...ख़बर कुछ यूँ है कि कराची से पाँच सौ किलोमीटर के फ़ासले पर ताल्लुक़ा हेडक्वार्टर ढरकी से सत्तर किमी.दूर यूनियन कौंसिल बरुथा में चार कब्रिस्तानों का पता चला है, जिनमें लगभग दो सौ औरतें दफ़न हैं, इन कब्रिस्तानों में आम लोग और बस्ती वाले दाख़िल नहीं हो सकते. यहाँ सिर्फ़ वही लोग आते हैं, जो यहाँ किसी औरत को लाकर क़त्ल करते हैं और फिर यहीं दफ़न कर देते हैं. इन क़ब्रिस्तानों की कोई चारदीवारी नहीं है और इनमें हर तरफ़ झाड़ियाँ उगी हुई हैं. आसपास के आठ-दस गाँव ख़ाली हो चुके हैं, क्योंकि इन गाँव वालों का कहना है कि रात में उन्हें क़त्ल होने वाली औरतों की रूहें नज़र आती हैं और उनके रोने की आवाजें सुनाई देती हैं.
21 वीं सदी में हमारे यहाँ की बेशुमार गरीब और पिछड़ी हुई औरतों का यह मुक़द्दर है. उनके अंजाम पर उदास होते हुए मुझे भोपाल की रियासत याद आती है, जहाँ एक सदी से ज्यादा सिर्फ़ औरतों ने हुकूमत की. प्रिंसेस आबिदा सुल्तान याद आती हैं, जिनकी खुद-नविश्त (आत्मकथा) उनकी मौत से कुछ दिन पहले 'मेमोरीज़ ऑफ़ अ रीबेल प्रिंसेस' के नाम से आई है. भोपाल की बेगम आबिदा सुल्तान ने अगर एक बाग़ी शहज़ादी की ज़िंदगी गुज़ारी तो इस बारे में हैरान नहीं होना चाहिए. फ़ारसी, अरबी, उर्दू और अंग्रेज़ी उन्हें बचपन से पढ़ाई गई. लकड़ी का काम और जस्त के बरतन बनाना सिखाया गया.वह कमाल की निशानेबाज़ और घुड़सवार थीं. घुड़सवारी उन्होंने उस उम्र में सीखी, जब उन्होंने चलना भी नहीं शुरू किया था. वह हॉकी और क्रिकेट खेलतीं, मौसिक़ी की शौक़ीन थीं. हारमोनियम बजातीं और हर एडवेंचर में आगे-आगे रहतीं. कार चलातीं, तो उसकी रफ़्तार से साथ बैठने वालों की चीख़ें निकल जातीं. मुहिमजूई (एडवेंचर) उनके मिज़ाज का हिस्सा थी. ऐसे में साबिक़ (पूर्व) बेगम भोपाल, सुल्तान जहाँ बेगम की निगरानी में कड़े परदे की पाबंदी करना उनके लिए एक सज़ा थी. बारह बरस की उम्र में जाकब वह वाली अहद (उत्तराधिकारी) नामज़द की गईं, तो शाही जुलूस में वह इस हुलिए में शामिल थीं कि उनका पूरा वजूद एक काले बुरके में लिपटा हुआ था और सियाह बुरके की टोपी पर ताज जगमगा रहा था.
यह सब कुछ आबिदा सुल्तान के लिए अज़ाब से कम न था. आख़िरकार उन्होंने रस्सियाँ तुड़ाईं, कमर से नीचे आने वाले बाल काटकर फेंके. पर्दा तर्क किया (छोड़ा) और भोपाल की सड़कों पर मोटरसाइकिल दौडाने लगीं. एक मर्तबा घर से फ़रार हुईं और भेस बदलकर हवाई जहाज़ उड़ाना सीखती रहीं. उधर भोपाल के नवाब उनकी तलाश में हिंदुस्तान भर की ख़ाक छानते रहे. शादी हुई, एक बेटा पैदा हुआ. शहज़ादी की शादी को नाकाम होना था, सो हो गई...
प्रिंसेस आबिदा सुल्तान की खुद-नविश्त हिन्दुस्तानी अशराफिया (खानदानी लोग) की एक ऐसी औरत की कहानी है, जिसने बग़ावत के रास्ते पर क़दम रखा और अपने बाद आने वालियों के लिए नयी राहें खोलीं. यह खुद-नविश्त हमारे सामने भोपाल के महलात से मलीर (कराची) के मज़ाफात (ग्रामीण क्षेत्र) और मुल्क चीन से अमेरिका तक ज़िंदगी गुज़ारने वाली ऐसी लडकी का किस्सा है, जिसने उस अहद (ज़माने) की लड़कियों और औरतों की आँखों में ख़्वाबों के जाने कितने चिराग़ जलाए. लेकिन मुझे घोटकी (ढरकी ?) के क़ब्रिस्तान में दफ़न वे कारी औरतें याद आती हैं, जिनके लिए किसी आँख से आँसू नहीं गिरते और जिनकी क़ब्र पर कोई चिराग़ नहीं जलता .
14 अगस्त, 2005
लेखिका - जाहिदा हिना
संकलन - पाकिस्तान डायरी
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2006
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें