आसमाँ उगलता है भर-भर मुँह आग
घोड़ों के जबड़ों से झड़ता है झाग
ऊब है, थकावट है, गुस्सा है, पस्ती है
लुटे-पिटे लोगों से पटी पड़ी बस्ती है
बस्ती का नूर हुआ बस्ती से दूर
बस्ती में कोई मैदान है न बाग !
बस्ती में बच्चे हैं, सच्चे हैं छलियों में
उछल-उछल खेल रहे गेंद तंग गलियों में
वे हैं, तो वह भी होगा कहीं जरूर
होगा ही होगा, जो नाथेगा नाग !
घोड़ों के जबड़ों से झड़ता है झाग
ऊब है, थकावट है, गुस्सा है, पस्ती है
लुटे-पिटे लोगों से पटी पड़ी बस्ती है
बस्ती का नूर हुआ बस्ती से दूर
बस्ती में कोई मैदान है न बाग !
बस्ती में बच्चे हैं, सच्चे हैं छलियों में
उछल-उछल खेल रहे गेंद तंग गलियों में
वे हैं, तो वह भी होगा कहीं जरूर
होगा ही होगा, जो नाथेगा नाग !
कवि - राकेश रंजन
संकलन - जनपद : विशिष्ट कवि
संपादक - नंदकिशोर नवल, संजय शांडिल्य
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, 2006
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