[संध्या के लिये]
हम धूल के बादलों को पीछे छोड़ आये हैं
तूफ़ानों से गुज़रने के निशान नश्वर देह पर हैं
हमारे आगे पाँच हज़ार साल हैं अभी
दरअसल, अब समय का कोई अर्थ नहीं रह गया है
हमारे पास आकाशगंगाएँ हैं
और साथ-साथ चलते आने से यह ज़मीन और यह हवा
अँधेरे में जब हम एक-दूसरे को छूते हैं
तो प्रकाश होता है
हम चंद्रमा की तरफ़ उस निगाह से देखते हैं
जो दाग़ नहीं सुंदरता देखती है
इस चाँदनी में यह जान लेना कितना अलौकिक है
कि तुम लौकिक हो
और मैं तुम्हें अनुभव कर सकता हूँ इंद्रियों से l
कवि - कुमार अंबुज
संकलन - अमीरी रेखा
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2011
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