किया - “मेरी जय यात्रा”। यह कोविड का दौर था, मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत उथल-पुथल से भरा हुआ दौर। उस दौरान बाबूजी के बिखरे हुए आत्मकथात्मक लेखन के टुकड़ों को पिरोते हुए मुझे लगा था कि मैं पिछले 30 सालों के साथ में उनके बारे में बहुत कुछ नहीं जानती थी। बाबूजी के इन शब्दों को किताब की भूमिका में सजाते हुए मैं अनमनी हो गई थी -

“अपने बारे में शैशव से ही एक तस्वीर थी कि बड़ा होकर विद्वान, आत्मभोला लेखक बनूँ, हर वक्त किताबों से घिरा रहूँ। हो नहीं पाया, इसलिए ललक बनी रही। फिर बड़ा हुआ तो सोचता रहा कि क्या कभी ऐसा लिख पाऊँगा जिसे लोग पढ़कर पसंद करेंगे।"


"चंडीगढ़ का निर्वासन लिखने की प्रचुर सुविधा के साथ मिला। सो लिखता रहा। संयोग मेरा ऐसा हुआ कि मुझे टाइप करने का अवसर तब भी मिलता रहा जब मेरे पास कहने को, लिखने को कुछ नहीं था। मेरा लिखा ‘भाजो का कुनबा’ में शामिल होकर मुझे प्रकाशित कर गया। अब मेरे लिखने को संजोने का आग्रह। मेरे लिए भावुकता से भरा अनुभव है। मुझे तो प्रस्तुत होना है। अब थकावट और असमर्थता छा गई है।”

आज मैं बाबूजी की पढ़ाई-लिखाई की तड़प को और शिद्दत से समझ पा रही हूँ -

“नौकरी से सेवानिवृत्ति के निकट पहुँच जाने के समय की बात है। सुबह सुबह सोच रहा था कि अगर अगला जनम होता हो और मुझे चुनने की सुविधा मिले तो क्या चाहूँगा। कौन सा काम जो करना चाहिए था, पर हो नहीं पाया? जवाब मिला - पढ़ना सीख पाऊँ, कैसे कुशलतापूर्वक पढ़ा जाता है?”

आगे वे लिखते हैं -

“सारी ज़िंदग़ी पढ़ाई से ही पहचान रहने के बावजूद मैं शिद्दत से महसूस करता रहा कि पढ़ने में दक्ष नहीं हो पाया। लोग कैसे इतनी किताबें पढ़ लेते हैं, उनका मर्म आत्मसात कर लेते हैं। मैं नहीं हो पाया। शायद इसीलिए जो लोग पढ़ने में दक्ष होते हैं, वे मुझे अच्छे लगते हैं।”

बाबूजी के लिए सही मायने में पढ़ाई-लिखाई का मतलब था इंसान बनना, अच्छी नौकरी पाना या सुविधासंपन्न होना नहीं। वे आजीवन ‘सफलता’ की दुनियावी कसौटी पर सवाल खड़ा करते रहे। इसे तबतक नहीं समझा जा सकता जबतक हम उनकी पृष्ठभूमि से न परिचित हों। बाबूजी के शब्दों में -

"बीसवीं सदी का चालीस का दशक, अतुलनीय रूप से उद्दीपनाओं तथा उत्तेजनाओं से भरा हुआ। देवघर के आकाश में हवाई जहाज का शोर सुनकर बालक-बड़े सब घरों से निकलकर ऊपर देखा करते, बच्चे चिल्लाते, “उड़ो जहाज, उड़ो जहाज।”। बड़ों से मालूम होता उन्हें कि दूर बहुत दूर अंग्रेजों के देश में लड़ाई लगी हुई है। ... द्वितीय विश्व-युद्ध की गूँज थी यह। जगह-जगह, सिनेमा के पर्दे पर, हैंडबिल्स में लिखा मिलता, “तन-मन-धन से ब्रिटिश सरकार की मदद कीजिए।” सड़कों पर नारे सुनाई देते, अंग्रेजो, भारत छोड़ो, स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” “गाँधी नेहरू, सुभाष”, “ब्रह्मा, विष्णु, महेश” की तर्ज पर त्रिदेव का दर्जा पाए हुए थे। क्रान्तिकारियों की कहानियाँ परी कथाओं की तरह हैरत तथा गर्मजोशी से कही-सुनी जाया करती थीं। ...सत्याग्रही और क्रान्तिकारी के बीच फर्क करने की मानसिकता नहीं बनी थी तब। अछूतोद्धार, “हिंदू-मुसलिम-सिख-ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई”, जैसी अवधारणाएँ देवघर की ठहरी हुई, बँधी-बँधाई चेतना को झकझोर रही थीं।

रूस मे सर्वहारा की सत्ता, जापान का शौर्य, जर्मनी में हिटलर का स्वस्तिक को सम्मान, आर्य़-जाति की अवधारणा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएँ। हिंदुत्व का प्रचार। और फिर सन् ‘43 में बंगाल का भीषण अकाल। मुनाफाखोरों और कालाबाजारियों के द्वारा तस्करी से अनाज के बंगाल भेजे जाने के कारण देवघर भी भूखमरी की गिरफ़्त में था। कंट्रोल तथा व्लैक-मार्केटिंग से चावल खरीदने की आपाधापी में भी लोगों की दीक्षा का दौर था यह काल-खंड।

टॉमियों की एक टुकड़ी देवघर के आर. मित्रा. हाई स्कूल के परिसर में ठहरा हुई थी। वे लोग बीच-बीच में बाजार में निकला करते। आजाद हिन्द फौज का आविर्भाव। जय हिन्द के नारे। ढिल्लों, सहगल, शाहनवाज; इन्किलाब जिन्दाबाद की गूँज। लड़के-लड़कियों ने आजाद हिन्द फौज की वर्दियां सिलवाईं, पारस्परिक अभिनंदन जय हिन्द होने लग गया था।

चेचक की महामारी में एक-एक दिन में बीस-बाइस शिशुओं की मृत्यु का ताण्डव हुआ था। साथ-साथ कलकत्ते में बमबारी के बाद लोगों का पलायन कर आश्रय के लिए यहाँ भीड़ करना जैसे काफी नहीं था। सन 46 में भीषण सांप्रदायिक दंगों के बाद लाशों से भरी रेलें जसीडीह होते हुए गुजरती रही थीं। लोगों ने सुना था “बंगाल का बदला बिहार में लेंगे”।

14 अगस्त, सन 1947 की रात, बारह बजने की प्रतीक्षा। टावर घड़ी चौक पर राष्ट्रीय तिरंगे का ध्वजोत्तोलन एसडीओ साहब द्वारा। जो विदेशी सत्ता के प्रतिनिधि होकर स्वदेशी आंदोलनकारियों के प्रतिपक्ष की भूमिका में थे, वे अब उन्हीं के प्रतीक होने जा रहे थे। एक एक मिनट गिना जा रहा था, खड़े-खड़े हम गुलाम भारत से आजाद भारत की मिट्टी पर आ जाने वाले थे।

वैसे लोग भी थे जिनके लिए यह दिन आजादी नहीं, निःस्वता का था, वे शरणार्थी हो गए थे, रिफ्यूजी। उनका देश भारत था, पर वतन पाकिस्तान हो गया था। फिर 30 जनवरी सन् 1948 महात्मा गाँधी की हत्या। अविश्वसनीय, पर सत्य। सारी संवेदना को शून्य करने की क्षमता से लबालब।

हमारे होने के काल-खंड का अपना ही अनूठापन रहा है; चालीस के दशक ने हमें परिवेश के प्रति संवेदनशीलता दी; हमारी चेतना और हमारे मन की कूट-लिपि की रूपरेखा इसी अवधि में बनी थी। हमारी बाल्यावस्था और किशोरावस्था की अवधि इसी काल-खंड में थी। ... मेरी चेतना इसी में अंकुरित हुई है। उसके उद्दीपन एवं उत्तेजना की प्रचुरता ने मेरी राह तय की है और मुझे पाथेय जुगाया है। पथ पर मैं संबलहीन ही उतरा था, पड़ाव मिलते गए और ये पड़ाव ही मुझे पाथेय उपलब्ध कराते गए।”


आगे की पढ़ाई के लिए बाबूजी भागलपुर और पटना गए। उस बीच और स्नातकोत्तर के बाद की उनकी यात्रा के पड़ाव विविध थे - सबौर (भागलपुर) स्थित बिहार सरकार के एग्रिकल्चर रिसर्च इंस्टिट्यूट के प्लांट पैथॉलॉजी विभाग में कनीय अनुसन्धान-सहायक (जूनियर रिसर्च एसिस्टैंट), पटना विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में लैब़रैटरी एसिस्टैंट से लेकर देवघर (झारखंड), तुर्की (बिहार) और बराकर (प. बंगाल) के स्कूल से होते हुए सिलचर (असम) के जी. सी. कॉलेज और वापस सीवान के डीएवी कॉलेज में शिक्षक की भूमिका तक। इन छोटी-बड़ी यात्राओं ने उन्हें समृद्ध किया, मित्रताएँ अर्जित करने का अवसर दिया। जब वे सिलचर पहुँचे तो 1960-61 के भाषा आंदोलन का दौर था वह। उनकी मित्र-मंडली में अधिकतर लोग देश के बँटवारे के कारण बने पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित हुए समुदाय से थे। सिलचर में बिताए बीस महीने के तजुर्बे के बारे में उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक लिखा है -

“मुझे ऐसा लगता रहा है कि मेरे मन में आदमी के प्रति, मानवीय संवेदनाओं के प्रति आस्था और ललक को खुराक देने में इसका असरदार योगदान रहा है।”

सिलचर की ऊष्मा मुझे बाबूजी के सिलचर के परम मित्र श्री अनंत देव चौधरी के भतीजे श्री अमिताभ देव चौधरी के शोक संदेश में भी दिखी। उनको जब मैंने बाबूजी के चले जाने के बारे में सूचित किया तो उनका जवाब आया था -

“I am bereaved ! He was my uncle's one of the most intimate friends. I found in him a most affectionate father. After the death of his wife, he became somewhat detached.... Shall never forget him... He translated some of my write-ups and published the translations in a Hindi magazine. All these memories are crowding up. !!”

वाकई स्मृतियाँ हमारी पूँजी हैं! 2012 में बाबूजी ने ही गर्भनाल पत्रिका से मेरा परिचय करवाया था। पहले पहल किसी हिंदीप्रेमी विदेशी व्यक्ति ने भाषासंबंधी जिज्ञासा व्यक्त की थी कि “सन् में हलन्त (हल् के साथ) क्यों लगाया जाता है” और उसे उन्होंने मुझे प्रेषित किया था। आज इस पत्रिका में उनके बारे में लिखते हुए अजीब लग रहा है!

92 साल की उम्र में 24 जून, 2025 को चंडीगढ़ के आवास में बाबूजी ने दुनिया से विदा ली। वे अंत अंत तक मानसिक रूप से सचेत थे। शारीरिक रूप से निढाल बहुत बाद में हुए। अपनी शर्तों पर उन्होंने जीवन जिया। वैज्ञानिक चेतना उनके जीवन जीने की शैली में गुँथी हुई थी। उन्होंने मृत्यु के उपरांत कोई कर्मकांड करने से मना कर दिया था और चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल को अध्ययन व शोध के लिए अपना शरीरदान कर देने की बात कह-लिख रखी थी। उनकी इच्छा का मान रखा गया और पूरे परिवार ने इकट्ठे उन्हें पीजीआई अस्पताल में विदा किया। और उनकी स्मृति में अस्पताल से दिए गए पौधे को हम सब घर ले आए, मानो बाबूजी नए रूप में साथ आए!


यह संस्मरण मैंने वेब पत्रिका 'गर्भनाल' के लिए लिखा था। बाबूजी लंबे समय तक 'गर्भनाल' से जुड़े थे। उन्होंने कई अंकों का संपादन भी किया था। उस पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद यहाँ डाल रही हूँ।

बाबूजी स्मृतिशेष छविशेष - Garbhanal

सोमवार, 11 अगस्त 2025

कोई दीप जलाओ (Koi deep jalaao by Faiz Ahmed 'Faiz')

बुझ गया चंदा, लुट गया घरवा, बाती बुझ गई रे 

दैया राह दिखाओ 

मोरी बाती बुझ गई रे, कोई दीप जलाओ 

रोने से कब रात कटेगी, हठ न करो, मन जाओ 

मनवा कोई दीप जलाओ 

काली रात से ज्योति लाओ 

अपने दुख का दीप बनाओ 

            हठ न करो, मन जाओ 

            मनवा कोई दीप जलाओ 


शायर : फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'

संकलन : प्रतिनिधि कविताएँ 

प्रकाशन : राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, पाँचवीं आवृत्ति, 2012