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मंगलवार, 27 अगस्त 2013

स्कूल की लड़कियाँ (School ki ladkiyan by Zafar Jahan Begum)

जो लड़कियाँ स्कूलों में तालीम पाती हैं, तालीमे निस्वाँ के मुख़ालिफ़ीन (विरोधियों) की निगाहें उनके तमाम हालात का मुआएना निहायत गौर से करती रहती हैं l और ज़रा कोई बात ख़िलाफ़े मामूल (दस्तूर के ख़िलाफ़) नज़र आई नहीं कि फ़ौरन इसकी गिरफ़्त हो जाती है l और तमाम इलज़ाम स्कूल की तालीम पर थोप दिया जाता है l … 
मेरी एक अज़ीज़ा का कौल है कि बड़ी बूढ़ियाँ जिस नज़र से अपनी बहू और बेटी को देखती हैं, बिल्कुल उसी नज़र से स्कूल और घर की लड़कियों को देखती हैं l यानी जिस तरह कोई ऐब अगर बहू में होगा और इसी क़िस्म का या बिल्कुल वही ऐब बेटी में भी होगा तो बहू का तो साफ़ नज़र आ जाएगा, लेकिन बेटी का या तो नज़र ही नहीं आएगा या अम्दन (जान-बूझकर) नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा l  बिल्कुल यही फ़र्क़ घर और स्कूल की लड़कियों के साथ होता है l यानी जो बरताव बहू के साथ होगा वो स्कूल की लड़की के साथ होगा l और जो तरीक़ा अपनी बेटी के साथ बरता जाता है वो घर की लड़कियों के साथ बरता जाता है l … 


यह अंश 'तहज़ीबे निस्वाँ' नामक उर्दू पत्रिका  में छपी 'स्कूल की लड़कियाँ' शीर्षक रचना से लिया गया है l इसका प्रकाशन वर्ष 1927था l शिक्षा को लेकर जो व्यापक बहस तत्कालीन समाज और समुदाय में चल रही थी उसमें औरतों का स्वर और तेवर ख़ासा अलग था, इसकी  झलक इस अंश में मिलती है l 

लेखिका - ज़फ़र जहाँ बेगम 
किताब - कलामे निस्वाँ 
संपादन - पूर्वा भारद्वाज 
संकलन - हुमा खान 
प्रकाशन - निरंतर, दिल्ली, 2013
 

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