चाचाजी - श्री गंगानंद झा से मेरा पहला परिचय 1980 का है। सीवान (बिहार) के डीएवी कॉलेज में वनस्पतिशास्त्र (बॉटनी) के प्रोफ़ेसर जो देवघर (झारखंड का बैद्यनाथ धाम) के पंडा समुदाय से थे। उनकी भाषा ने मुझे सबसे पहले आकर्षित किया था। मैं हिंदी साहित्य में सक्रिय कवि की नतनी और कवि-आलोचक पिता एवं साहित्यानुरागी माँ की बेटी थी। कवि अपूर्वानंद के पिता होने के नाते चाचाजी से परिचय धीरे धीरे प्रगाढ़ होता गया। साल में दो-चार बार वे बेटे से मिलने सीवान से पटना आते थे तो हमारे घर आते थे। हमारे ड्राइंग रूम में बैठकी होती थी और उसमें खूब साहित्यिक चर्चा होती थी। राजनीतिक मुद्दों पर भी बातचीत होती थी। हमारे यहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), प्रगतिशील लेखक संघ (PWA), भारतीय जननाट्य संघ (IPTA) और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISF) के नए-पुराने साथियों का अड्डा लगता ही रहता था। उन गहमागहमी वाली अनौपचारिक बैठकों से अलग स्वर होता था जब चाचाजी से पापा की गपशप होती थी। उसमें माँ की शिरकत स्वाभाविक रूप से होती थी जो चाचाजी की साहित्य में पैठ से बहुत प्रभावित थी। माँ-पापा-भैया शुरू से यह कहते थे कि अपूर्वानंद की साहित्य और राजनीति में दिलचस्पी का मूल स्रोत गंगा बाबू हैं। अभी पटना से हिंदी के प्रोफ़ेसर तरुण कुमार का शोक संदेश आया - "सम्माननीय गंगा बाबू को विनम्र श्रद्धांजलि" तब फिर से यह संबोधन कौंधा था गंगा बाबू!
कभी कभी मैं चाचाजी को चिट्ठी लिखने लगी थी। हालचाल और पटने का समाचार उन चिट्ठियों में होता था और कहीं हौले से उनके बेटे का समाचार भी। एक बार कोई छोटा सा आयोजन अपूर्वानंद ने अपने डेरे (पटना के मखनिया कुआँ रोड की एक गली में स्थित किराये के अपने कमरे) में किया था। मौका क्या था, ठीक ठीक याद नहीं है मुझे। लेकिन उसके बारे में बताते हुए जो चिट्ठी मैंने चाचाजी को लिखी थी उसकी जवाबी चिट्ठी की एक पंक्ति मेरे दिमाग में अटकी हुई है। उन्होंने लिखा था कि "अरे प्रकृति ने यह आयोजन मेरे बिना कर लिया!" यह शिकायत नहीं थी। स्नेह था और कहीं न कहीं बेटे को लेकर उनकी आश्वस्ति का उद्गार था। मेरे लिए यह इतना कवित्वपूर्ण था कि क्या कहूँ!
मैं कब चाचाजी से बाबूजी संबोधन पर आ गई, याद नहीं। वे अपनी चिट्ठी में नीचे "आशीर्वादक बाबूजी" लिखने लगे थे। बाबूजी के बाकी आत्मीय जन इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि वे चिट्ठी खूब लिखते थे। उनकी लिखावट देखने में थोड़ी उलझी लगती थी क्योंकि पार्किन्सन की वजह से शुरू से उनका हाथ काँपता था। उसमें सुलेख की तरह अक्षर नहीं होते थे, मगर वे इतने सुलिखित और स्पष्ट होते थे कि उसका सानी नहीं। उनकी हर चिट्ठी एकदम अलग तरीके से शुरू होती थी। उनके पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और मेल को पढ़ो तो शब्दों के प्राचुर्य और अलग अलग छवियों का पता चलता है। एकदम सही वर्तनी और वाक्य संरचना ऐसी कि हिंदी के शिक्षक भी उनसे सीखें। हिज्जे देखिए तो अधिकतर वैसा जैसा संस्कृतवाले/वाली लिखें – गङ्गानन्द। संयुक्ताक्षर में खासकर। आगे चलकर जब वे संस्मरण लिखते या विज्ञानसंबधी लेख लिखते तो भी हरेक का तेवर, हरेक की शैली अलग होती थी।
बाबूजी हिंदी, अंग्रेज़ी, बांग्ला के अच्छे जानकार थे। उनका बांग्ला किताबों से प्रेम कमरे में अहर्निश चलते बांग्ला टीवी चैनल तक में झलकता था। रवींद्र संगीत हो या बांग्ला में सुकान्त भट्टाचार्य या नज़रुल गीति हो, बाबूजी घंटों सुनते थे और उस पर बात करना पसंद करते थे। उनसे बांग्ला गीत सुन-सुनकर मेरी बेटी को भी कुछ गीत याद हो गए थे। छुटपन में एक बार उसकी शिक्षिका ने आश्चर्य जताया था तो उसका जवाब था कि “मेरे दादू बंगाली हैं।” बांग्ला के अलावा उर्दू और पंजाबी में भी उनका दखल था। कामलायक गुरुमुखी तो पढ़ ही लेते थे, भले पंजाबी धड़ल्ले से न बोलें। बांग्ला से हिंदी में और अंग्रेज़ी में उन्होंने अनुवाद भी किया है। मुझे याद है कि जब मैं एक पाठ्यपुस्तक अध्ययन (टेक्स्टबुक स्टडी) का हिस्सा थी तब उन्होंने आग्रह पर पश्चिम बंगाल की बांग्ला पाठ्यपुस्तक से कविता के अंश का अंग्रेज़ी में बहुत सुंदर अनुवाद किया था। हमारे मित्र सत्या शिवरमन ने बाबूजी को ऐसे याद किया -
“I have very fond memories of him from my interaction many years ago when he translated all those articles on health from Bangla to Hindi. A great loss for everyone.”
फ़ेसबुक पर बाबूजी दुनिया जहान की किताबों से खूब उद्धरण देते थे और फिर उनपर अपना मंतव्य देते थे। वे सूक्ति से कम नहीं लगते थे और बड़ी संख्या में मौजूद बाबूजी के नौजवान मित्र उन विवेचनाओं से मुतास्सिर होते थे। उनका सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ हमेशा स्पष्ट रहता था। बाबूजी ने कभी उसे छिपाने का प्रयास नहीं किया। संयत और दृढ़ स्वर में वे अपनी बात रखते थे और मैंने कठहुज्जती या बदतमीजी करनेवाले बंदे को भी उनके सामने निरुत्तर होते देखा है।
विज्ञान की शोधपरक पत्रिका और एक-दो साहित्यिक पत्रिका में बाबूजी के चंद लेख छपे हैं, लेकिन वे अधिक सक्रिय रहे वेब पत्रिकाओं और पोर्टल पर। ट्विटर, इंस्टाग्राम पर भी उन्होंने खाता खोला था, मगर वे बाशिंदे थे फ़ेसबुक की दुनिया के ही। इससे ध्यान आता है उनका कंप्यूटर से रिश्ता। 1996 में चंडीगढ़ आने के बाद चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर से मित्रता ज़रिया बनी थी उनके कंप्यूटर ज्ञान का। बाबूजी के ही शब्दों में -
"चंडीगढ़ आने के बाद ... मेरे लिए सेवानिवृत्त जीवन के इस सर्वथा भिन्न परिवेश में अपने लिए प्रासंगिकता तथा परिचय गढ़ने की चुनौती थी। मेरे पास अवसर पर्याप्त था। कम्यूटर की उपलब्धता ने मुझे नया सीखने के आनन्द और उपलब्धि से प्राणवन्त किया। नए सम्पर्क सूत्र कायम हुए। मेरे परिचय में प्रासंगिकता जुड़ी। इसी बीच अपु [अपूर्वानंद] ने बांग्ला के कवि जय गोस्वामी की कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने को कहा। मैं जय गोस्वामी की कविताओं के विशिष्टता को समझना चाहता था। इसलिए अपने निकट के फ्लैट में रहनेवाली डॉक्टर सुष्मिता चक्रवर्ती से बात की। डॉ सुष्मिता को साहित्य से गहरा लगाव है। वे एक व्यक्ति के साथ एक दिन आई, और उनका परिचय देते हुए कहा कि जय गोस्वामी की विशिष्टता के बारे में आप इनसे जानिए। वे पंजाब विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग के प्रोफेसर हरजिन्दर सिंह लाल्टु थे। हिन्दी, बांग्ला, पंजाबी और अंगरेजी साहित्य में विचरण करनेवाले व्यक्ति। लाल्टु ने अपने सहकर्मी बौद्ध अध्ययन सह तिब्बती भाषा के प्राध्यापक डॉ विजय कुमार सिंह से परिचय कराया और उसके बाद डॉ वी.के सिंह के साथ नियमित सम्पर्क बन गया। इस सम्पर्क ने मुझे कम्प्यूटर में लिखने और इण्टरनेट का उपयोग करने में आत्मविश्वास दिया। इस तरह मैं अपनी लिखावट के अपाठ्य होने की असुविधा से मुक्त हो गया। अब तो मैं कलम पकड़ नहीं पाता, पर कम्प्यूटर के उपयोग से सुगमतापूर्वक पन्ने पर पन्ना लिखा करता हूँ।"
चंडीगढ़ प्रवास ने बाबूजी के लिए अलग झरोखा खोला था। वे अपनी सेवानिवृति के बाद अपने बड़े बेटे और बहू के पास सीवान से चंडीगढ़ आए थे। नौकरी से फुरसत पाकर वे देवघर रहना चाहते थे, लेकिन वहाँ अपने पैतृक घर में रहने की उनकी लालसा पूरी नहीं हुई। वहाँ अम्मी (मेरी सास) के बिना रोज़मर्रा की व्यवस्था उनसे संभव न थी और जिस आठ भाई बहन के भरे पूरे परिवार में वे पले बढ़े थे उसका ढाँचा बदल चुका था। अब चंडीगढ़ में दादूभाई (पोता) जीवन के केंद्र में था। मैंने देखा था कि अम्मी-बाबूजी ने अपने दोपहर के खाने का समय बढ़ा दिया था और दादूभाई के स्कूल से लौटने के बाद तीनों इकट्ठे खाना खाते थे।
उनकी रुटीन व्यवस्थित हो चली थी जिसमें लिखना-पढ़ना, कंप्यूटर-फ़ोन में व्यस्त रहने के साथ टहलना, गिने-चुने दोस्तों से मिलना-जुलना शामिल था। केवल पंजाब नहीं, वहाँ बसे हुए तमिलनाडु, गुजरात, केरल के लोगों से भी उन्होंने आगे बढ़कर अपने परिचय का दायरा भी बढ़ाया। बीच में ओल्ड एज होम के डे केयर सेंटर में बैठकी के लिए जाने लगे थे। उनकी रोशनी में वे महानगरीय जीवन का विश्लेषण वैसे ही करते थे जैसे कोई समाजशास्त्री करे।
2021 में मुझे मामाजी - डॉ. शंकरनाथ झा ने बाबूजी के लेखन को संकलित करते हुए उनकी जीवन यात्रा को किताब की शक्ल में लाने का जिम्मा दिया था। रिश्ते की नज़दीकी के कारण मैं घबराई थी, लेकिन फिर मैंने संकलन-संपादन को काम को निर्वैयक्तिक तरीके से करने का दायित्व लिया। बाबूजी के प्रिय शब्द ‘जय यात्रा’ को लेते हुए किताब का नामकरण किया - “मेरी जय यात्रा”। यह कोविड का दौर था, मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत उथल-पुथल से भरा हुआ दौर। उस दौरान बाबूजी के बिखरे हुए आत्मकथात्मक लेखन के टुकड़ों को पिरोते हुए मुझे लगा था कि मैं पिछले 30 सालों के साथ में उनके बारे में बहुत कुछ नहीं जानती थी। बाबूजी के इन शब्दों को किताब की भूमिका में सजाते हुए मैं अनमनी हो गई थी -
“अपने बारे में शैशव से ही एक तस्वीर थी कि बड़ा होकर विद्वान, आत्मभोला लेखक बनूँ, हर वक्त किताबों से घिरा रहूँ। हो नहीं पाया, इसलिए ललक बनी रही। फिर बड़ा हुआ तो सोचता रहा कि क्या कभी ऐसा लिख पाऊँगा जिसे लोग पढ़कर पसंद करेंगे।"
"चंडीगढ़ का निर्वासन लिखने की प्रचुर सुविधा के साथ मिला। सो लिखता रहा। संयोग मेरा ऐसा हुआ कि मुझे टाइप करने का अवसर तब भी मिलता रहा जब मेरे पास कहने को, लिखने को कुछ नहीं था। मेरा लिखा ‘भाजो का कुनबा’ में शामिल होकर मुझे प्रकाशित कर गया। अब मेरे लिखने को संजोने का आग्रह। मेरे लिए भावुकता से भरा अनुभव है। मुझे तो प्रस्तुत होना है। अब थकावट और असमर्थता छा गई है।”
आज मैं बाबूजी की पढ़ाई-लिखाई की तड़प को और शिद्दत से समझ पा रही हूँ -
“नौकरी से सेवानिवृत्ति के निकट पहुँच जाने के समय की बात है। सुबह सुबह सोच रहा था कि अगर अगला जनम होता हो और मुझे चुनने की सुविधा मिले तो क्या चाहूँगा। कौन सा काम जो करना चाहिए था, पर हो नहीं पाया? जवाब मिला - पढ़ना सीख पाऊँ, कैसे कुशलतापूर्वक पढ़ा जाता है?”
आगे वे लिखते हैं -
“सारी ज़िंदग़ी पढ़ाई से ही पहचान रहने के बावजूद मैं शिद्दत से महसूस करता रहा कि पढ़ने में दक्ष नहीं हो पाया। लोग कैसे इतनी किताबें पढ़ लेते हैं, उनका मर्म आत्मसात कर लेते हैं। मैं नहीं हो पाया। शायद इसीलिए जो लोग पढ़ने में दक्ष होते हैं, वे मुझे अच्छे लगते हैं।”
बाबूजी के लिए सही मायने में पढ़ाई-लिखाई का मतलब था इंसान बनना, अच्छी नौकरी पाना या सुविधासंपन्न होना नहीं। वे आजीवन ‘सफलता’ की दुनियावी कसौटी पर सवाल खड़ा करते रहे। इसे तबतक नहीं समझा जा सकता जबतक हम उनकी पृष्ठभूमि से न परिचित हों। बाबूजी के शब्दों में -
"बीसवीं सदी का चालीस का दशक, अतुलनीय रूप से उद्दीपनाओं तथा उत्तेजनाओं से भरा हुआ। देवघर के आकाश में हवाई जहाज का शोर सुनकर बालक-बड़े सब घरों से निकलकर ऊपर देखा करते, बच्चे चिल्लाते, “उड़ो जहाज, उड़ो जहाज।”। बड़ों से मालूम होता उन्हें कि दूर बहुत दूर अंग्रेजों के देश में लड़ाई लगी हुई है। ... द्वितीय विश्व-युद्ध की गूँज थी यह। जगह-जगह, सिनेमा के पर्दे पर, हैंडबिल्स में लिखा मिलता, “तन-मन-धन से ब्रिटिश सरकार की मदद कीजिए।” सड़कों पर नारे सुनाई देते, अंग्रेजो, भारत छोड़ो, स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” “गाँधी नेहरू, सुभाष”, “ब्रह्मा, विष्णु, महेश” की तर्ज पर त्रिदेव का दर्जा पाए हुए थे। क्रान्तिकारियों की कहानियाँ परी कथाओं की तरह हैरत तथा गर्मजोशी से कही-सुनी जाया करती थीं। ...सत्याग्रही और क्रान्तिकारी के बीच फर्क करने की मानसिकता नहीं बनी थी तब। अछूतोद्धार, “हिंदू-मुसलिम-सिख-ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई”, जैसी अवधारणाएँ देवघर की ठहरी हुई, बँधी-बँधाई चेतना को झकझोर रही थीं।
रूस मे सर्वहारा की सत्ता, जापान का शौर्य, जर्मनी में हिटलर का स्वस्तिक को सम्मान, आर्य़-जाति की अवधारणा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएँ। हिंदुत्व का प्रचार। और फिर सन् ‘43 में बंगाल का भीषण अकाल। मुनाफाखोरों और कालाबाजारियों के द्वारा तस्करी से अनाज के बंगाल भेजे जाने के कारण देवघर भी भूखमरी की गिरफ़्त में था। कंट्रोल तथा व्लैक-मार्केटिंग से चावल खरीदने की आपाधापी में भी लोगों की दीक्षा का दौर था यह काल-खंड।
टॉमियों की एक टुकड़ी देवघर के आर. मित्रा. हाई स्कूल के परिसर में ठहरा हुई थी। वे लोग बीच-बीच में बाजार में निकला करते। आजाद हिन्द फौज का आविर्भाव। जय हिन्द के नारे। ढिल्लों, सहगल, शाहनवाज; इन्किलाब जिन्दाबाद की गूँज। लड़के-लड़कियों ने आजाद हिन्द फौज की वर्दियां सिलवाईं, पारस्परिक अभिनंदन जय हिन्द होने लग गया था।
चेचक की महामारी में एक-एक दिन में बीस-बाइस शिशुओं की मृत्यु का ताण्डव हुआ था। साथ-साथ कलकत्ते में बमबारी के बाद लोगों का पलायन कर आश्रय के लिए यहाँ भीड़ करना जैसे काफी नहीं था। सन 46 में भीषण सांप्रदायिक दंगों के बाद लाशों से भरी रेलें जसीडीह होते हुए गुजरती रही थीं। लोगों ने सुना था “बंगाल का बदला बिहार में लेंगे”।
14 अगस्त, सन 1947 की रात, बारह बजने की प्रतीक्षा। टावर घड़ी चौक पर राष्ट्रीय तिरंगे का ध्वजोत्तोलन एसडीओ साहब द्वारा। जो विदेशी सत्ता के प्रतिनिधि होकर स्वदेशी आंदोलनकारियों के प्रतिपक्ष की भूमिका में थे, वे अब उन्हीं के प्रतीक होने जा रहे थे। एक एक मिनट गिना जा रहा था, खड़े-खड़े हम गुलाम भारत से आजाद भारत की मिट्टी पर आ जाने वाले थे।
वैसे लोग भी थे जिनके लिए यह दिन आजादी नहीं, निःस्वता का था, वे शरणार्थी हो गए थे, रिफ्यूजी। उनका देश भारत था, पर वतन पाकिस्तान हो गया था। फिर 30 जनवरी सन् 1948 महात्मा गाँधी की हत्या। अविश्वसनीय, पर सत्य। सारी संवेदना को शून्य करने की क्षमता से लबालब।
हमारे होने के काल-खंड का अपना ही अनूठापन रहा है; चालीस के दशक ने हमें परिवेश के प्रति संवेदनशीलता दी; हमारी चेतना और हमारे मन की कूट-लिपि की रूपरेखा इसी अवधि में बनी थी। हमारी बाल्यावस्था और किशोरावस्था की अवधि इसी काल-खंड में थी। ... मेरी चेतना इसी में अंकुरित हुई है। उसके उद्दीपन एवं उत्तेजना की प्रचुरता ने मेरी राह तय की है और मुझे पाथेय जुगाया है। पथ पर मैं संबलहीन ही उतरा था, पड़ाव मिलते गए और ये पड़ाव ही मुझे पाथेय उपलब्ध कराते गए।”
आगे की पढ़ाई के लिए बाबूजी भागलपुर और पटना गए। उस बीच और स्नातकोत्तर के बाद की उनकी यात्रा के पड़ाव विविध थे - सबौर (भागलपुर) स्थित बिहार सरकार के एग्रिकल्चर रिसर्च इंस्टिट्यूट के प्लांट पैथॉलॉजी विभाग में कनीय अनुसन्धान-सहायक (जूनियर रिसर्च एसिस्टैंट), पटना विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में लैब़रैटरी एसिस्टैंट से लेकर देवघर (झारखंड), तुर्की (बिहार) और बराकर (प. बंगाल) के स्कूल से होते हुए सिलचर (असम) के जी. सी. कॉलेज और वापस सीवान के डीएवी कॉलेज में शिक्षक की भूमिका तक। इन छोटी-बड़ी यात्राओं ने उन्हें समृद्ध किया, मित्रताएँ अर्जित करने का अवसर दिया। जब वे सिलचर पहुँचे तो 1960-61 के भाषा आंदोलन का दौर था वह। उनकी मित्र-मंडली में अधिकतर लोग देश के बँटवारे के कारण बने पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित हुए समुदाय से थे। सिलचर में बिताए बीस महीने के तजुर्बे के बारे में उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक लिखा है -
“मुझे ऐसा लगता रहा है कि मेरे मन में आदमी के प्रति, मानवीय संवेदनाओं के प्रति आस्था और ललक को खुराक देने में इसका असरदार योगदान रहा है।”
सिलचर की ऊष्मा मुझे बाबूजी के सिलचर के परम मित्र श्री अनंत देव चौधरी के भतीजे श्री अमिताभ देव चौधरी के शोक संदेश में भी दिखी। उनको जब मैंने बाबूजी के चले जाने के बारे में सूचित किया तो उनका जवाब आया था -
“I am bereaved ! He was my uncle's one of the most intimate friends. I found in him a most affectionate father. After the death of his wife, he became somewhat detached.... Shall never forget him... He translated some of my write-ups and published the translations in a Hindi magazine. All these memories are crowding up. !!”
वाकई स्मृतियाँ हमारी पूँजी हैं! 2012 में बाबूजी ने ही गर्भनाल पत्रिका से मेरा परिचय करवाया था। पहले पहल किसी हिंदीप्रेमी विदेशी व्यक्ति ने भाषासंबंधी जिज्ञासा व्यक्त की थी कि “सन् में हलन्त (हल् के साथ) क्यों लगाया जाता है” और उसे उन्होंने मुझे प्रेषित किया था। आज इस पत्रिका में उनके बारे में लिखते हुए अजीब लग रहा है!
92 साल की उम्र में 24 जून, 2025 को चंडीगढ़ के आवास में बाबूजी ने दुनिया से विदा ली। वे अंत अंत तक मानसिक रूप से सचेत थे। शारीरिक रूप से निढाल बहुत बाद में हुए। अपनी शर्तों पर उन्होंने जीवन जिया। वैज्ञानिक चेतना उनके जीवन जीने की शैली में गुँथी हुई थी। उन्होंने मृत्यु के उपरांत कोई कर्मकांड करने से मना कर दिया था और चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल को अध्ययन व शोध के लिए अपना शरीरदान कर देने की बात कह-लिख रखी थी। उनकी इच्छा का मान रखा गया और पूरे परिवार ने इकट्ठे उन्हें पीजीआई अस्पताल में विदा किया। और उनकी स्मृति में अस्पताल से दिए गए पौधे को हम सब घर ले आए, मानो बाबूजी नए रूप में साथ आए!
यह संस्मरण मैंने वेब पत्रिका 'गर्भनाल' के लिए लिखा था। बाबूजी लंबे समय तक 'गर्भनाल' से जुड़े थे। उन्होंने कई अंकों का संपादन भी किया था। उस पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद यहाँ डाल रही हूँ।
बाबूजी स्मृतिशेष छविशेष - Garbhanal
बेहद आत्मीय स्मृति! इसे लिखने के लिए आभार
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