भाषा और हवा में एक नाटक चल रहा है
सालों और दिनों से दूर
लेकिन पहली बार
भाषा का पलड़ा भारी पड़ रहा है
आदमी ने अपने दाँत उसके साथ
कर दिए हैं l
मैं भागता नहीं, सिर्फ
मैं अपना चेहरा बाहर निकाल कर
हवा में, एक गोल दायरा छोड़ देता हूँ
बन्द, हत्यारे की बन्दूक दगती है
दीवार में एक चेहरा बन जाता है
और आततायी चौंक पड़ता है
सुनकर ठीक अपने पीछे
दीवार की दूसरी ओर से आता हुआ
मेरा उद्दाम अट्टहास l
सहसा दूसरी बार
मैं एक खोमचे में चला जाता हूँ
और आखिरी बार -
चोली में
छिपा चला जा रहा हूँ l
किताबों का झूठ खोल कर
बैठी रहती हैं वहाँ लड़कियाँ
उनके बालों में रात
गिरती रहती है
कुहरे और नींद से बाहर
एक सपना कुतरता है
दूसरे सपने का जिस्म,
भाषा की हदों से
जुड़ा हुआ मौन
पिछले किस्से सुनाता है l
कवि - धूमिल
संकलन - सुदामा पाँड़े का प्रजातंत्र
संपादन एवं संकलन - रत्नशंकर
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2001
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