उत्तर में अभी तक था ध्रुव
क्षितिज में खिंची नहीं थी ज़ाफ़रान की लकीर
त्वचा को छू रही थी अँधेरे में घुली शीत
रक्त को हवा में अदृश्य तिरती ओस
अँधेरा था अभी बाक़ी
पितर विदा नहीं हुए थे नींद से
उनके असबाब रखे हुए थे स्वप्न में डूबे पेड़ों के नीचे यहाँ-वहाँ
एक छोर रात का अंतिम
अटका रह गया था,
पल-भर को
एक अंतिम पत्ता किसी अकेले पेड़ का
नलके की वह आख़िरी बूँद
ठीक इसी पल
विहान के तट पर
अँधेरे में डूबी किरणों की नदी के मुहाने के ठीक पूर्व
उसने मुझे देखा
फ़क़त एक पल
एक निमिष
सेकेंड के सहस्रांश भर वह कौंध
एक विद्युत् ...
...द्युति ...एक
उसने देखा बस एक आँख भर
जैसा वही देख सकती थी
मेरी आँख के भीतर
मेरी आत्मा के पार
आर-पार
...मेरे अतल तक
मैं हार बैठा हूँ अपना जीवन ...
जो पहले से ही एक हारा-थका जीवन था
अपनी वंचनाओं में चुपचाप ...
कवि - उदय प्रकाश
संकलन - एक भाषा हुआ करती है
प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, 2009
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