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रविवार, 10 नवंबर 2013

घुमन्तू टेलीफोन (Ghumantu telephone by Anamika)


हद्द चलै सो मानवा, बेहद चलै सो साध,
लेकिन न हद, न ही बेहद -
एक बन्द मुट्ठी मेरी सरहद !

जा तो कहीं भी सकती हूँ -
लेकिन इस आदमी की जेब में l 

तार जोड़ सकती हूँ 
अपने दिमाग का कहीं से -
लेकिन इसके अँगूठे के नीचे l 

जब यह सो भी जाएगा
तकिए के नीचे दबाएगा मुझको !
टिक्-टिक्-टिक् सुनती हुई 
इसकी कलाई-घड़ी की -
चुपचाप मैं दर्ज करती रहूँगी 
अपने सीने में इसकी खातिर 
एस.एम.एस. l 
जगह-जगह से आएँगे ये सारी रात,
दहकेंगे ये गुपचुप सन्देश 
भर-रात मेरे अँधेरों में 
सपनों-स्मृतियों की बिल्ली-आँखें बनकर :
अम्मा की हारी-बीमारी,
मौला की कोर्ट-कचहरी,
ऑफिस के सब रगड़े-झगड़े !
अफरा-तफरी के वे 
कितने अधूरे-से उत्तप्त चुम्बन !
कितनी घुटी-सी पुकारें !
हल्की रुलाई की 
अवरुद्ध, बेचैन कई सिहरनें 
करती रहेंगी मुझमें छटपट भर-रात l 
घायल कबूतर के पंख भरे हैं मुझमें 
जो बेखयाली में 
एक-एक कर नोंच फेंकेगा 
यह कल तक :
कहीं-कहीं कुछ रोएँ सहलाता 
कभी बीच में रुक भी जाएगा !

कितनी भी आधुनिक हो दुनिया -
प्राचीन रहती हैं अभिव्यक्तियाँ
प्यार की, नफरत की !
अमरीकी महाध्वंस के पहले 
होती थीं जैसी बगदाद की सड़कें :
हूँ मैं कुछ-कुछ वैसी
अधुनातन बाजारों के ही समानान्तर 
सजे हुए हैं मुझमें 
हाट पुराने - मीना बाजार,
जैसे कि भग्नावशेष पुरातात्त्विक 
महानगर की छाती पर l





कवयित्री - अनामिका 
किताब - अनामिका : पचास कविताएँ, नयी सदी के लिए चयन  
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, 2012

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