कही जा सकती हैं बातें हज़ारों
यह समय फिर भी न झलकेगा पूरा
झाड़ झंखाड़ बहुत
एक आदमी से न बुहारा जायेगा
इतना कूड़ा
क्या बुहारूँ
क्या कहूँ, क्या न कहूँ ?
अच्छा है जितना झाड़ सकूँ, झाडूँ
जितना कह सकूँ, कहूँ
कम से कम चुप तो न रह सकूँ l
कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011
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