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सोमवार, 28 जनवरी 2013

ज़िल्लत की रोटी (Zillat ki roti by Manmohan)


पहले किल्लत की रोटी थी 
अब ज़िल्लत की रोटी है 

किल्लत की रोटी ठंडी थी 
ज़िल्लत की रोटी गर्म है 
बस उस पर रखी थोड़ी शर्म है 

थोड़ी नफ़रत 
थोड़ा खून लगा है 
इतना नामालूम कि कौन कहेगा कि खून लगा है 

हर कोई यही कहता है 
कितनी स्वादिष्ट कितनी नर्म कितनी खुशबूदार होती है 
यह ज़िल्लत की रोटी 

कवि - मनमोहन 
संकलन - ज़िल्लत की रोटी 
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006

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