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मंगलवार, 19 अगस्त 2025

रौशनदान (Roshandaan by Purwa Bharadwaj)

हिन्दी की रचनाओं में यदा कदा रौशनदान शब्द मिल जाता है। उर्दू में थोड़ा ज़्यादा। फ़ारसी तो मूल ही है इसका।मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ 'मद्दाह'  के उर्दू हिन्दी शब्दकोश में इसका अर्थ दिया हुआ है "मकान में रौशनी आने का सूराख"। यह अर्थ सर्वज्ञात है। हाँ, मुझे इसके हिज्जे में हमेशा लगता है कि रोशनदान लिखूँ या रौशनदान। 'दान' प्रत्यय है, यह स्पष्ट है। इसकी तरह "गुलदान" जैसे शब्द आमफ़हम हैं। 

अक्सर लगता है कि रौशनदान जैसे शब्द ही नहीं, उनसे जुड़ी सारी संवेदनाएँ, सारे अनुभव अब धीरे धीरे मिटते जा रहे हैं। हाल ही में जब मैं नव उदारवाद, बाज़ारवाद आदि के बारे में पढ़ रही थी तो भाषा पर उसके प्रभाव का सवाल फिर से ज़ेहन में आया था। पिछले साल जब निरंतर के 'युवा, यौनिकता और अधिकार कोर्स' के एक सत्र के दौरान एक सहकर्मी ने संस्कृति के क्षेत्र में नव उदारवाद के व्यापक असर की बात की तो पता नहीं क्यों मेरा ध्यान उस सभा कक्ष की बनावट और उसमें भी रौशनदान न होने पर गया था। क्या स्थापत्य को भी बाज़ार ने जकड़ दिया है, क्या रौशनदान का भी इन व्यापक ढाँचों से रिश्ता है ?

रौशनदान नहीं है मेरे घर में। अभी वाले घर में जो कि तीन तल्ले पर है, उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियों ने रौशनदान की कमी को पूरा करने का काम किया है। उसके पहले जब हम बहुमंज़िली इमारत में नहीं रहते थे तब उन सारे घरों में रौशनदान ज़रूर हुआ करता था। 

लेकिन क्या रौशनदान का रिश्ता मकान कहाँ स्थित है यानी किस तल पर है - भूतल या प्रथम-द्वितीय-तृतीय आदि तल से है ? (यहाँ ग्राउंड फ्लोर की जगह भूतल लिखना ज़रा पराया सा शब्द लग रहा है, हालाँकि मैं हिन्दी के शब्दों के भरसक इस्तेमाल की हामी हूँ) असल में मकान की बनावट महत्त्वपूर्ण है। उसमें तल तो मायने रखता ही है, अलग अलग काम के लिए बनाए गए कमरों के आकार-प्रकार, लंबाई-चौड़ाई के साथ छतों की ऊँचाई की भी भूमिका होती है। पटना में ही माँ-पापा जब बुद्ध कॉलोनी के अपार्टमेंट में आ गए थे तब राजप्रिया अपार्टमेंट में रौशनदान नहीं है, इसे सबसे पहले माँ ने चिह्नित किया था। 

पटना के रानीघाट, गुलबीघाट, घाघा घाट के सारे घरों में रौशनदान था। वैसे वे सारे घर अलग अलग ऊँचाई पर थे। रानीघाट में सीढ़ी से ऊपर जाकर आँगन था फिर एक और तल था जहाँ पापा का कमरा, मेरा कमरा और सामने छत थी। पापा के कमरे की खिड़की के ऊपर जो रौशनदान था उससे जब बारिश के छींटे आते थे तो उनकी मेज़ पर रखी किताबों को बचाने के लिए हममें से कोई फटाफट नीचे से भागकर आता था। उस ज़हमत के बाद कभी किसी ने रौशनदान के होने को दोष नहीं दिया। उन दिनों रौशनदान घर का ज़रूरी हिस्सा होते थे। प्राकृतिक रौशनी और हवा आने-जाने का ऐसा ज़रिया जिसके बिना घर घर न लगे। 

रानीघाट में मेरे छोटे से कमरे में खिड़की से हटकर ठीक मेरे बिस्तर के ऊपर रौशनदान था जहाँ से कभी झाँको तो बगलवाले मकान की छत दिखती थी। वह बड़ा दिलचस्प था क्योंकि बगलवाले मकान की छत की ऊँचाई इतनी थी कि वहाँ कोई खड़ा हो तो मेरे रौशनदान से उसका घुटना ही दिखता था। अलग अलग समय में दोनों मकान बने होंगे तभी ऐसा हुआ होगा कि दोनों की सतह में इतना अंतर था। इतना तय है कि उस समय बस कौतूहल का सबब था वह रौशनदान। उस रौशनदान से मुझे दूर आसमान पर उड़ती पतंगों की झलक भी याद है। ऐसा नहीं था कि मेरे लिए खिड़की-दरवाज़े बंद थे। छत पर जाने की भी मनाही नहीं थी कि रौशनदान रौशनी का इकलौता ज़रिया हो। तब भी रौशनदान से बाहर झाँकना एक अलग किस्म की सनसनाहट पैदा करता था। 

गुलबीघाट की लखनचंद कोठी में हम जब आए तबतक मेरा बसेरा शादी हो जाने के कारण राजेंद्रनगर हो गया था। बहुत कम लखनचंद कोठी में रात बिताने का मौका मिला मुझे। जब कभी वहाँ माँ के कमरे में सोती थी तो अटपटा लगता था कि कोई रौशनदान नहीं था। जबकि ड्राइंग रूम में, पापा की स्टडी में और किनारे वाले भैया के कमरे में भी रौशनदान था। वजह घर की बनावट ही थी। बाकी कमरों की तरह माँ के कमरे में भी बडी बड़ी खिड़कियाँ ज़रूर थीं, फिर भी मुझे रौशनदान की कमी खटकती थी। माँ के कमरे में सामने एक बड़ी सी खिड़की थी और उसकी पिछली दीवार में दो बड़ी बड़ी खिड़कियाँ थी जो एक स्टोर रूम में खुलती थीं। उसमें पीछे एक बड़ा दरवाज़ा था जो सामने खुली जगह में खुलता था। माँ ने उसमें गोभी वगैरह की खूब खेती करवाई। जब जब वह पीछेवाला दरवाज़ा खुलता था माँ का कमरा और रौशन हो जाता था। मानो वह दरवाज़ा न होकर बड़ा सा रौशनदान हो!

माँ के कमरे में सामने की तरफ खिड़की-दरवाज़ा और आँगन था, इसलिए रौशनी की कमी नहीं थी वहाँ, लेकिन मुझे रौशनदान का न होना क्यों याद रह गया ? कहीं ऐसा तो नहीं कि शादी के बाद मेरा कोई कमरा उस घर में नहीं रह गया था और मैं उस कसक को रौशनदान की कमी में तलाशती रही ! नहीं नहीं, मैं भटक रही हूँ... 

साँस लेने का ज़रिया है रौशनदान, यह कहना क्या घिसा-पिटा वाक्य दोहराना है ? मुझे कुछ किस्से पता हैं जब रौशनदान से न केवल प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान होता रहा है, बल्कि प्रेमी-प्रेमिका ने जुगत लगाकर मुखड़ा भी देखा है। मुझे कोई फ़िल्मी दृश्य तो याद नहीं है, लेकिन खोजे ज़रूर मिल जाएगा। 

आम तौर पर पक्के मकान में दीवार के ऊँचाई वाले छोर पर और छत के करीब होता है रौशनदान। यानी उस तक पहुँचना कठिनाई भरा है। तब भी रौशनदान घर में सेंध लगाने का रास्ता रहा है। इसकी खबरों का दस्तावेजीकरण हुआ है। उनकी समाजशास्त्रीय व्याख्या मुमकिन है। 

पहले घरों में रौशनदान चौकोर या आयताकार खुले होते थे। धीरे-धीरे रौशनदान को सुरक्षा के लिहाज से देखा जाने लगा। उसमें सलाखें लगने लगीं, लकड़ी के पल्ले भी लगने लगे। इसी से याद आया दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित अपने पुराने क्वार्टर का। वह पुराने किस्म का क्वार्टर था जिसकी छत बहुत ऊँची थी। इतनी ऊँची कि आजकल के हिसाब से उसमें दो मंज़िल तो नहीं, मगर एक मंज़िल के बाद आधी मंज़िल तो बन ही जाए। उसमें बड़े बड़े रौशनदान थे और उनमें लकड़ी का पल्ला लगा था। बारिश के वक्त या आँधी के वक्त उसे नीचे गिराना होता था। अब यह आसान तो नहीं था, इसलिए उसमें रस्सी लटका दी गई थी ताकि ज़रूरत के हिसाब से रौशनदान का ढक्कन लगा दिया जाए। ऐसा मैंने पहली बार देखा था। एक बार जब रौशनदान से लटकती रस्सी टूटकर काफी ऊपर चली गई थी तो मैंने अपने इलेक्ट्रिशियन अली (जो अब नहीं रहा) से मदद ली थी। उसने नई मज़बूत रस्सी बाँधी थी ताकि रौशनदान का इस्तेमाल मनचाहे तरीके से हम कर सकें। 

इंसान के दिमाग की उपज है रौशनदान, इसलिए उस पर नियंत्रण रखना, उसे अपनी ज़रूरत के मुताबिक रंग-रूप, आकार-प्रकार देना इंसान करता रहा है। यदि अंग्रेज़ी में रौशनदान के समानार्थी Skylight के इतिहास पर जाएँ तो ईसा पूर्व प्राचीन रोमन वास्तुकला तक जाना होगा। धीरे धीरे खुले रौशनदान की जगह पारदर्शी या रंगीन शीशे और प्लास्टिक आदि से ढँके रौशनदान का चलन हुआ। उसमें कोण बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि रौशनदान में/से सूरज की किरण सीधे पड़ेगी या तिरछे इससे भवन का तापमान निर्धारित होता है। उससे जुड़ जाता है सौर ऊर्जा के संरक्षण का मामला और भवन को ठंडा-गर्म रखने का मामला। मतलब पूरा विज्ञान भी समाया है रौशनदान में!

अभी मुझे दिल्ली के शाहपुर जाट इलाके में बिताए अपने 9 साल याद आ रहे हैं। वहाँ कई तल्ले वाले मकान ऐसे थे जिनमें ऊपर सीढ़ी चढ़ते जाइए और बीच में जालीदार छत देखते जाइए। समझ में आया कि खिड़की न होने की कमी की वे भरपाई कर रहे हैं। और जब खिड़की नहीं है, बालकनी नहीं है, दालान या बारामदा नहीं है तो रौशनदान क्या खाक होगा ! मुझे लगा कि रौशनदान के विचार को ही जालीदार छत में पिरो दिया गया है ताकि घर अँधेरा न लगे। धूप-हवा की गैरहाज़िरी और उसके कारण सेहत की चिंता भाड़ में जाए, असल है बाज़ार! घर बिक जाए या उसमें किराया लग जाए, इसको सुनिश्चित करने में मददगार होती है रौशनदाननुमा जालीदार छत! 

यदि कहीं नए नए मकान में आपको गोलाकार रौशनदान जैसी खुली जगह दीवार में दिखे तो खुश मत होइए कि रौशनदान की घरवापसी हो रही है। वह exhaust fan के लिए बनाया गया है, रौशनदान के मकसद से नहीं। खासकर रसोई में और बाथरूम में ताकि धुआँ, खुशबू-बदबू पड़ोसी की नाक में दम न करे। घरवैया को भी सुकून दे। ताज़गी अब रौशनदान से नहीं, exhaust fan से मिलती है। कुछ महीनों पहले मेरी रसोई में जब exhaust fan बार-बार खराब हुआ तो चिढ़कर मैंने सोचा कि छोड़ ही दिया जाए और उस छेद को रौशनदान मानकर चला जाए तो सब हँसने लगे। तीसरी मंज़िल पर और कोई खतरा तो नहीं, मगर चूहों और गिलहरियों की आमद का बेधड़क रास्ता बन जाता वह। हारकर रौशनदान की योजना धरी की धरी रह गई और उस जगह एक नए exhaust fan की तैनाती कर दी गई।  

चिड़ियों का बसेरा बनता है रौशनदान, यह जानी हुई बात है। कई कहानियों में रौशनदान में बने घोंसलों, उसमें दिए गए अंडों और नवजात बच्चों का ज़िक्र मिलता है और इंसान की कशमकश का भी कि रौशनदान साफ़ करना अधिक ज़रूरी है या जीव रक्षा करना। कविताएँ भी लिखी गई हैं रौशनदान पर, मगर अभी कुछ याद नहीं। अलबत्ता गूगल बाबा ने गुलज़ार की एक फ़ालतू सी कविता दिखाई "मेरे रौशनदान में बैठा एक कबूतर"। लगता है कि AI ने गुलज़ार की शैली में लिख दिया है :) 

रौशनदान से छिटकती सूरज की किरणों को कवियों, चित्रकारों, नाटककारों सबने इतना दिखलाया है कि उसकी चमक अब उत्साह नहीं जगाती है। प्रकाश-व्यवस्था करनेवालों ने कैमरे के आगे-पीछे, मंच पर, कोने-कोने में वास्तविक रौशनदान और उसके रूपक का बहुविध इस्तेमाल किया है। 

कहना न होगा कि रौशनदान के किस्से अनगिनत हैं। और जब मैं किस्सा कह रही हूँ तो कल्पना से उपजे किस्सों से अधिक अनुभवजनित किस्से हैं। उनमें से हमारी करीबी (गुरुपुत्री) नीरजा दी' के लिए रौशनदान मृत्यु से पहले परिचय का माध्यम बना था। यह उनके बचपन की बात है यानी साठ का दशक रहा होगा। हुआ यों था कि वे सब गाँव गए थे। उनके पीछे वाले घर में किसी का देहांत हो गया था। वहाँ से रोने की आवाज़ें आ रही थीं, पर बच्चों को बाहर नहीं जाने दिया जा रहा था। उनकी उत्सुकता स्वाभाविक थी, मगर घर के बड़े तो दुख से बच्चों को दूर रखना चाहते हैं। बाहर की हलचल की वजह जानने का उपाय बच्चों को सूझ नहीं रहा था। एकमात्र संभावना का द्वार था रौशनदान, मगर वह खासा ऊपर था। आखिर में उन्होंने जुगत लगाई। नीरजा दी' और उनका भाई - दोनों बच्चे किसी तरह अपने कमरे में रखे लकड़ी के संदूक पर चढ़े। तब संदूक की बगल में जो लकड़ी की आलमारी थी उस पर चढ़ना आसान हो गया और रौशनदान उसी आलमारी के ऊपर था। अब रौशनदान से पीछे वाले घर का नज़ारा साफ़ साफ़ दिख रहा था। इतना साफ़ कि आज तक वह दृश्य नीरजा दी' की आँखों में कैद है! वह रौशनदान उन्हें भूलता नहीं है।

इसी से ध्यान आता है मकबरों, गुंबदों और तहखानों में बने रौशनदान का भी। देखा जाए तो एक तरफ़  रौशनदान रहस्य पैदा करता है तो रहस्य खोलता भी है। ताला है तो कुंजी भी है रौशनदान। 

इस प्रसंग में मुझे एक और किस्सा याद आता है रौशनदान से। किसी ने बताया था कि एक बार एक किशोर ने नाराज़ या शायद दुखी होकर अपना कमरा ऐसा बंद कर लिया था कि घरवाले परेशान हो गए थे। तब रौशनदान सहारा बना था और उसी रास्ते कोई उस किशोर तक पहुँच पाया था। ज़ाहिर है कि रौशनदान का आकार बड़ा था और घर की छत से होते हुए उस तक पहुँच पाने ने किशोर की सलामती को सुनिश्चित किया। 

अभी मैं ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और मानवाधिकार वकील सुधा भारद्वाज के जेल में बिताए गए समय के दौरान लिखी गई टिप्पणियों के संकलन 'फाँसी यार्ड' को दुबारा-तिबारा पढ़ रही थी तो एकदम अलग ढंग से रौशनदान का खयाल आया। उसमें दर्ज औरतों की ज़िंदगी में - फाँसी यार्ड में कहाँ है रौशनदान ? क्या रौशनदान की गुंजाइश सबके लिए होती है और सब जगह होती है ? फ़िलिस्तीनी लोगों के लिए कौन सा रौशनदान है ? 

कल मशहूर संस्कृति/कला समीक्षक सदानंद मेनन का एक भाषण सुना था, वह दिमाग में चक्कर काट रहा है (हालाँकि उन पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप की जानकारी ने मुझे हिला दिया है!) वर्तमान समय में पूरी दुनिया में हर जगह जो क्रूरता का घटाटोप है, उसमें क्या कहीं से रौशनी छनकर आ रही है ? क्या कोई रौशनदान खुलेगा ? आज सुबह अपूर्व बात करते रहे अंधकार, मौन, निस्तब्धता के इतना तीव्र हो जाने की कि कान फट जाए, कलेजे से लहू टपकने लगे और कहीं कोई तो हरकत हो। कैसे होगा ? रौशनदान का निर्माण किसके द्वारा और कैसे मुमकिन है ? शायद यही भाव उनको नानाजी - रामगोपाल शर्मा 'रुद्र' (जिनकी आज पुण्यतिथि है) की 1951 की लिखी इस 'आह्वान' कविता तक ले आया - 

कोड़ते चलो जमीन कोड़ते चलो! --
                         कोड़ते चलो !!

सड़ गई वहाँ बयार तक बँधी-बँधी :
वे सड़ाँध के तिलिस्म तोड़ते चलो !
                             कोड़ते चलो !!



 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सार्थक वर्णन। चिड़ियों का घोंसला , गिलहरियों का दरवाजा।

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  2. Your pen has the ability to captivate the reader

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  3. हम उम्र वालों की तो कितनी यादें ताजा हो गईं।अति सुंदर, दिल को छू लेने वाला एहसास

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