कर सको घृणा
क्या इतना
रखते हो अखण्ड तुम प्रेम ?
जितनी अखण्ड हो सके घृणा
उतना प्रचण्ड
रखते क्या जीवन का व्रत-नेम ?
प्रेम करोगे सतत ? कि जिस से
उस से उठ ऊपर बह लो
ज्यों जल पृथ्वी के अन्तरंग
में घूम निकल झरता निर्मल वैसे तुम ऊपर वह लो ?
क्या रखते अन्तर में तुम इतनी ग्लानि
कि जिस से मरने और मारने को रह लो तुम तत्पर ?
क्या कभी उदासी गहिर रही
सपनों पर, जीवन पर छायी
जो पहना दे एकाकीपन का लौह वस्त्र, आत्मा के तन पर ?
है ख़त्म हो चुका स्नेह-कोष सब तेरा
जो रखता था मन में कुछ गीलापन
और रिक्त हो चुका सर्व-रोष
जो चिर-विरोध में रखता था आत्मा में गर्मी, सहज भव्यता,
मधुर आत्म-विश्वास l
है सूख चुकी वह ग्लानि
जो आत्मा को बेचैन किये रखती थी अहोरात्र
कि जिस से देह सदा अस्थिर थी, आँखें लाल, भाल पर
तीन उग्र रेखाएँ, अरि के उर में तीन शलाकाएँ सुतीक्ष्ण,
किन्तु आज लघु स्वार्थों में घुल, क्रन्दन-विह्वल,
अन्तर्मन यह टार रोड के अन्दर नीचे बहाने वाली गटरों से भी
है अस्वच्छ अधिक,
यह तेरी लघु विजय और लघु हार l
तेरी इस दयनीय दशा का लघुतामय संसार
अहंभाव उत्तुंग हुआ है तेरे मन में
जैसे घूरे पर उट्ठा है
धृष्ट कुकुरमुत्ता उन्मत्त l
कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध
संकलन - तार सप्तक
संकलनकर्ता और संपादक - अज्ञेय
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण - 1963
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