देवे कुर्वति दुर्दिनव्यतिकरं नास्त्येव तन्मन्दिरं
यत्राहारगवेषणाय बहुशो नासीद् गता वायसी ।
किन्तु प्राप न किञ्चन क्वचिदपि प्रस्वापहेतोस्तथा
प्युद्भिन्नार्भकचञ्चुषु भ्रमयति स्वं रिक्त-चञ्चुपुटम् ।।
अर्थात्
कैसा दुर्दिन दिखाया देव ने
पानी बरसता ही रहा लगातार
कोई घर नहीं था जहाँ न गई हो कौवी
दाना खोजने के लिये.
पर कहीं से कुछ न पा सकी.
चोंचें खोले हुए चूजों को सुलाने के लिये अब वह
घुमा रही है अपनी खाली चोंच
उनकी चोंचों में.
कवि - अज्ञात
अनुवाद - डा राधावल्लभ त्रिपाठी
संग्रह - संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा
प्रकाशक - रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा, मध्य प्रदेश, 2000
प्रकाशक - रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा, मध्य प्रदेश, 2000
बहुत अच्छी कविता ! यहाँ साझा करने के लिए आभार पूरब दी।
जवाब देंहटाएं