अस्येन्द्र कुमारस्य क्रिमीन् धनपते जहि l
हता विश्वा अरातय उग्रेण वचसा मम ll2ll
यो अक्ष्यौ परिसर्पति यो नासे परिसर्पति l
दतां यो मध्यं गच्छति तं क्रिमिं जम्भयामसि ll3ll
यो अक्ष्यौ परिसर्पति यो नासे परिसर्पति l
दतां यो मध्यं गच्छति तं क्रिमिं जम्भयामसि ll3ll
सरूपौ द्वौ विरूपौ द्वौ कृष्णौ द्वौ रोहितौ द्वौ l
बभ्रुश्च बभ्रुकर्णश्च गृध्रः कोकश्च ते हताः ll4ll
ये क्रिमयः शितिकक्षा ये कृष्णाः शितिबाहवः l
ये के च विश्वरूपास्तान् क्रिमीन् जम्भयामसि ll5ll
हतो राजा क्रिमीणामुतैषां स्थपतिर्हतः l
हतो हतमाता क्रिमिर्हतभ्राता हतस्वसा ll11ll
हतासो अस्य वेशसो हतासः परिवेशसः l
अथो ये क्षुल्लका इव सर्वे ते क्रिमयो हताः ll12ll
सर्वेषां च क्रिमीणां सर्वासां च क्रिमीणाम् l
भिनद्म्यश्मना शिरो दहाम्यग्निना मुखम् ll13ll
शिशुओं में विद्यमान कृमियों को दूर करने के मंत्र -
इस कुमार के कृमियों को तू धनपति इन्द्र, कर विनष्ट तुरत
मेरे उग्र 'वचस्' से ये सारे हैं हो गए निहत l
जो आँखों में रेंग रहा है, जो कि नाक में रेंगे दुष्ट
घूम रहा है जो दांतों में, उस कृमि को करते हम नष्ट l
दो सरूप हैं, दो विरूप हैं, दो काले, दो हैं लोहित
भूरा, भूरे कानों वाला, गृध्र, कोक - सब हुए निहत l
जो कृमि श्वेत कांख वाले, जो काले, श्वेत बांह वाले
विश्वरूप जो, उन सबको हम क्षण में यहाँ मार डालें l
हत कृमियों का राजा, इनका हत होकर सरदार गिरा
हत भ्राता, हत है स्वसा, स्वयं हत कृमि गिरा पड़ा l
इस कृमि के पास दूर के साथी, सभी हो गए हैं हत
है जिनका आकार सूक्ष्म, वे सब कृमि हत हो गए तुरत l
सब नर मादा कृमियों का सर मैं हूँ फोड़ रहा पत्थर से
और अग्नि से जला रहा मुख, (दूर रहें ये मेरे घर से) l
अथर्ववेद (शौनकीय), पञ्चम काण्ड, पञ्चम अनुवाक, द्वितीय सूक्त
मंत्र संख्या- 2,3,4,5,11,12,13
मूल - सायण भाष्य सहित और विश्वबन्धु द्वारा संपादित
प्रकाशक - विश्वेरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, 1960
प्रकाशक - विश्वेरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, 1960
पुस्तक - प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास
हिंदी अनुवाद - विशिष्ट अनुवाद समिति
हिंदी अनुवाद - विशिष्ट अनुवाद समिति
लेखक - एम. विंटरनिट्ज
प्रकाशक - मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 1961
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