यह क्या हुआ
देखते-देखते
चारों तरफ गोबरैले छा गए।
गोबरैले -
काली चमकदार पीठ लिए
गंदगी से अपनी-अपनी दुनिया रचते
ढकेलते आगे बढ़ रहे हैं
कितने आत्मविश्वास के साथ।
जितनी विष्ठा
उतनी निष्ठा।
कितनी तेज़ी से
हर कोई यहाँ रच रहा है
एक गोल-मटोल संसार
और फिर उसे
तीखी चढ़ाइयों
और ऊबड़-खाबड़ ढलानों पर
ठेलता जा रहा है।
देखने-सुनने और समझने के लिए
अब यहाँ कुछ नहीं रहा -
सत्ताधारी, बुद्धिजीवी,
जननायक, कलाकार,
सभी की एक जैसी पीठ
कालई चमकदार,
एक जैसी रचना
एक जैसा संसार।
पच्चीस वर्षों से लगातार
यही देखते-देखते
लगता है हम सब
गोबरैलों में बदल गए हैं,
यह दूसरी बात है
कि अपना संसार रचने के प्रयास में
हम औंधें गिर पड़े हैं ;
हमारे नन्हें-नन्हें पैर
इस शून्य में निरंतर चल रहे हैं
और चलते जा रहे हैं
जब तक यह विराट आकाश
एक गंदी गोली में न बदल जाए।
2
अच्छे से अच्छा शब्द फूलकर
गोबरैले में बदल जाता है
और बड़े से बड़े विचार को
गंदी गोली की तरह ठेलने लगता है -
चाहे वह ईश्वर हो या लोकतंत्र ।
गोबरैले चढ़ रहे हैं
गोबरैले बढ़ रहे हैं
और हम सब
ग़लीज़ इश्तहारों से लदी
दीवार की तरह निर्लज्ज खड़े हैं।
क्रांति के नाम पर
यदि ये कभी कुचल भी गये
तो कहीं खून नहीं होगा
एक लिजलिजे पीले मवाद-सा
चारों तरफ़ कुछ फैल जायेगा।
3
हरे हैं जंगल
हरे हैं घाव
हरे हैं दुख
लेकिन सब काला-काला दीखता है
(इन्हीं गोबरैलों के कारण)
काली हैं आँधियाँ
काले हैं खून
काले हैं मन
लेकिन सब हरा-हरा दीखता है
(इन्हीं गोबरैलों के कारण)
(दिसंबर, 1969)
कवि - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
संकलन - कुआनो नदी
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1973
यह किताब पापा की है। पहले पन्ने पर उनके दस्तखत के नीचे तारीख 20.2.74 की है। 'गोबरैले' कविता के अंत में उनकी लिखावट में टिप्पणी दर्ज है - "बेचैनी, घनघोर अनास्था की कविता"। पहले पन्ने पर "जितनी विष्ठा/उतनी निष्ठा।" जहाँ है उस पर निशान लगा कर उन्होंने लिख रखा है - "धूमिल - 'भाषा की नाक पर रूमाल रखकर निष्ठा की तुक विष्ठा से मिला दूँ।' यह तुक सर्वेश्वर ने मिलाई।" आज सालों बाद उनकी लिखावट देखकर बहुत अच्छा लगा। ऐसा लगा कि वे हैँ, पटना में हैँ, डुब्बी मारकर लिख-पढ़ रहे हैँ।
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