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शनिवार, 12 जनवरी 2013

मकई का भूंजा (Makai ka bhoonja by Siddhinath Mishra)


स्वाद में घुलती हुई
सोंधी गरम गंध है
जीभ पर -

नवान्न की गंध,
पकती जमीन की गंध,
पके दानों की गंध,

तपे बालू की गंध,
और बालू पर से कभी की बह चुकी
किसी भरी-पूरी नदी की गंध।

तमाम गंध स्मृतियां
घुल-मिलकर
रच रही हैं जो स्वाद
जीभ पर -
नहीं आ पा रहा
उसका नाम।

उस नाम के लिए
मगज क्या मारना,
आप भी आइए
और चाव से चबाइए।

कवि - सिद्धिनाथ मिश्र 
संग्रह - द्वाभा 
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2010


2 टिप्‍पणियां:

  1. यह कविता मुझे पसंद है। सिद्धिनाथजी मेरे शहर हाजीपुर की वर्तमान साहित्यिक जमीन की एक धुरी हैं और उन लोगों में से हैं, जिन्होंने मेरे रचनात्मक जीवन को दिशा दी है। वे न केवल साहित्यिक और शास्त्रीय ज्ञान से भरे हैं, न केवल एक जीवित साहित्य-कोश हैं, बल्कि एक सुहृद कवि भी हैं। इस कविता की रचना-प्रक्रिया का एक गवाह मैं भी हूँ। इसे यहाँ देखकर सुख हुआ। मैं ह्रदय से आभारी हूँ। (ऊपर से सातवीं पंक्ति में 'टेप' की जगह 'तपे' होना चाहिए।)

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  2. Hum Toh Soche The Ki makai Ka bhunjha bata rahe hai Mujhe kya pata Ye Kavita Bata rahe hain🤔🤔

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