लिखने को लोगों ने नाहक़ बदनाम कर रखा है कि मुश्किल है मुश्किल. कुछ भी मुश्किल नहीं है. लेकिन फ़र्ज़ करो कि पढ़ने की निस्बत लिखना कुछ मुश्किल है तो वैसी ही उसकी मुनफ़अतें भी हैं. जो शख़्स पढ़ना जानता है और लिखना नहीं जानता उसकी मिसाल उस गूँगे की सी है जो दुसरे की सुनता और अपनी नहीं कह सकता. अगर कोई शख़्स शुरू-शुरू में किसी किताब से ज़्यादा नहीं एक सतर दो सतर रोज़ नक़ल किया करे और इसी तरह अपने दिल से बनाकर लिखा करे और इस्लाह लिया करे और नक़ल करने और लिखने में झेंपे और झिझके नहीं तो ज़रूर चंद महीनों में लिखना सीख जायगा. खुशख़ती से मतलब नहीं. लिखना एक हुनर है जो ज़रूरत के वक्त बहुत काम आता है. अगर ग़लत हो या हर्फ़ बदसूरत और नादुरुस्त लिखे जायँ तो बेदिल होकर मश्क़ को मौकूफ़ मत करो. कोई काम हो इब्तदा में अच्छा नहीं हुआ करता. अगर किसी बड़े आलिम को एक टोपी कतरने और सीने को दो जिसको कभी ऐसा इत्तिफ़ाक़ न हुआ हो वो ज़रूर टोपी ख़राब करेगा. चलना-फिरना जो तुमको अब ऐसा आसान है कि बेतकल्लुफ़ दौड़ी-दौड़ी फिरती हो, तुमको शायद याद न रहा हो कि तुमने किस मुश्किल से सीखा. मगर तुम्हारे माँ-बाप और बुज़ुर्गों को बखूबी याद है कि पहले तुमको बेसहारे बैठना नहीं आता था. जब तुमको गोद से उतारकर नीचे बिठाते एक आदमी पकड़े रहता था. या तकिये का सहारा लगा देते थे. फिर तुमने गिर-पड़कर घुटनों चलना सीखा. फिर खड़ा होना लेकिन चारपाई पकड़कर. फिर जब तुम्हारे पाँव ज़्यादा मज़बूत हो गए रफ़्ता-रफ़्ता चलना आ गया मगर सदहा मर्तबा तुम्हारे चोट लगी और तुमको गिरते सुना. अब वही तुम हो कि खुदा के फ़ज़्ल से माशा-अल्लाह दौड़ी-दौड़ी फिरती हो. इसी तरह एक दिन लिखना भी आ जायगा. और फ़र्ज़ करो तुमको लड़कों की तरह अच्छा लिखना न भी आया तो बक़दरे ज़रूरत तो ज़रूर आ जायगा और यह मुश्किल तो नहीं रहेगी कि धोबन की धुलाई और पीसने वाली की पिसाई के वास्ते दीवार पर लकीरें खींचती फिरो. या कंकर-पत्थर जोड़कर रखो. घर का हिसाब ओ किताब लेना-देना ज़बानी याद रखना मुश्किल है. और बाज़ मर्दों की आदत होती है कि जो रुपया-पैसा घर में दिया करते हैं उसका हिसाब पूछा करते हैं. अगर ज़बानी याद नहीं है तो मर्द को शुबहा होता है कि यह रुपया कहाँ खर्च हुआ और आपस में नाहक़ बदगुमानी पैदा होती है. अगर औरतें इतना लिखना भी सीख लिया करें कि अपने समझने के वास्ते काफ़ी हो तो कैसी अच्छी बात है.
लेखक - नज़ीर अहमद
किताब - मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण)
हिन्दी लिप्यंतर - मदनलाल जैन
प्रकाशक - साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1958
'उर्दू भाषा की घरेलू जीवन की शिक्षा देने वाली अमर रचना' के रूप में मशहूर डिप्टी नज़ीर अहमद का यह छोटा-सा नाविल मिरातुल-उरूस (गृहिणी-दर्पण) वाकई महत्त्वपूर्ण है. इसे उन्होंने अपनी बेटी के पढ़ने के लिए लिखा था. आगे जाकर "यह किताब जिसके अरबी नाम को बदलकर लोगों ने 'अकबरी असग़री की कहानी' कर लिया था, न सिर्फ़ लड़कियों की बल्कि बड़ी उम्र के मर्दों और औरतों की भी सबसे महबूब किताबों में शुमार होती थी." इसमें क्या, अधिकांश जगह लड़कियों की तालीम के मकसद को लेकर बहस की जा सकती है, लेकिन इसके अंदाज़े बयान का जादू सब पर चलके रहता है. इस किताब का पहला बाब यानी अध्याय है - 'तमहीद के तौर पर औरतों के लिखने-पढ़ने की ज़रूरत और उनकी हालत के मुनासिब कुछ नसीहतें'. प्रस्तुत अंश उसी से है.
यह किताब शादी ब्याह के मौकों पर लड़कियों को माँ बाप वैसे ही दिया करते थे जैसे कुरान शरीफ की प्रति।
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