सच रेडीमेड नहीं मिलता,
सबको बुनना पड़ता है
अपने-अपने नाप का !
कभी किसी पिछले जनम में
सच एक ऊनी दुशाला था
कबीर के ताने-बाने से बुना हुआ !
एक साथ सब उसमें
गुड़ी-मुड़ी हो बैठ जाते
और तापते सिगरी किस्सों की !
बाबा बाहर जाते तो तहाते उसको
ऐसे कौशल से कंधे पर कि
चिप्पियाँ दिखाई नहीं देतीं,
अम्मा ताकीद लगातार किया करतीं
कि पाँव उतने पसारिए
जितनी लंबी सौर हो !
सपनों के पाँव मगर हरदम ही
सच की चदरी के बाहर झाँक जाते !
स्कूल के रास्ते में बाजार पड़ता !
रोज हमें दीखते
लाल-हरे-नीले लेसों से सजे
झीने-झीने झूठ झमकदार
कचकाड़े की औरतों पर सजे !
कचकाड़े की औरतें
शीशे के शो-केसों में बंद
हरदम मुस्कातीं,
वे 'विचित्र किंतु सत्य' शृंखला का सच थीं !
थोड़ा-सा वे हमें डरातीं !
ठंड में ठिठुरते हुए हम आगे बढ़ते,
पूरी नहीं पड़ती हमको चमड़ी हमारी !
एक दिन हमने पड़ोसिन से सीखा
एक बमपिलार ऊन के गोले से
बुनना कैसे चाहिए
ब्लाउज भर सच
अपने नाप का !
और मुझे उसने सिखाया बड़े मन से
कैसे उलटे फँदों में डालते हैं सीधा फँदा
कैसे घटता और कटता है सच का गला,
कैसे घटती हैं और कटती है
दो बाजुएँ सच की -
आपकी फिटिंग का हो जाने तक !
तब से लगातार बुन रही हूँ मैं
सपनों में स्मृतियाँ !
गिरे जा रहे हैं 'घर'
'काँटों में फँसे हुए !'
घर गिर रहे हैं धीरे-धीरे
और एक घाटी-सी उभर रही है
मेरे स्वेटर पर !
अच्छा है, सच रेडीमेड नहीं मिलता
सबको बुनना पड़ता है अपने-अपने नाप का !
कवयित्री - अनामिका
किताब - अनामिका
: पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 2012
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