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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

एक सपना (Ek sapana by Muktibodh)


पता नहीं न जाने कब से डाल रक्खा है 
शिखरों के रुँधे हुए विवरों में 
आत्म-चेतन अँधेरे में 
              कोई मैला जाल रक्खा है 
नगरों का कचरा सब पाल रक्खा है l

रामायण के न जाने कब के सड़े पत्ते 
गयी-गुज़री रोशनी के टूटे हुए कुछ स्विच 
रौबदार वसीलों से फूले हुए थीसिस 
मरी हुई परियों की
कुर्सियों के टूटे हुए हत्थे 
श्रृंगार-प्रसाधन का अटाला व जाँघिए
पीले पड़े प्रेमपत्र भरे हुए बैंक-बुक 
अँगड़ाई लेती हुई कलाओं की मेहराब 
अध-नंगे वाक़ए 
भिन्न-भिन्न पोज़ और भिन्न रूप-कोण लिए फ़ोटो
रौब-दाब, दाँव-पेंच छक्के-सत्ते
विदेशों के लिए सिये फ़ैशनेबल कपड़े-लत्ते
भूरे पड़े पासपोर्ट सड़े हुए पोर्टमेंटो
और इस सब शुची सामग्री की राशि पर 
भूतपूर्व ज्वालाओं के इन सब 
भवनों के अंदर
तहख़ाने तलघर 
जिनके गहरे सावधान अँधेरे में घनघोर 
मरी हुई परियों के मिले-जुले कमज़ोर 
नाज़ुक-नाज़ुक गलों से 
फूट पड़ता एकाएक 
कोई रोना नभ तक 
गूँजता है अब भी 
कहता है -सारी आग 
जाने कब की बुझ गयी;
गरम-गरम झरनों का झाग भी न बचा है 
सिर्फ़ देह पर रह गयी रह गयी आदतें 
हर चीज़ मुट्ठी में रखने की सिफ़तें 
बन गयी खूँख़ार
इसीलिए, बचा-खुचा जो भी रह गया है 
ब्याजं उसका, दर उसका बहुत बढ़ गया है !!

इतने में देखता मैं क्या हूँ कि 
उन्हीं ज्वालामुखियों के दल में से एक ने 
सीसे-जैसी लंबी-लंबी आसमानी हदों तक 
लंबी चुरुट सुलगायी
दाँतों से होठ दाब जाने किस तैश में 
चहरे की सलवटें और रौबदार कीं
गड़गड़ाते हुए वह कहने लगा - हे मूर्ख,
देख मुझे पहचान 
मुझे जान 
मैं मरा नहीं हूँ 
देखते नहीं हो क्या 
मेरी यह सिगरेट धुँआती है अब तक 
मेरी आग मुझमें है जल रही अब भी l 

इतने में मेरा सपना खुल गया 
                    उचट गयी मेरी नींद l 


कवि - मुक्तिबोध 
किताब - मुक्तिबोध रचनावली, भाग 2 
प्रकाशक - राजकमल, 

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