सुबह पाँच बजे
हाथ में थामे झाड़ू
घर से निकल पड़ती है
रामेसरी
लोहे की हाथ गाड़ी धकेलते हुए
खड़ंग-खड़ांग की कर्कश आवाज
टकराती है
शहर की उनींदी दीवारों से
गुजरती है
सुनसान पड़े चौराहों से
करती हुई ऐलान
जागो!
पूरब दिशा में लाल-लाल सूर्य
उगने वाला है।
नगरपालिका की सुनसान सड़कें
धुँधलकों की जमात में
टिमटिमाते इक्का-दुक्का तारे
कान पर जनेऊ लपेटे
गुनगुनाते स्वर में
श्लोक रटता हुआ पास से गुजरता पंडित
चाय की दुकान के फट्टे पर
चीकट मटमैली चादर में लिपटा ऊँघता नौकर
भट्ठी के पास लेटा कुनमुनाता झबरा कुत्ता
चौंकते हैं
पास से गुजरती
लोहे की हाथ गाड़ी की आवाज़ पर
कोसते हैं जी भर कर।
रामेसरी के हाथ में थमी बाँस की मोटी झाड़ू
सड़क के ऊबड़-खाबड़ सीने पर
श्च-श्च की ध्वनि से तैरती है
उड़ाती है धूल का गुबार।
धूल : जो सैंकड़ों वर्षों से
जम रही है पर्त-दर-पर्त
फेफड़ों में रामेसरी के
रँग रही है श्वास नली को
चिमनी-सा
कारखाने-से उठते धुएँ-सा
सब कुछ मिलाकर
एक खाका उभरता है
जो जिन्दगी की क्रूरता का नमूना है
जिसमें छोटे-छोटे बच्चों का
अनवरत सिलसिला है
जिन्हें लील जाती है
गन्दगी से उठती दुर्गन्ध
और, वे न जाने कब बड़े होकर
गन्दगी के इस शहर में दुर्गन्ध बन जाते हैं।
फिर एक दिन, जब
रामेसरी की खुरदरी हथेली हो जाती है असमर्थ
हाथ गाड़ी को धकेलने में
छोटे-छोटे हाथ
सड़क तक लाते हैं
धकेलकर गाड़ी को,
बदले में पाकर असंख्य जख्म भी
खामोश रह जाते हैं
ढोते हैं
जिन्दगी का भार उसी तरह
जैसे ढोते रहे हैं इनके पुरखे
चेहरे पर कुछ लकीरें हैं
जो वक्त ने उकेरी है।
साल-दर-साल गुजरते हैं
दीवारों पर चिपके चुनावी पोस्टर
मुँह चिढ़ाते हैं।
जब तक रामेसरी के हाथ में
खड़ांग-खांग घिसटती लौह गाड़ी है
मेरे देश का लोकतंत्र
एक गाली है!
- सितम्बर, 1988
कवि - ओमप्रकाश वाल्मीकि
संकलन - प्रतिनिधि कविताएँ
प्रकाशन - राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, 2024
किसी किसी कविता-कहानी या लेख में वर्तनी की असमानता देखकर मुझे उलझन होने लगती है। अनुस्वार से 'लोकतंत्र' लिखा है तो 'सितम्बर' ऐसे, वहीं 'आवाज़' है, मगर गुजरना है! किताब में जहाँ 'ओमप्रकाश' एक साथ है और अंग्रेज़ी में 'Om Prakash' अलग अलग तो वैसा मैंने कई जगह देखा है। जैसे पापा भी हिन्दी में 'नंदकिशोर' नवल लिखते थे और अंग्रेज़ी में 'N. K.' Nawal, इसलिए वो समझ में आता है। मगर अक्सर वर्तनी को लेकर दिमाग चकराता है। सबसे ऊपर विवक्षा भी है - कहने वाली की इच्छा। फिर भी कई किताबें पलटती हूँ। उसमें भी कई बार अलग अलग प्रकाशन में अलग अलग वर्तनी मिलती है। मेरी कोशिश रहती है कि टाइप करते समय सामने की किताब की वर्तनी का पालन करूँ।