हत्यारे अक्सर आते हैं
वे दाएँ बाएँ रहते हैं
जाने पहचाने लगते हैं
वे सुबह-शाम "कुछ काम धाम तो नहीं"
पूछने आते हैं
बिना बात हो मेहरबान वे बिगड़े काम बनाते हैं
जब-जब हम चौंक के जगते हैं
या जी धक् से रह जाता है
कुछ आगे का दिख जाता है
जब भी यूँ व्याकुल होते हैं
झटपट चौकस हो जाते हैं
और खड़े कान सरपट दौड़े
वे सीधे हम तक आते हैं
वे बहुत दिलासा देते हैं
और बहुत उपाय सुझाते हैं
कवि - मनमोहन
संकलन - ज़िल्लत की रोटी
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006
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