कोड़ते चलो जमीन कोड़ते चलो! --
कोड़ते चलो !!
इस जमीन में हजारों धन-भरे घड़े
व्यर्थ हैं पड़े, समाज-पाप से गड़े :
बन्द हैं विकास, कोप-कैद में पड़े :
लाखों-लाख गुल शराब के लिए सड़े :
वे गड़े लहू के घड़े फोड़ते चलो !
कोड़ते चलो !!
सूख गई धार वहाँ धूर हुई रेत :
एक बियावाँ, जहाँ जिंदगी अचेत,
आते नहीं मेह, मधुर भूल गये हेत :
टाँड़-टाँड़ कास हँसे : बाग-बाग बेंत !
मेह बनो, धार नई छोड़ते चलो !
कोड़ते चलो !!
सैंकड़ों पसार शाख, फैल सभी ओर,
भूमि में हजारों गोड़-गोड़ सूँड़-सोर,
लाखों-लाख पौधों के आधार छीन-छोर
फैले सात-पाँच बड़े रख भूमि-चोर :
भूमि के लिए इन्हें मरोड़ते चलो !
कोड़ते चलो !!
राह बँधी, चाह बँधी, आह भी बँधी :
कोटि-कोटि बेपनाह जिंदगी बँधी :
कोठियाँ खुली, कि मुक्ति की मही बँधी :
सड़ गई वहाँ बयार तक बँधी-बँधी :
वे सड़ाँध के तिलिस्म तोड़ते चलो !
कोड़ते चलो !!
- 1951 (हिमशिखर)
कवि - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' (1.11.1912 -19.8.1991)
किताब - रुद्र समग्र
संपादक - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991
किताब - रुद्र समग्र
संपादक - नंदकिशोर नवल
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 1991
नानाजी 19 अगस्त, 1991 की रात कंधे पर बिजली का नंगा तार गिरने की वजह से चले गए थे, वरना कुछ और साल जरूर रहते। साहित्य को लेकर उनकी दीवानगी यह थी कि उसी शाम आयोजित कवि सम्मेलन में उनकी कविता की डायरी छूट गई थी तो रात को अपनी साइकिल से दुबारा उसे लाने निकल पड़े थे। पटना में अपने घर से थोड़ी ही दूर गए थे कि यह हादसा हो गया।
आज अपूर्व ने नानाजी की यह कविता चुनी। सुनाई भी और बोले कि कितने शब्द हैं और उनका कैसा निस्संकोच इस्तेमाल है!
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