बहुत सुखी, संतुष्ट, सफल सार्थक जीवन
जीते हैं कच्छप-जन ये.
जब जो मरजी
कर ली जी की-
टहल लगाई जल में, थल में
चल-बुल धाए,
चर-चुग आए,
क्या सुविधा है अहा !
जहां भी गए, लाद ले गए पीठ पर
घर
नितांत एकांत सुरक्षित.
चलते-चलते जब मन चाहा
घेंट निकाली
दुनिया देखी रंग-बिरंगी,
मुस्काए लख साथी-संगी,
चख ली प्यारी नरम हवाएं,
स्वादांतर के लिए
कभी तो गरम हवाएं.
कोई खटका हुआ कि बस झटपट
सिकोड़ ली गर्दन.
है महान् इतिहास,
इन्हीं के किसी पुरखे ने था
द्रुतधावी खरगोश हराया.
कवि - सिद्धिनाथ मिश्र
संग्रह - द्वाभा
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2012
i love this one! :)
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