सनीचर, 3 जनवरी, 2009 : मैं डर गई हूं
कल पूरी रात मैंने ऐसा डरावना ख़्वाब देखा जिसमें फ़ौजी
हेलीकॉप्टर और तालिबान दिखाई दिए। स्वात में फ़ौजी ऑपरेशन शुरू होने के बाद इस
क़िस्म के ख़्वाब मैं बार-बार देख रही हूं। मां ने नाश्ता दिया और फिर तैयारी करके मैं स्कूल के लिए रवाना हो गई। मुङो स्कूल जाते व़क्त बहुत ख़ौफ महसूस हो रहा था क्योंकि
तालिबान ने एलान किया है कि लड़कियां स्कूल न जाएं।
आज हमारे क्लास में 27 में से सिर्फ़ 11लड़कियां
हाज़िर थीं। यह तादाद इसलिए घट गई है कि लोग तालिबान के एलान के बाद डर गए हैं।
मेरी तीन सहेलियां स्कूल छोड़कर अपने ख़ानदानवालों के साथ पेशावर, लाहौर और रावलपिंडी जा चुकी हैं।
एक बजकर चालीस मिनट पर स्कूल की छुट्टी हुई। घर जाते व़क्त रास्ते में मुङो एक शख़्स की आवाज़ सुनाई दी जो कह रहा था, ‘मैं आपको नहीं छोडूंगा।’ मैं डर गई और मैंने अपनी रफ्तार बढ़ा दी। जब थोड़ा आगे गई तो पीछे
मुड़ कर मैंने देखा। वह किसी और को फोन पर धमकियां दे रहा था। मैं यह समझ बैठी कि वह शायद मुङो ही कह रहा है।
सोमवार, 5 जनवरी, 2009 : ज़रक़ बरक़ लिबास नहीं पहनें
आज जब स्कूल जाने के लिए मैंने यूनिफॉर्म पहनने के लिए हाथ
आगे बढ़ाया तो याद आया कि हेडमिस्ट्रेस ने कहा था कि आइंदा हम घर के कपड़े पहन कर
स्कूल आ जाया करें। मैंने अपने पसंदीदा गुलाबी रंग के कपड़े पहन लिए। स्कूल में हर
लड़की ने घर के कपड़े पहन लिए जिससे स्कूल घर जैसा लग रहा था। इस दौरान मेरी एक
सहेली डरती हुई मेरे पास आई और बार-बार क़ुरान का वास्ता देकर पूछने लगी कि ‘ख़ुदा के लिए सच-सच बताओ, हमारे स्कूल को तालिबान से ख़तरा तो नहीं?’
मैं स्कूल ख़र्च यूनिफॉर्म की जेब में रखती थी, लेकिन आज जब
भी मैं भूले से अपनी जेब में हाथ डालने की कोशिश करती तो हाथ फिसल जाता क्योंकि
मेरे घर के कपड़ों में जेब सिली ही नहीं थी।
आज हमें असेम्बली में फ़िर कहा गया कि आइंदा से ज़रक़ बरक़
(तड़क-भड़क, रंगीन) लिबास पहन कर न आएं क्योंकि इस पर भी तालिबान ख़फ़ा हो सकते हैं।
बुधवार, 14 जनवरी, 2009 : शायद दोबारा स्कूल ना आ सकूं
आज मैं स्कूल जाते व़क्त बहुत ख़फा थी क्योंकि कल से सर्दियों
की छुट्टियां शुरू हो रही हैं। हेडमिस्ट्रेस ने छुट्टियों का एलान तो किया तो मगर
मुक़र्रर तारीख़ नहीं बताई। ऐसा पहली बार हुआ है। पहले हमेशा छुट्टियों के ख़त्म
होने की मुक़र्रर तारीख़ बताई जाती थी। इसकी वजह तो उन्होंने नहीं बताई, लेकिन मेरा ख़याल है कि तालिबान की जा
निब से पंद्रह जनवरी के बाद लड़कियों के स्कूल जाने पर
पाबंदी के सबब ऐसा किया गया है।
इस बार लड़कियां भी छुट्टियों के बारे में पहले की तरह
ज़्यादा ख़ुश दिखाई नहीं दे रही थीं क्योंकि उनका ख़याल था कि अगर तालिबान ने अपने
एलान पर अमल किया तो शायद स्कूल दोबारा न आ सकें।
जुमेरात, 15 जनवरी, 2009 : तोपों की गरज से भरपूर रात
पूरी रात तोपों की शदीद घन गरज थी जिसकी वजह से मैं तीन
मर्तबा जग उठी। आज ही से स्कूल की छुट्टियां भी शुरू हो गई हैं, इसलिए मैं आराम से
दस बजे उठी। बाद में मेरी क्लास की एक दोस्त आई और हमने होमवर्क के बारे में बात की।
आज पंद्रह जनवरी थी यानी तालिबान की तरफ़ से लड़कियों के
स्कूल न जाने की धमकी की आख़िरी तारीख़। मगर मेरी दोस्त कुछ इस एत्माद से होमवर्क
कर रही है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
आज मैंने मक़ामी अख़बार में बीबीसी पर शाया होनेवाली अपनी
डायरी भी पढ़ी। मेरी मां को मेरा फ़र्ज़ी नाम ‘गुल मकई’ बहुत पसंद आया और अब्बू से कहने लगी कि मेरा नाम बदल कर गुल
मकई क्यों नहीं रख लेते। मुङो भी यह नाम पसंद आया क्योंकि मुङो अपना नाम इसलिए
अच्छा नहीं लगता कि इसके मानी ‘ग़मज़दा:’ के हैं।
अब्बू ने बताया कि चंद दिन पहले भी किसी ने डायरी की प्रिंट
लेकर उन्हें दिखाई थी कि ये देखो स्वात की किसी तालिबा कि कितनी ज़बरदस्त डायरी
छप रही है। अब्बू ने कहा कि मैंने मुस्कराते हुए डायरी पर नज़र डाली और डर के
मारे यह भी न कह सका कि ‘हां, यह तो मेरी बेटी की है।’
लेखिका - गुल मकई उर्फ मलाला युसूफ़ज़ई
मूल स्रोत - बीबीसी उर्दू वेबसाइट
उर्दू से हिन्दी अनुवाद- नासिरूद्दीन
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